चुनाव आयोग से अपेक्षा
किसी भी लोकतंत्र की सफलता उसके जनादेश की शुचिता से तय होती है।
किसी भी लोकतंत्र की सफलता उसके जनादेश की शुचिता से तय होती है। और इसी पवित्रता को सुनिश्चित करने के लिए दुनिया भर के लोकतंत्रों ने तमाम तरह के प्रयोग-इंतजामात भी किए हैं। भारतीय चुनाव आयोग ने बैलेट पेपर से ईवीएम और फिर वीवीपैट तक का सफर तय किया। कभी एक-दो चरण में निपटने वाले चुनाव अब आठ-नौ चरणों में इसीलिए होते हैं, ताकि इस विशाल लोकतंत्र में हाशिये के मतदाता भी बेखौफ होकर अपने मताधिकार का इस्तेमाल कर सकें। कोई असामाजिक तत्व जनादेश की पवित्रता न नष्ट कर सके। लेकिन पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के दौरान तंत्र की जो अनियमितताएं सामने आई हैं, वे न केवल निर्वाचन आयोग की प्रतिष्ठा को चोट पहुंचाती हैं, बल्कि लोकतंत्र में आम आदमी की आस्था को भी डिगाती हैं। पहले असम में भाजपा उम्मीदवार की गाड़ी से ईवीएम का पाया जाना, फिर वहीं के हाफलौंग विधानसभा क्षेत्र के एक मतदान केंद्र पर कुल पंजीकृत मतदाताओं से लगभग दोगुना वोट गिर जाना और अब पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के एक नेता के यहां से ईवीएम व वीवीपैट की बरामदगी बताती है कि ये लापरवाहियां कितनी गंभीर हैं। इन तीनों ही मामलों में चुनाव आयोग ने संबंधित दोषी अधिकारियों को निलंबित किया है, पर आयोग के लिए यह गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए, ताकि भविष्य में ऐसी कोई गड़बड़ी फिर सामने न आए। इन अनियमितताओं के अलावा भी उसके कतिपय फैसलों का लोगों में संदेश अच्छा नहीं गया। आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में पहले असम के स्वास्थ्य मंत्री हेमंत बिस्व सरमा के 48 घंटे तक प्रचार करने पर रोक लगार्ई गई थी और फिर अगले ही दिन प्रतिबंध की अवधि घटाकर 24 घंटे कर दी गई। अगर सरमा के खिलाफ शिकायत गंभीर नहीं थी, तो फिर उनके विरुद्ध ऐसा कदम ही क्यों उठाया गया? हम नहीं भूल सकते कि आयोग ने सख्त नजीरों से ही अपनी साख अर्जित की है।