फर्जी का संजाल
इसलिए ऐसी खबरें और विचार परोसने वाले चैनलों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की चिंता वाजिब है।
मुख्यधारा मीडिया के समांतर सोशल मीडिया पर सूचना का विशाल संसार निरंतर रचा जाता और प्रसारित होता रहता है। निस्संदेह इससे बहुत सारी ऐसी सूचनाएं भी लोगों तक पहुंच पाती हैं, जो मुख्यधारा मीडिया में नहीं आ पातीं या जिन्हें वह जानबूझ कर छोड़ देता है। इसलिए इसको सूचना का एक सशक्त माध्यम माना जाता रहा है। मगर पिछले कुछ सालों से सोशल मीडिया मंचों पर जिस तरह की निरंकुशता दिखाई देने लगी है, वह सचमुच चिंता का विषय है। चूंकि सोशल मीडिया पर अपना खाता बनाने या न्यूज चैनल चलाने के लिए किसी प्रकार का लाइसेंस लेने या किसी कानूनी प्रक्रिया से गुजरने की जरूरत नहीं होती, इसलिए बहुत सारे लोगों ने इसे अभिव्यक्ति के सहज माध्यम के रूप में अपना लिया है।
इनमें ऐसे लोगों की भी संख्या बहुत बड़ी है, जो किसी दलगत विचारधारा, धार्मिक मान्यता, सामाजिक रूढ़ि आदि के वशीभूत होकर नफरत फैलाने की मंशा से फर्जी सूचनाएं गढ़ते और परोसते रहते हैं। अनेक निजी चैनलों पर सांप्रदायिक रंग देते हुए सामग्री परोसी जाती है। इसे लेकर सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई थी, जिस पर सुनवाई करते हुए स्वाभाविक ही अदालत ने गहरी चिंता जताई है। उसने केंद्र सरकार से पूछा है कि ऐसी खबरें परोसने वाले निजी चैनलों पर अंकुश लगाने के लिए क्या आपने कभी कोशिश की है।
हालांकि फर्जी खबरों पर अंकुश लगाने के मकसद से केंद्र सरकार ने यू-ट्यूब आदि पर चलने वाले निजी चैनलों पर निगरानी रखने का एक तंत्र विकसित करने का इरादा जताया था, मगर उसमें पारदर्शिता न होने के कारण सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि केवल सत्ता के विरोध में आवाज उठाने वाले लोगों पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता। फर्जी, वैमनस्यतापूर्ण और सांप्रदायिकता फैलाने वाली और सरकार की नीतियों, फैसलों आदि की आलोचना करने वाली टिप्पणियों, विचारों में अंतर करने की जरूरत है। फर्जी खबरें कभी एक स्वस्थ समाज के विकास में सहायक नहीं हो सकतीं। उनसे समाज में नफरत और हिंसा को ही बढ़ावा मिल सकता है।
सरकार की आलोचना स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है। मगर चूंकि केंद्र सरकार जिन नियम-कायदों के जरिए फर्जी खबरों पर नकेल कसना चाहती थी, उसमें सरकार के आलोचक चैनलों को सबक सिखाने की मंशा अधिक थी, इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने इससे संबंधित नियम-कायदों को व्यावहारिक बनाने को कहा था। हालांकि तब अदालत ने जोर देकर कहा था कि मीडिया- प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया- को अधिक जिम्मेदारी से अपने कर्तव्यों का पालन करने की जरूरत है, बिना खबरों की पुष्टि के उन्हें छापने, प्रसारित करने, उन पर टिप्पणी करने से परहेज करना चाहिए। फिर सरकार ने इन मंचों के नियमन के लिए सूचना प्रौद्योगिकी कानून में संशोधन और परिवर्द्धन कर लागू कर दिया।
शुरू से जोर दिया जाता रहा है कि मीडिया में स्वनियमन होना चाहिए। मगर हकीकत यह है कि संचार माध्यम शायद अपनी नैतिक जिम्मेदारी भूलते जा रहे हैं। सोशल मीडिया ही क्यों, कोरोना की पहली लहर में जिस तरह तबलीगी जमात और पालघर मामले में मुख्यधारा मीडिया ने भी तथ्यों को बिना जांचे-परखे खबरें चलानी शुरू की थी, उससे सामाजिक समरसता को खतरा पैदा हो गया था। सोशल मीडिया का हाल यह है कि उस पर बहुत सारे एसे निजी चैनल खुल गए हैं, जो किसी दलगत या धार्मिक विचारधारा से संचालित हैं। उनकी खबरें न सिर्फ फर्जी ढंग से गढ़ी हुई होती हैं, बल्कि नफरत को बढ़ावा देती हैं। इसलिए ऐसी खबरें और विचार परोसने वाले चैनलों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की चिंता वाजिब है।