अदालत से ही उम्मीद, यौन उत्पीड़न पर घटती संवेदना

राहत की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ के उस फैसले पर रोक लगा दी है जिसमें कहा गया था कि

Update: 2021-01-29 14:59 GMT

राहत की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ के उस फैसले पर रोक लगा दी है जिसमें कहा गया था कि पॉक्सो (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्शुअल ऑफेंसेज) एक्ट के तहत यौन उत्पीड़न के लिए स्किन टु स्किन टच जरूरी है, ऐसा सिद्ध न होने की स्थिति में मामले को छेड़खानी ही समझा जाए। 19 जनवरी को हाईकोर्ट का यह फैसला आने के बाद से ही इस पर बहस शुरू हो गई थी। मामला 12 साल की एक बच्ची के यौन उत्पीड़न से जुड़ा है। सेशन कोर्ट ने 39 साल के बांडू रगड़े को पॉक्सो एक्ट के तहत दोषी मानते हुए तीन साल कैद की सजा सुनाई थी।


मगर हाईकोर्ट ने कहा कि चूंकि कपड़ा उतारने की कोशिश सफल नहीं हुई और लड़की के प्राइवेट पार्ट से स्किन टु स्किन टच नहीं हुआ, इसलिए इसे पॉक्सो के तहत यौन उत्पीड़न नहीं माना जा सकता। इस फैसले के बाद यह सवाल उठ गया कि क्या बाल यौन उत्पीड़न के मामलों में टच की यह नई परिभाषा पॉक्सो एक्ट के तहत बच्चों को मिली सुरक्षा को कमजोर नहीं करती। यह देखना दिलचस्प है कि दिसंबर 2012 में निर्भया की मृत्यु का कारण बने बलात्कार के बाद देश में यौन उत्पीड़न विरोधी चेतना का जो उभार दिखा था, वह टिका तो नहीं ही रह सका, उलटे पिछले कुछ सालों से भारतीय समाज के और पीछे जाने का रुझान दिख रहा है।

हालांकि 2013-14 तक यह चेतना इतनी प्रभावी थी कि यौन उत्पीड़न संबंधी कानूनों में तेजी से सुधार करते हुए इसके दायरे को काफी व्यापक बनाना संभव हो गया था। तरुण तेजपाल और आसाराम बापू जैसे मामलों में जिस तरह की ठोस कार्रवाई हुई, उसके पीछे इस चेतना की साफ भूमिका देखी जा सकती थी। इसका दबाव 2014 में लोकसभा चुनावों पर भी दिखा, जिसमें 'बहुत हुआ नारी पर वार…' जैसे नारे प्रमुखता से चले। मगर इसके बाद सोच की यह सक्रियता कुंद पड़ने लगी, जिसका नतीजा कठुआ, उन्नाव और हाथरस गैंगरेप जैसी घटनाओं में पुलिस प्रशासन के ढुलमुल रवैये के रूप में देखने को मिला।

कठुआ मामले को तो इस मायने में भी ऐतिहासिक कहना होगा कि पहली बार वहां बाकायदा एक फ्रंट बनाकर आरोपियों के पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश की गई। राजनीति आम तौर पर परदे के पीछे से जो काम करती है, इस खास मामले में वह खुले रूप में कर रही थी। बहरहाल, भारतीय राजनीति से अब किसी सकारात्मक जीवन मूल्य के पक्ष में खड़े होने की उम्मीद भी नहीं की जाती। वह किसी भी मुद्दे या मूल्य को अपनी सुविधा के तर्क से ही अपनाती या छोड़ती है।

पुलिस और प्रशासन राजनीति के ही इशारों पर चलता है इसलिए उधर से भी रोशनी की कोई किरण अपवाद स्वरूप ही दिखती है। ऐसे में उम्मीद का कोई कोना अगर बचता है तो वह न्यायपालिका ही है। यौन उत्पीड़न के मामलों में इस कोने को देर तक बचाए रखने की सचेत कोशिशें सुप्रीम कोर्ट से ही अपेक्षित हैं।


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