अधिनायकत्व के जनाज़े का उपसंहार
यह तो मेरी समझ में आ गया कि अमेरिका में जो हुआ, क्यों हुआ।
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। यह तो मेरी समझ में आ गया कि अमेरिका में जो हुआ, क्यों हुआ। लेकिन यह मेरी समझ में नहीं आया कि अमेरिकी-कुप्रसंग में, बिना किसी के दिखाए भी, भारतीय संदर्भ के डरावने साए लोगों को क्यों दिखाई देने लगे? बृहस्पतिवार को छोटे परदे पर बैठा हर सूत्रधार अर्चन-मंडली के भागीदारों को लगातार यह कह कर उकसाने में व्यस्त रहा कि अमेरिकी संसद में डॉनल्ड ट्रंप के अनुचरों की करतूत से निकले जनतंत्र के जनाज़े पर विलाप कर रहे लोग दरअसल भारत में ऐसे अंदेशे के परोक्ष संकेत दे रहे हैं।
वे दे रहे थे या नहीं, रामलला बेहतर जानें! लेकिन मीडिया पुजारियों के मन में अगर ऐसा सार्वजनीन अपराध-बोध खदबदा रहा था तो क्या यह बेबात है? सत्तासीन मंडली की पूरी शक्ति यह दिखाने की कोशिश में क्यों लगी हुई है कि न तो ट्रंप के व्यक्तित्व की पेचीदगियों की किसी भारतीय व्यक्तित्व के मकड़जाल से कोई तुलना की जानी चाहिए और न केपिटोल हिल पर हुई बेहूदगी के पीछे की मानसिकता को भारत में हुए किसी मज़हबी हादसे के पीछे काम कर रही दिमाग़ी सोच से जोड़ कर देखा जाना चाहिए। मैं इन दोनों ही बातों से इत्तफ़ाक रखता हूं। मगर परेशान हूं कि पोंछा इतना ज़ोर-ज़ोर से क्यों लगाया जा रहा है? क्या हमारे कालीन के नीचे का फ़र्श सचमुच इतना गंदला हो गया है?
बुहस्पतिवार की रात मुझे रिपब्लिक टीवी के अर्णब गोस्वामी ने अपनी टीवी बहस में बुलाया। आप तो जानते ही हैं कि वे हमारे मुल्क़ के आत्ममुग्ध-क्लब के उन अनन्य सदस्यों में से हैं, जिन्हें लगता है कि वे सब जानते हैं और उनसे ज़्यादा जानने का हक़ किसी को है ही नहीं। आप यह भी जानते हैं कि अर्णब बहस के दौरान असहमतियों के स्वरों को हर-संभव हथकंडे अपना कर कुचलने के लिए कुख्यात हैं। बावजूद इसके कि मेरे कई मित्र-परिचित कहते हैं कि मुझे उनके चैनल पर नहीं जाना चाहिए, मैं जाता हूं, क्योंकि, एक तो, मैं किसी व्यक्ति और विचार के बहिष्कार का हामी नहीं हूं, और दूसरे, मुझे लगता है कि प्रतिकूल-मंच पर, जितनी भी हो सके, अपनी बात रखनी ही चाहिए। सो, इस बार भी मैं ने बहस में शिरक़त की।
अब मज़ा देखिए कि अर्णब ने उनके शतरंज-पटल पर मौजूद भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता नलिन कोहली को मेरे कुछ कहने से पहले ही अपना दरबान बना कर पेश कर दिया और जैसे ही मैं ने इतना भर कहा कि 'मैं अमेरिका की घटना में भारत के किसी व्यक्तित्व या प्रसंग की समानार्थक छवि नहीं खोज रहा हूं, लेकिन सिर्फ़ इतना कहना चाहता हूं कि चरम-विचारों के अनुगामी लोग दुनिया के किसी भी देश में लोकतंत्र के लिख खतरा ही साबित होते हैं', अर्णब ने खच-खच अपनी कैंची चलानी शुरू कर दी। उन्होंने नलिन को बार-बार यह कह कर उकसाया कि देखिए, यह किसकी तरफ़ इशारे कर रहे हैं? मैं ने लाख कहा कि मैं तो किसी का नाम ले ही नहीं रहा, मगर कौन सुने?
नलिन ज़हीन हैं। वे अचैतन्य कुपात्राओं की तरह भौंभौंवादी नहीं हैं। लेकिन अपने कर्तव्य से बंधे थे, सो, उन्हें जिनका बचाव करना था, पूरे भक्ति-भाव से करते रहे। मेरे इन सवालों के जवाब न उनके पास थे और न उन्हें देने की ज़रूरत थी कि जब मैं ट्रंप के व्यक्तित्व की ख़ामियों का ज़िक्र कर रहा हूं तो वे इसे किसी और से नत्थी क्यों कर रहे हैं? मैं तो किसी का नाम ले नहीं रहा! अर्णब भी अपने सेवादार-फ़र्ज़ से बंधे थे, सो, मेरी असहमतियों को दरकिनार कर मुझ से असहमत शतरंजी मोहरों को सामने लाने का अपना काम करते रहे। अब मैं यूं परेशान हूं कि अर्णब-नलिन वग़ैरह के भीतर बिना बात इतना अपराध-बोध क्यों भरा हुआ है कि कोई कुछ कहता भी नहीं और वे सब समझ जाते हैं?
हिटलर का नाम लेते ही उचकने वाला धड़ा अगर अब ट्रंप का नाम लेते ही बिलबिलाने लगा है तो यह पाप क्या मेरा-आपका है? इस पाप-बोध का कोई क्या करे? लेकिन यह भी सुखद है कि निग़ाहें कहीं पर भी जाएं, लोग एकदम सही निशाना ताड़ लेते हैं। जो अपने आराध्य की मूर्ति भंजित होते नहीं देखना चाहते, वे भी मन-ही-मन सब-कुछ समझ जाते हैं। उनके भीतर कैसी कसक होगी, हम सब समझ सकते हैं। उनमें से शायद ही कोई चाहता हो कि नकारात्मक प्रतिमानों की तरफ़ होने वाले इशारों का अर्थ उनके षिखर-पुरुषों की कार्यशैली से जोड़ कर देखा जाए। लेकिन इस माहौल का वे करें क्या, जो बन गया है? यह माहौल कोई बैठे-ठाले तो बन नहीं गया है। इसमें किसी का कोई तो योगदान होगा? और, जिनका सीधे कोई योगदान नहीं है, उनका भी इतना तो योगदान है ही कि उन्होंने कभी समय पर यह नहीं कहा कि राजा निर्वस्त्र है।
आख़िर अब्राहम लिंकन कहते ही लोगों को उनका ध्यान क्यों नहीं आता, जिनका ट्रंप कहते ही आ जाता है? मैं उस दिन सचमुच ख़ुशी से नाचूंगा, जिस दिन बुद्ध या गांधी कहने भर से उनकी तसवीर निग़ाह में तैरेगी, जिनकी हिटलर कहने से फ़ौरन तैर जाती है। मैं जानता हूं कि ये निरे ख़्वाब हैं और अपना मन मार लेता हूं, लेकिन अनुचर मुंगेरीलालों को इस हसीन सपने की रजाई ओढ़े बैठे रहने से मैं कैसे रोकूं कि संसार में उनके गिरधर सरीखा दूसरा कोई नहीं है? जो समझते हैं कि एकल-व्यक्तित्व के स्वामी होना देवत्व के लक्षण हैं, वे सृष्टि में समावेशिता और परस्पर निर्भरता के बुनियादी दर्शन के कखग से भी कोसों दूर हैं।
चिंता यह नहीं है कि जो अमेरिका में हुआ, कभी भारत में न हो जाए! चिंता यह है कि, झूठे को ही सही, यह विचार मन में उपज क्यों रहा है? भले ही भारत की बुनियादी संवैधानिक संस्थाएं पिछले कुछ वर्षों में बेतरह दरक गई हैं, भले ही इस-उस बहाने सामाजिक दूरियों को बढ़ाने साज़िशें हो रही हैं, भले ही भारतीय प्रजा की सहनशीलता हरि-कथा की तरह अनंता है और भले ही हमारे मौजूदा शासक बुलडोज़री-सोच से गच्च हैं; एक बात जो भूलेगा, वह बुरी तरह गच्चा खा जाएगा, कि हमारे मुल्क़ ने एक बार नहीं, कई-कई बार, वे दृश्य देखे हैं, जब कटे हाथ भी सच्चाई-अच्छाई का परचम लहराने के लिए रातोंरात कतारबद्ध हो जाते हैं।
सो, अमेरिका में कुछ भी हो जाए, भारत में वैसी बिसात बिछाने की सोचना बड़े-से-बड़े पराक्रमी सुल्तान के भी वश के बाहर की बात है। आज हैं कि नहीं, पता नहीं, मगर ख़ुद को ख़ुदा मानने वाले लोग हर दौर में रहे हैं। इतिहास के कूड़ेदान ने उन्हें कब लील लिया, ख़बर भी न हुई। ट्रंप-प्रसंग का मैं इसलिए स्वागत करता हूं कि उसने दुनिया को नए सिरे से आगाह कर दिया है। सो, बची-खुची गुंज़ाइश भी अब ख़त्म हुई। अमेरिका अपने ट्रंप की वज़ह से लगे इस महाकलंक को कैसे धोएगा, वह जाने; भारत ऐसीअ िकिसी भी थू-थू घटना का कभी साक्षी नहीं बनेगा, यह तय था, तय है और अब और भी दृढ़़ता से तय हो गया है। ट्रंप की करतूत से उपजे नतीजे ने संसार भर के तमाम एकाधिकारवादियों के दिमाग़ों के जाले साफ़ कर दिए हैं। अधिनायकत्व के जनाज़े में यह अंतिम भले ही नहीं, मगर बहुत बड़ी कील है।