संसद से पूरे काम, व्यवहार की आस
संविधान विशेषज्ञों द्वारा स्थापित मान्यताओं का जिस तेजी से ह्रास हुआ है
के सी त्यागी। संविधान विशेषज्ञों द्वारा स्थापित मान्यताओं का जिस तेजी से ह्रास हुआ है, उस पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाल में की गई टिप्पणी सर्वाधिक उपयुक्त है- 'निस्संदेह, जो संवाद हो रहा है, उसके निम्न स्तर पर राजनीतिक वर्ग को आत्मचिंतन की आवश्यकता है। ऐसे देश में, जो अपनी विविधता पर गर्व करता है, वहां अलग विचार और धारणाएं तो होंगी ही। इसमें संदेह नहीं है कि राजनीतिक वर्ग द्वारा किए जाने वाले आवश्यक कार्य प्रवृत्ति से कई बार उनके बीच की बहस गरम हो सकती है, लेकिन विस्फोट नहीं होना चाहिए। हमें यकीन है कि राय में अंतर बेहतर भाषा में व्यक्त किया जाना चाहिए।'
संसद में निरंतर बढ़ता विरोध और गतिरोध, पक्ष- विपक्ष में बढ़ती तकरार का शक और शुबहा के दायरे तक पहुंच जाना लोकतंत्र की स्वस्थ परंपरा के सर्वथा विपरीत है। संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में दर्जनों ऐसे उदाहरण मौजूद हैं, जब विरोधाभाषी विचारों पर भी राष्ट्रीय मतैक्य बनाने के प्रयास सफल हुए हैं। ऐसे ही एक उदाहरण का उल्लेख भूतपूर्व उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी की ताजा पुस्तक में दर्ज है। पाकिस्तान समय-समय पर कश्मीर पर प्रश्न उठाता रहा है। पाक घुसपैठियों के सैन्य बलों द्वारा मारे जाने को भी पाक मिशन मानवाधिकारों के उल्लंघन से जोड़ने में माहिर है। सन 1993 में संयुक्त राष्ट्र महासभा का अधिवेशन हंगामे से भरा रहा, जब पाकिस्तानी विदेश मंत्री अब्दुल सत्तार के नेतृत्व में एक उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल ने भारत के विरुद्ध चौतरफा प्रहार शुरू कर दिया। पाकिस्तान को तात्कालिक सफलता भी मिली और जेनेवा में होने वाले मानवाधिकार सम्मेलन की सूची में यह प्रश्न शामिल हो गया। मार्च 1994 में होने वाले इस सम्मेलन की गंभीरता को महसूस कर प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने भारत का पक्ष मजबूती से रखने के लिए एक उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल भेजने का निर्णय किया।
बैठक प्रारंभ होते ही पाकिस्तान के विदेश मंत्री चकित हो गए, जब उन्होंने भारतीय प्रतिनिधिमंडल के नेता के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी को देखा। बहुत विस्मयकारी अंदाज में उन्होंने पूछा, 'आप यहां कैसे?' वाक्पटु वाजपेयी ने कहा कि वह भारत का पक्ष रखने के लिए यहां आए हैं। पाकिस्तानी विदेश मंत्री को आश्चर्य इस बात को लेकर था कि कांग्रेस सरकार से विपरीत राय रखने के बावजूद कश्मीर जैसे प्रश्न पर कैसे समूचा भारत एकमत हुआ? बैठक में अटल बिहारी वाजपेयी के तर्कों के सामने सभी हतप्रभ हो गए।
ऐसे ही कई रोचक प्रसंग पंडित नेहरू और डॉक्टर लोहिया को लेकर भी हैं। सर्वविदित है कि किस प्रकार संसद और संसद के बाहर, दोनों जगह कटु संवाद होता रहा। नेहरू सरकार के खिलाफ पेश पहले अविश्वास प्रस्ताव पर लोहिया ने कटु प्रहार किए, खासकर आर्थिक और विदेश नीति को लेकर। चीन युद्ध के बाद लता मंगेशकर ने पंडित नेहरू की उपस्थिति में ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी... गाकर सभी श्रोताओं को रोने के लिए मजबूर कर दिया था। लोहिया को आपत्ति थी कि ऐसी शर्मनाक पराजय के बाद आंखों में पानी के बजाय बदला लेने की भावना दिखनी चाहिए। आर्थिक स्थिति पर उन्होंने नेहरू को कड़ी चुनौती दी कि देश की बड़ी आबादी कैसे तीन आना रोज पर गुजारा कर रही है। यद्यपि नेहरू लोहिया से असहमत थे, लेकिन उनके तर्कों का मान रखते हुए उन्होंने योजना आयोग के उपाध्यक्ष अशोक मेहता को अपने चैंबर में बुलाया और वस्तु स्थिति का पता लगाने का निर्देश दिया।
ऐसे ही एक घटनाक्रम का जिक्र आवश्यक है, जब नेपाल में राजशाही का विरोध करते हुए डॉक्टर लोहिया नेपाल दूतावास के पास गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल भेज दिए गए। सरदार पटेल उस समय गृह मंत्री थे। नेहरू ने अपने सबसे विश्वसनीय मंत्री जॉन मथाई को लोहिया से मुलाकात के लिए भेजा। इसको लेकर सरदार पटेल काफी कुपित थे। उन्होंने नेहरू को पत्र लिखकर अपनी आपत्ति दर्ज कराई, लेकिन नेहरू का जवाब चौंकाने वाला था, जब उन्होंने सरदार पटेल को पत्र द्वारा सूचित किया कि इंदु (इंदिरा गांधी) उस समय अगर दिल्ली में उपस्थित रही होती, तो वह लोहिया से मुलाकात के लिए उन्हें भेजते।
आज विपक्ष और सत्ता पक्ष में अविश्वास की दीवार इतनी ऊंची हो चली है कि साफ और स्वस्थ आवाजें भी सुनाई नहीं पड़ती हैं। अविश्वास और कटुता के ऐसे माहौल में संसदीय प्रक्रियाओं का संचालन लगभग असंभव हो चला है। पंडित नेहरू के बाद संवादहीनता को कमजोर करने का श्रेय वाजपेयी को भी जाता है। उनके प्रधानमंत्री काल में बुश प्रशासन द्वारा इराक पर बड़ी कार्रवाई की गई और तीसरी दुनिया के काफी देश इसका विरोध कर चुके थे। भारत में भी कम्युनिस्ट पार्टियां आंदोलित थीं, पर भारत द्वारा अमेरिकी सैन्य विमानों की भारतीय भूमि से तेल की आपूर्ति आपत्तिजनक थी। सोमनाथ चटर्जी (सीपीएम) और इंद्रजीत गुप्ता (सीपीआई) के नेतृत्व में सांसदों का एक प्रतिनिधिमंडल प्रधानमंत्री से मिला और अपनी चिंताओं से उन्हें अवगत कराया। मजाकिया अंदाज में वाजपेयी ने कहा, कॉमरेड, इस प्रश्न को संसद में क्यों नहीं उठाते? अगले दिन वाम दलों द्वारा संसद में इस प्रश्न को उठाए जाने पर सरकार ने अमेरिकी युद्ध विमानों की तेल की आपूर्ति बंद कर दी।
इसी तरह, शरद पवार के 60वें जन्मदिवस पर शिवाजी पार्क में एक सार्वजनिक आयोजन किया गया, जिसमें सभी दलों के नेताओं को बुलाया गया। मुख्य अतिथि के रूप में अटल जी आमंत्रित थे, पर जब उन्होंने अपना भाषण देना प्रारंभ किया, तो सभी आश्चर्यचकित हो गए। उनका कहना था कि उनकी पार्टी के कई नेता नहीं चाहते थे कि वह इस कार्यक्रम का हिस्सा बनें। चुनाव के ऐन मौके पर हुए इस आयोजन से शरद पवार को राजनीतिक लाभ हो सकता है। वाजपेयी के इस कथन के बाद देर तक तालियों की गूंज सुनाई दी कि अगर मैं अनुपस्थित होता, तो लोकतांत्रिक मूल्यों की क्षति होती।
अभी आजादी के अमृत महोत्सव के दर्जनों कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। पक्ष और प्रतिपक्ष इन कार्यक्रमों में हिस्सेदार हैं। आर्थिक, सामाजिक टकरावों के दौर से हम गुजर रहे हैं। सभी इकट्ठे होंगे, तभी इन चुनौतियों से पार पा सकेंगे। उचित संवाद, सारगर्भित असहमति, मिल-जुलकर गंभीर प्रश्नों पर विमर्श ही एकमात्र रास्ता है लोकतंत्र के संचालन का और संसद में इन समस्याओं के निराकरण का। अपने पुरखों के अनुभवों को साझा कर हमें बहस को और अर्थपूर्ण बनाना ही होगा।