चुनाव आयोग से अपेक्षा

किसी भी लोकतंत्र की सफलता उसके जनादेश की शुचिता से तय होती है।

Update: 2021-04-07 00:45 GMT

किसी भी लोकतंत्र की सफलता उसके जनादेश की शुचिता से तय होती है। और इसी पवित्रता को सुनिश्चित करने के लिए दुनिया भर के लोकतंत्रों ने तमाम तरह के प्रयोग-इंतजामात भी किए हैं। भारतीय चुनाव आयोग ने बैलेट पेपर से ईवीएम और फिर वीवीपैट तक का सफर तय किया। कभी एक-दो चरण में निपटने वाले चुनाव अब आठ-नौ चरणों में इसीलिए होते हैं, ताकि इस विशाल लोकतंत्र में हाशिये के मतदाता भी बेखौफ होकर अपने मताधिकार का इस्तेमाल कर सकें। कोई असामाजिक तत्व जनादेश की पवित्रता न नष्ट कर सके। लेकिन पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के दौरान तंत्र की जो अनियमितताएं सामने आई हैं, वे न केवल निर्वाचन आयोग की प्रतिष्ठा को चोट पहुंचाती हैं, बल्कि लोकतंत्र में आम आदमी की आस्था को भी डिगाती हैं। पहले असम में भाजपा उम्मीदवार की गाड़ी से ईवीएम का पाया जाना, फिर वहीं के हाफलौंग विधानसभा क्षेत्र के एक मतदान केंद्र पर कुल पंजीकृत मतदाताओं से लगभग दोगुना वोट गिर जाना और अब पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के एक नेता के यहां से ईवीएम व वीवीपैट की बरामदगी बताती है कि ये लापरवाहियां कितनी गंभीर हैं। इन तीनों ही मामलों में चुनाव आयोग ने संबंधित दोषी अधिकारियों को निलंबित किया है, पर आयोग के लिए यह गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए, ताकि भविष्य में ऐसी कोई गड़बड़ी फिर सामने न आए। इन अनियमितताओं के अलावा भी उसके कतिपय फैसलों का लोगों में संदेश अच्छा नहीं गया। आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में पहले असम के स्वास्थ्य मंत्री हेमंत बिस्व सरमा के 48 घंटे तक प्रचार करने पर रोक लगार्ई गई थी और फिर अगले ही दिन प्रतिबंध की अवधि घटाकर 24 घंटे कर दी गई। अगर सरमा के खिलाफ शिकायत गंभीर नहीं थी, तो फिर उनके विरुद्ध ऐसा कदम ही क्यों उठाया गया? हम नहीं भूल सकते कि आयोग ने सख्त नजीरों से ही अपनी साख अर्जित की है।

चुनाव आयोग का काम काफी चुनौतीपूर्ण है, इससे कौन इनकार कर सकता है? लेकिन देश के आम चुनाव के मुकाबले ये तो फिर भी पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव हैं। आयोग को अपने पर्यवेक्षकों के स्तर पर अधिक काम करने की जरूरत है। मतदानकर्मियों को बेहतर प्रशिक्षण देने की भी आवश्यकता है। देश में चुनाव प्रचार इन दिनों जितने कटु होते जा रहे हैं, उसे देखते हुए आयोग को आचार संहिता को सख्ती से लागू करना होगा। भारतीय चुनावों की वैश्विक प्रतिष्ठा देश के लिए गर्व की बात है, इसकी हर हाल में रक्षा की जानी चाहिए। आला अदालत और चुनाव आयोग जैसे अब चंद ही सांविधानिक संस्थान ऐसे बचे हैं, जिन पर भारतीयों का भरोसा कायम है। इस भरोसे की रक्षा की जिम्मेदारी इनके कर्ता-धर्ताओं के ऊपर ही है। लोकतंत्र में जनता जिन संस्थाओं से शक्ति अर्जित करती है, उनकी मजबूती कितनी जरूरी है, हाल ही में हमने अमेरिका में देखा है। चुनाव आयोग के लिए यह कम चुनौतीपूर्ण नहीं है कि वह सभी राजनीतिक पार्टियों, उम्मीदवारों को एक बराबर मैदान मुहैया कराए। मतदाताओं को मतदान केंद्रों तक आने के लिए उत्साहित करने में पार्टियों के प्रचार से कहीं बड़ी भूमिका आयोग में भरोसे की है। इसलिए चुनाव आयोग को इन चूकों से पार पाते हुए अपने लिए लगातार ऊंचा लक्ष्य रखना होगा।


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