By: divyahimachal
पिछले दिनों माननीय उच्च न्यायालय के समक्ष कालका-शिमला फोरलेन से जुड़ी इंजीनियरिंग, आपत्तियों के घेरे में आ गई है। हाई कोर्ट ने एक आम आदमी के पत्र पर संज्ञान लेते हुए, इंजीनियरिंग तथा वास्तुशास्त्र पर उठाए गए प्रश्नों को आधार बनाकर नेशनल हाईवे अथारिटी तथा प्रदेश सरकार के मुख्य सचिव को नोटिस दिया है। फोरलेन के मोड़ को लेकर उठाई गई त्रुटियों के कारण, चौबीस से अधिक दुर्घटनाएं हो चुकी हैं और यही वजह है कि आम नागरिक जो आसानी से देख रहा है, उसे भी नजरअंदाज करके निर्माण के आदर्श मिटाने की सहमति चल रही है। यह केवल पर्वतीय सडक़ों के प्रारूप में नहीं, बल्कि सरकारी व गैर सरकारी इमारतों, फैलते शहरों की भूमिका में टूटती शहरी योजनाओं, कमोबेश हर विभाग की परियोजनाओं और नागरिक सुविधाओं से जुड़े प्रत्येक निर्माण में स्थापित होती जा रही अवहेलना में तसदीक होता जा रहा है। पर्वतीय इंजीनियरिंग व वास्तुशास्त्र की अहमियत को नजरअंदाज करके हम अपने भविष्य को दांव पर नहीं चढ़ा सकते। मामला भले ही फोरलेन निर्माण के स्तर का है, लेकिन इसके परिप्रेक्ष्य में हिमाचली विकास की पृष्ठभूमि देखी जाए तो मालूम हो जाएगा कि हर निर्माण की वसीहत में खतरे मोल लिए जा रहे हैं। नई सडक़ों या सार्वजनिक इमारतों को केवल वित्तीय लाभ या ठेकेदारी प्रथा के मकसद से पूरा करवाया जाता रहा, तो यह निर्माण या प्रगति हमारी सुरक्षा के खिलाफ है।
विडंबना यह भी है कि सरकारी निर्माण का स्थल सर्वेक्षण, जियोलोजिकल सर्वेक्षण तथा डिजाइनिंग केवल औपचारिकता मात्र होते जा रहे हैं। सरकारी इमारतों के सही उपयोग तथा सुरक्षा की गारंटी के लिए जो निरीक्षण-परीक्षण होने चाहिएं, उन्हें ठुकरा कर केवल आंकड़ों या लक्ष्यों की जुबान में निर्माण होगा, तो हर मोड़ पर खतरा खड़ा होगा। आश्चर्य यह कि हिमाचल में नवनिर्माण के लिए कोई आचार संहिता ही तैयार नहीं हुई और इसके चलते कहीं तो भवन आठ-दस मंजिला होकर भी उत्तरदायी नहीं, लेकिन कहीं पर राजनीतिक तौर पर भूमि इस्तेमाल पर अड़चनें आ जाती हैं। हम देख चुके हैं कि कुल्लू घाटी में कितनी बार अनेक होटल जलसमाधि ले चुके हैं, फिर भी क्षेत्र विकास के लिए कोई अथारिटी सामने नहीं आई। इस मामले में टीसीपी कानून की परतें अप्रासंगिक और संबंधित विभाग के निर्देश कब के मर चुके हैं। आश्चर्य यह कि निर्माण को गति देने के लिए राजनीतिक प्राथमिकताएं इतनी हावी हो चुकी हैं कि कहीं तो अनुमति नहीं और कहीं पहाड़ की कोख भी काट दी जाती है। उदाहरण के लिए केंद्रीय विश्वविद्यालय के धर्मशाला परिसर की शिनाख्त में पिछले दस सालों से रोड़े अटकते रहे और जदरांगल की जमीन की पड़ताल जियोलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के मुख्यालय कोलकाता तक पहुंच जाती है, मगर दूसरी ओर रंगस की एक पहाड़ी पर खड़े हो रहे मेडिकल कालेज की नाजुक जमीन को किसी सर्वेक्षण की जरूरत नहीं पड़ती।
इसी तरह स्मार्ट सिटी परियोजनाओं में इंजीनियरिंग व वास्तुशास्त्र की अवहेलना के जीते जागते उदाहरण शिमला व धर्मशाला में मिल जाएंगे। शिमला के कार्ट रोड को चौड़ा करती स्मार्ट योजना पत्थर से की गई चिनाई को भूलकर कंक्रीट की लिपाई कर गई। नतीजतन इससे पानी का प्राकृतिक निकास रुकेगा और इसके दबाव से, शहर के लिए बरसात का कहर सुनिश्चित हो जाएगा। जिस ग्राम एवं नगर योजना अधिनियम के तहत हिमाचल की वादियों, हरियाली, प्राकृतिक दृश्यों, घाटी के परिदृश्यों की अनावश्यक निर्माण से बचाव की उम्मीद थी, वह अब राजनीतिक हथकंडों का टूल है। जिस प्रदेश में कोई भी सडक़ वाहन गति का आश्वासन नहीं दे सकती या जहां एक ही नक्शे पर स्कूल, कालेजों या अस्पतालों के भवन बन जाते हों, वहां इंजीनियरिंग व वास्तुशास्त्र केवल ईंट-मसाले का खेल बनकर रह गए हैं। हिमाचल में नवनिर्माण की आचार संहिता का निर्धारण व पालन अति आवश्यक हो गया है।