यह बात सही हो सकती है, लेकिन इस कारण बिजली का संकट पैदा नहीं होना चाहिए था। कोयले के खदान में जितने निवेश की कमी हुई है, यदि उतना ही निवेश सोलर और वायु ऊर्जा में किया गया तो कोयले से बनी ऊर्जा में जितनी कमी आई होगी, उतनी ही वृद्धि सोलर और वायु ऊर्जा में होनी चाहिए थी। ऊर्जा क्षेत्र में कुल निवेश कम हुआ हो, ऐसे संकेत नहीं मिलते हैं। इसलिए कोयले में निवेश की कमी को संकट का कारण नहीं बताया जा सकता है। हाल में आए बिजली के संकट का मूल कारण ग्लोबल वार्मिंग दिखता है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण एक तरफ बिजली का उत्पादन कम हुआ तो दूसरी तरफ बिजली की मांग बढ़ी है। पहले उत्पादन पर विचार करें। जैसा ऊपर बताया गया है, बीते समय में बाढ़ के कारण कोयले का खनन कम हुआ था। यह बाढ़ स्वयं ग्लोबल वार्मिंग के कारण बढ़ी है, ऐसे संकेत मिल रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग से वर्षा कम समय में अधिक मात्रा में होने के अनुमान हंै जो कि बाढ़ का कारण बनता है। इसलिए बाढ़ को दोष देने के स्थान पर हमको ग्लोबल वार्मिंग पर ध्यान देना होगा। ग्लोबल वार्मिंग का दूसरा प्रभाव यह रहा है कि अमरीका के लुजियाना और टेक्सास राज्यों में कई तूफान आए। इन्हीं राज्यों में तेल का भारी मात्रा में उत्पादन होता है जिससे विश्व अर्थव्यवस्था में तेल की उपलब्धि कमी हुई और कोयले का उपयोग बढ़ा। विश्व बजार में कोयले की मांग बढ़ी, दाम बढे़ और हमारे लिए आयातित कोयला महंगा हो गया जिसके कारण अपने देश में भी संकट पैदा हुआ।
ग्लोबल वार्मिंग का तीसरा प्रभाव चीन में रहा है। चीन के कई क्षेत्रों में सूखा पड़ा है जिसके कारण जल विद्युत का उत्पादन कम हुआ है और कई क्षेत्रों में हवा का वेग कम रहा है जिसके कारण वायु ऊर्जा का उत्पादन कम हुआ है। इन तीनों रास्तों से ग्लोबल वार्मिंग ने कोयले और बिजली की उपलब्धि को कम किया है। दूसरी तरफ ग्लोबल वार्मिंग के कारण ही ऊर्जा की मांग बढ़ी है। बीते वर्ष यूरोप एवं अन्य ठंडे देशों में सर्दी का समय लंबा खींचा है जिसके कारण वहां घरों को गर्म रखने के लिए तेल की खपत बढ़ी है। इस प्रकार ग्लोबल वार्मिंग के कारण एक तरफ बाढ़, तूफान और सूखे के कारण ऊर्जा का उत्पादन गिरा है तो दूसरी तरफ मकानों को गर्म रखने के लिए तेल की खपत बढ़ी है। इस असंतुलन के कारण विश्व में तेल और कोयले का दाम बढ़ा है और जिसका प्रभाव भारत में भी पड़ा है। हम अपनी खपत का 85 फीसदी तेल और 10 फीसदी कोयला आयात करते हैं। यूं तो 10 फीसदी कम दिखता है, लेकिन आयातित कोयले के महंगा हो जाने के कारण आयातित कोयले पर चलने वाले घरेलू बिजली संयंत्रों से बिजली का उत्पादन महंगा पड़ने लगा जिसे बिजली बोर्डों ने खरीदने से मना कर दिया। कई बिजली संयंत्र बंद हो गए।
इनके बंद होने से जो बिजली उत्पादन में कटौती हुई, उसकी पूर्ति अन्य माध्यम से नहीं हो सकी, क्योंकि साथ-साथ कोयले के घरेलू उत्पादन में कटौती हुई। इसलिए अपने देश में यह समस्या पैदा हो गई। आने वाले समय में ऐसी समस्या पुनः उत्पन्न न हो, इसके लिए हमें दो कदम उठाने होंगे। पहली बात यह कि देश में ऊर्जा की खपत कम करनी होगी। हमारे पास कोयले के भंडार केवल 150 वर्षों के लिए उपलब्ध हैं और तेल के लिए हम आयातों पर निर्भर हैं, इसलिए हमें देश में ऊर्जा के मूल्य को बढ़ाना चाहिए और उस रकम को ऊर्जा के कुशल उपयोग के लिए लगाना चाहिए। जैसे यदि सरकार बिजली का दाम बढ़ा दे और कुशल बिजली की मोटरों को लगाने के लिए सबसिडी दे तो देश में ऊर्जा की खपत कम होगी, लेकिन उद्यमी को नुक्सान नहीं होगा और हमारा जीडीपी प्रभावित नहीं होगा। दूसरा, सरकार को बिजली के मूल्यों में उसी प्रकार मासिक परिवर्तन करना होगा जिस प्रकार तेल के मूल्यों में दैनिक परिवर्तन किया जा रहा है। वर्तमान व्यवस्था में बिजली बोर्डों को उत्पादकों से ईंधन के मूल्य के अनुसार खरीदनी पड़ती है। जब अंतरराष्ट्रीय कोयले अथवा तेल के दाम बढ़ जाते हैं तो इन्हें महंगी बिजली खरीदनी पड़ती है। लेकिन उपभोक्ताओं को इन्हें उसी पूर्व के मूल्य पर बिजली बेचनी पड़ती है क्योंकि उपभोक्ताओं को किस मूल्य पर बिजली बेची जाएगी, यह लंबे समय के लिए विद्युत नियामक आयोगों द्वारा निर्धारित किया जाता है। इसलिए बिजली बोर्डों के सामने संकट पैदा हो गया है। एक तरफ उन्हें महंगी बिजली खरीदनी पड़ रही है, लेकिन उपभोक्ता से वे पूर्व के अनुसार बिजली के कम दाम ही वसूल कर सकते हैं। इसलिए हमें व्यवस्था करनी होगी कि बिजली के दामों में भी उसी प्रकार परिवर्तन किया जाए जिस प्रकार डीजल और पेट्रोल के दाम में परिवर्तन होता है। तब बिजली बोर्ड खरीद के मूल्य के अनुसार उपभोक्ता को महंगी अथवा सस्ती बिजली उपलब्ध करा सकेंगे और इस प्रकार का संकट पुनः उत्पन्न नहीं होगा।
भरत झुनझुनवाला
आर्थिक विश्लेषक
ई-मेलः bharatjj@gmail.com