फैसिलिटेशन परिषद : लघु उद्यमों की सहायक

पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त करने के बाद, गत 50 वर्षों में प्रदेश ने औद्योगिक विकास के फ्रंट पर काफी प्रगति की है

Update: 2022-01-09 19:06 GMT

पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त करने के बाद, गत 50 वर्षों में प्रदेश ने औद्योगिक विकास के फ्रंट पर काफी प्रगति की है। जहां शुरू में उद्योग के नाम पर कुछ गिने-चुने उद्यम ही थे, आज तस्वीर पूरी तरह बदल गई है। जाने-माने औद्योगिक घरानों ने प्रदेश को अपनी कार्यस्थली बनाया है, परंतु आंकड़ों की दृष्टि से देखा जाए जो अभी भी लगभग 98 प्रतिशत उद्यम भारत सरकार द्वारा उद्यम वर्गीकरण की नई परिभाषा के अनुसार ''सूक्ष्म व लघु'' की श्रेणी में आते हैं। सूक्ष्म उद्यम वो हैं जिनमें एक करोड़ रुपए तक का पूंजी निवेश, ''संयंत्र व मशीनरी'' में लगा हो व सालाना टर्नओवर 5 करोड़ रुपए तक हो। लघु उद्यम वो कहलाते हैं जिनका सालाना कारोबार 50 करोड़ रुपए तक हो व ''प्लांट व मशीनरी'' में निवेश 10 करोड़ रूपए तक हो। उद्योगों के वर्गीकरण के पायदान में सूक्ष्म व लघु सबसे निचली श्रेणी के उद्यम हैं। आए दिन ये उद्यम जो अपना ''उत्पाद व सेवाएं'' दूसरी पार्टी को बेचते हैं, पर समय पर पैसे की अदायगी न होने पर संकट में रहते हैं। कई बार तो जब इनका बहुत सारी कैपिटल (वसूली योग्य राशि) खरीददार के पास फंस जाती है तो ''समुचित कार्यशील पूंजी'' उपलब्ध न होने के कारण ऐसे उद्यमों के बंद होने तक की नौबत आ जाती है। यह भी उद्योगों की रूग्णता का एक महत्त्वपूर्ण कारण है। यदि अपने धन की वसूली के लिए वे कोर्ट का रुख करते हैं तो सालों-साल फैसला होने में लग जाते हैं। सन् 2006 में भारत सरकार के ''सूक्ष्म, लघु व मध्यम उद्योग मंत्रालय'' द्वारा ''सूक्ष्म, लघु व मध्यम उद्योग विकास अधिनियम -2006'', लाया गया जो कि ऐसे उद्यमों की स्थापना व परिचालन को नियंत्रित करता है। इसी अधिनियम के ''चैप्टर-5'' में विलंबित अदायगी (डिलेड पेमंेटस) के शीघ्र निपटान हेतु राज्यों के लिए ''फैसिलिटेशन परिषद'' के गठन की व्यवस्था की गई है। विलंबित अदायगी की सबसे अधिक समस्या सूक्ष्म व लघु उद्यमों के समक्ष आती है। इसी को ध्यान में रखते हुए केवल इन्हीं दो श्रेणियों के लिए फैसिलिटेशन परिषद की व्यवस्था की गई है। फैसिलिटेशन परिषद एक ऐसा ''अर्द्धन्यायिक निकाय'' है, जिसका पदेन सभापति उद्योग विभाग का निदेशक होता है। इस निकाय में राज्य वित्त निगम, राज्य स्तरीय बैंकर समिति तथा औद्योगिक संगठनों के प्रतिनिधि सदस्य के रूप में रहते हैं। अर्द्धन्यायिक निकाय होने के कारण यह एक स्वायत्त निकाय है, जिसकी कार्यप्रणाली पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है।

यह प्रावधान इस निकाय की निष्पक्षता कायम रखने के लिए किया गया है। हिमाचल प्रदेश में भी यह निकाय गत 10 वर्षों से कार्य कर रहा है। प्रदेश में कार्यरत कोई भी सूक्ष्म व लघु उद्यम चाहे, वो विनिर्माण क्षेत्र या सेवा क्षेत्र में हो, इस परिषद के समक्ष अपनी विलंबित अदायगी का ऑनलाइन आवेदन प्रस्तुत कर सकता है, बशर्ते खरीददार से उसकी विलंबित अदायगी को 45 से अधिक दिन हो गए हांे। यह परिषद मात्र एक सहायक की भूमिका निभाती है व तकरीबन हर माह होने वाली इसकी बैठक में विक्रयकर्ता व खरीददार दोनों को नोटिस भेजकर बुलाया जाता है व आमने-सामने बिठाकर दोनों पक्षों में समझौता करवाने का प्रयास किया जाता है। प्रारंभ में इस परिषद की कार्यप्रणाली के प्रति सूक्ष्म व लघु उद्यमियों का अधिक विश्वास नहीं था व मात्र 20-25 प्रकरण ही सुनवाई के लिए परिषद के सामने आते थे। परंतु शनैः – शनैः जब विक्रयकर्ता को इस परिषद के हस्तक्षेप से 2-3 माह में ही उसकी रुके हुए पैसे की अदायगी होने लगी या दोनों पक्षों में आपसी सहमति से समझौता हो गया तो परिषद की कार्यप्रणाली की विश्वसनीयता बढ़ गई। फलस्वरूप आज लगभग 200 से 250 प्रकरण पूरे प्रदेश से इस परिषद के समक्ष हर माह निपटारे के लिए आते हैं। परिषद की अधिकतर कार्यप्रणाली ऑनलाइन है, जिसके फलस्वरूप प्रकरणों की छंटनी शीघ्रता से होती है ताकि समय पर उन्हें परिषद के समक्ष निपटारे के लिए रखा जा सके। परिषद को सूक्ष्म, लघु व मध्यम उद्यम विकास अधिनियम-2006 के अंतर्गत दोषी पार्टी के विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए कोई दंडात्मक शक्तियां नहीं दी गई हैं।
निपटारे की सारी प्रक्रिया सौहार्दपूर्ण वातावरण में सभापति व सदस्यों द्वारा संचालित की जाती है और यही प्रयास रहता है कि 90 दिनों के भीतर सारे व्यवधानों को सुलझा कर खरीददार को राजी कर दिया जाए कि वह विक्रयकर्ता के धन की अदायगी ब्याज सहित कर दे। यदि उसके पश्चात भी दोनों पक्ष समझौते के लिए राजी नहीं होते हैं तो यह परिषद यह स्वीकार करते हुए कि अब समझौते की कोई गुंजाइश नहीं है, उनका मामला सरकार द्वारा अधिसूचित मध्यस्थता करने वाले सेवानिवृत सत्र-न्यायाधीशों के समक्ष भेजा जाता है, ताकि वो ''मध्यस्थता व समाधान अधिनियम-1996'' के प्रावधानों के अनुसार विलंबित अदायगी के इन विवादों का निपटारा कर सकें। इन सेवानिवृत सत्र-न्यायाधीशों से भी अपेक्षा की जाती है कि वे 90 दिनों के भीतर अपना निर्णय जारी कर दें। निर्णय अधिकतर विक्रयकर्ता के पक्ष में ही होता है और फैसले में लगभग एक माह के अंदर खरीददार को विक्रयकर्ता की रुकी हुई धनराशि की अदायगी करनी पड़ती है। यह व्यवस्था बहुत ही कारगर सिद्ध हो रही है। अब तक परिषद द्वारा सैंकड़ों प्रकरणों का सौहार्दपूर्ण तरीके से निपटारा किया जा चुका है। सूक्ष्म व लघु उद्यमों के लिए अधिनियम में वर्णित कार्यप्रणाली बहुत सहायक सिद्ध हो रही है व इस लेख के माध्यम से हिमाचल में कार्यरत ऐसे सभी सूक्ष्म व लघु उद्यमों से आग्रह किया जाता है कि यदि उनकी भी देय राशि की अदायगी 45 दिनों से अधिक का समय होने पर भी नहीं की जा रही है तो वे फैसिलिटेशन परिषद के सामने अपना मामला ले जाएं, निश्यच ही उन्हंे भी अन्यों की तरह राहत मिलेगी व कोर्ट-कचहरी के लंबे झमेलों से वे बच पाएंगे।
संजय शर्मा
लेखक शिमला से हैं
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