बेनकाब होता किसान आंदोलन

कोरोना काल ने देश की वास्तविकता और राजनीति के बीच एक बड़े विरोधाभास को बेपर्दा किया है।

Update: 2021-05-28 05:27 GMT

कोरोना काल ने देश की वास्तविकता और राजनीति के बीच एक बड़े विरोधाभास को बेपर्दा किया है। इस विरोधाभास में एक तरफ देश का किसान है तो दूसरी तरफ किसानों के नाम पर चलाया जा रहा आंदोलन। महामारी और लॉकडाउन के बीच यह आशंका व्यक्त की जा रही थी कि कोरोना का असर देश की कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर भी पड़ सकता है, लेकिन किसानों ने आश्चर्यपूर्ण ढंग से आशंकाओं को दरकिनार करके अनाज का रिकॉर्ड उत्पादन किया और सरकार ने भी रिकॉर्ड खरीदी की। कोरोना की दूसरी लहर के बीच अपेक्षा की जा रही थी कि किसानों और गांवों की चिंता करते हुए किसान आंदोलन कुछ दिन भीड़ से दूर हटेगा, लेकिन इसके विपरीत सड़कों पर सियासत जारी है। किसान नेताओं ने महामारी और लॉकडाउन के बीच ही 26 मई को आंदोलन के छह महीने पूरे होने पर देशव्यापी विरोध प्रदर्शन की घोषणा कर दी है। यह प्रदर्शन ऐसे समय होगा, जब सभी सरकारें गांवों में संक्रमण को विकराल होने से रोकने में लगी हैं।

यह राजनीतिक अवसरवाद की पराकाष्ठा है कि कोरोना पर सरकार को उपदेश देने वाली कांग्रेस, सपा, शिवसेना, टीएमसी और वाम दलों समेत 12 विपक्षी पाॢटयों ने इस विरोध प्रदर्शन को अपना समर्थन देने की घोषणा की है। कांग्रेस भले ही दुष्प्रचार की अपनी टूलकिट को फर्जी बताने का प्रयास कर रही हो, लेकिन उसकी रणनीति ठीक
वैसी ही रही, जैसी इस टूलकिट में बताई गई। इतने संवेदनशील समय में किसान आंदोलन को समाप्त करने की अपील करने की जगह 26 मई के विरोध प्रदर्शन को समर्थन देकर विपक्ष ने विरोध के लिए विरोध वाले सोच को फिर से स्पष्ट किया। बंगाल चुनाव में किसान नेताओं को मोहरा बनाने के बाद अब शायद विपक्ष और इन किसान नेताओं को अपने रिश्ते को ढंकने की जरूरत भी नहीं लगती। किसान नेताओं का कोई राजनीतिक आधार भले ही न हो, लेकिन विपक्षी प्रचारतंत्र देश-विदेश में सरकार की छवि बिगाडऩे में उनका इस्तेमाल फिर भी करना चाहता है। इसीलिए किसान नेताओं ने अब यूपी और दूसरे राज्यों के चुनावों में भी भाजपा विरोध में खुलकर अपनी राजनीतिक भूमिका की घोषणा कर दी है।
वास्तव में राजनीतिक अवसरवाद किसान आंदोलन का अंत नहीं होने देना चाहता। किसान नेताओं को समझना चाहिए कि किसी भी आंदोलन को जीवित रहने के लिए निष्पक्ष रहना जरूरी होता है। अगर सरकार किसानों के हित में कोई फैसला लेती है तो आंदोलन के नेताओं के पास उसका स्वागत करने की भी सामथ्र्य होना चाहिए, लेकिन जिनके हाथों में इन किसान नेताओं की बागडोर है, वे अपनी इन कठपुतलियों को इसकी इजाजत कैसे दे सकते हैं?
देश में छोटे किसानों की संख्या 11 करोड़ से भी ज्यादा है और इनके हित में मोदी सरकार ने एक के बाद एक फैसले लिए हैं। हाल में सरकार ने डीएपी पर सब्सिडी 140 प्रतिशत बढ़ाई। आज माइक्रो इरिगेशन और यूरिया की नीम कोटिंग जैसे फैसलों का सबसे ज्यादा लाभ छोटे किसानों को ही हो रहा है। स्वॉयल हेल्थ कार्ड जैसे प्रयास छोटे किसानों की खेती को नुकसान से फायदे की तरफ ले जा रहे हैं।
जनधन योजना के तहत बैंक खाते खुलने से भी सबसे बड़ा लाभ गांवों में छोटे किसानों को ही हुआ है। कोरोना काल में ही विशेष अभियान चलाकर दो करोड़ से ज्यादा छोटे किसानों को किसान क्रेडिट कार्ड यानी केसीसी से जोड़ा गया। इसके तहत दो लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का कृषि ऋण भी किसानों को मिला है। 2014 के पहले केसीसी में सात लाख करोड़ रुपये दिये जाते थे, लेकिन आज किसानों को मिलने वाला यह सस्ता ऋण 16 लाख करोड़ रुपये हो गया है। मोदी सरकार ने पीएम किसान सम्मान निधि के जरिये 11 करोड़ किसानों को एक लाख 35 हजार करोड़ रुपये सीधे उनके बैंक खाते में पहुंचाए हैं। अब तो सरकारी योजनाओं में मिलने वाले पैसे की तरह ही उपज की खरीद का पैसा भी बैंक खातों में जा रहा है।
किसान आंदोलन के पीछे जो एक बड़ी वजह एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य को बताया जा रहा है, उसे लेकर भी मोदी सरकार का अब तक का रिकॉर्ड किसानों के पक्ष में है। स्वामीनाथन कमेटी की चर्चा किसान नेताओं ने भी करना बंद कर दिया था, लेकिन मोदी सरकार ने इस कमेटी की सिफारिशों को लागू किया। इसका परिणाम यह है कि 2013-14 के मुकाबले आज (2020-21) गेहूं का एमएसपी करीब 41 प्रतिशत, मसूर दाल का 73 प्रतिशत तो चने का 65 प्रतिशत बढ़ गया है। खरीफ में भी 2013-14 के मुकाबले ज्वार के एमएसपी में 74 प्रतिशत, धान में 43, मूंग दाल में 60 प्रतिशत तक बढ़ोतरी हुई है। बीते सात सालों में सिर्फ एमएसपी को ही नहीं बढ़ाया, बल्कि रिकॉर्ड खरीद भी की गई है। 2014 के पहले के पांच सालों के मुकाबले पिछले पांच सालों (2016-17 से 2020-21 तक) में धान की खरीद लगभग दो गुना, तिलहन की 11 गुना और दलहन की 78 गुना ज्यादा की गई है। गेहूं की खरीद भी रिकॉर्ड स्तर पर हो रही है।
किसान नेताओं को यह स्वीकार करना चाहिए कि देश में हरित क्रांति का जो लाभ पंजाब और हरियाणा के किसानों तक ही सीमित था, मोदी सरकार पहली बार उसे देश के हर किसान तक पहुंचाने का प्रयास कर रही है। देश के इन करोड़ों किसानों को आज कृषि कानून जैसे सुधारों की सख्त जरूरत है। भारतीय राजनीति में दशकों से जिस तरह किसानों को गरीबी और दुर्दशा का प्रतीक बनाकर रखा गया है, उसे बदलने के लिए जरूरी सुधारों को राजनीति का शिकार बनाने से देश का किसान और ग्रामीण अर्थव्यवस्था दशकों पीछे चली जाएगी।


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