अमीरी का चुनाव

चाहे वह गांव का मुखिया हो, नगर पार्षद, विधायक या फिर सांसद, जब भी दूसरी बार वह चुनाव मैदान में उतरता और हलफनामा दाखिल करता है, तो उसकी संपत्ति में हैरान करने वाली बढ़ोतरी दर्ज नजर आती है।

Update: 2022-12-02 05:19 GMT

Written by जनसत्ता; चाहे वह गांव का मुखिया हो, नगर पार्षद, विधायक या फिर सांसद, जब भी दूसरी बार वह चुनाव मैदान में उतरता और हलफनामा दाखिल करता है, तो उसकी संपत्ति में हैरान करने वाली बढ़ोतरी दर्ज नजर आती है।

पहले चुनाव के समय जिनकी संपत्ति लाखों में थी, वह दूसरे चुनाव तक बढ़ कर करोड़ों में पहुंच जाती है। दिल्ली के नगर निगम चुनाव में दूसरी बार मैदान में उतरे प्रत्याशियों के हलफनामे का अध्ययन बताता है कि चौरासी में से पचहत्तर पार्षद ऐसे हैं, जिनकी संपत्ति में तीन से चार हजार चार सौ सैंतीस फीसद तक की वृद्धि हुई। हालांकि तीन फीसद बढ़ोतरी वाले पार्षदों की संख्या इक्का-दुक्का है।

एकाध ऐसे भी हैं, जिनकी संपत्ति पहले से घटी है। मगर ज्यादातर की संपत्ति पिछले पांच सालों में औसतन दो गुने से अधिक बढ़ी है। पिछले निकाय चुनाव के दौरान प्रत्याशियों की संपत्ति औसतन 2.93 करोड़ रुपए थी, जबकि इस बार के चुनाव में चौरासी पार्षदों की संपत्ति 4.37 करोड़ रुपए है। ऐसे ही हैरान करने वाले आंकड़े विधानसभा और संसद चुनाव में भी देखे जाते हैं।

अब इस तथ्य को आम मतदाता भी जैसे स्वीकार कर चुका है कि एक बार चुनाव जीतने के बाद जन प्रतिनिधि अचानक फर्श से अर्श पर पहुंच जाते हैं। ऐसा भी नहीं कि जन प्रतिनिधियों को वेतन इतना अधिक मिलता है कि पांच सालों में उनकी जमा पूंजी में करोड़ों की बढ़ोतरी हो जाती है। मगर न तो उन पर आय से अधिक संपत्ति जमा करने के मामले दर्ज किए जाते हैं और न उनकी पार्टी उनके खिलाफ कोई कदम उठाती है।

यह कौन पूछेगा कि आखिर पांच सालों में उनकी आमदनी इतनी कैसे हो जाती है कि उनकी संपत्ति में अचानक बढ़ोतरी हो जाए। यह भी किसी से छिपा नहीं है कि इस तरह की संपत्ति भ्रष्टाचार के जरिए जमा होती है। दिल्ली नगर निगम पार्षदों को विकास कार्य के लिए हर साल एक तय रकम जारी की जाती है। उस रकम के आबंटन में ठेकेदारों से कमीशनखोरी जगजाहिर है।

इसके अलावा भी अतिक्रमण, बिना नक्शा पास कराए भवन निर्माण कराने आदि के लिए उगाही के तथ्य प्रकट हैं। इस चुनाव में विपक्षी राजनीतिक दल इसका खुलेआम आरोप लगाते फिर रहे हैं। फिर यह भी छिपी बात नहीं है कि जन प्रतिनिधि और अधिकारी भ्रष्टाचार से जुटाया बहुत सारा धन और संपत्ति अपने नाम से नहीं रखते। इस तरह उनकी अघोषित संपत्ति का भी अंदाजा लगाया जा सकता है।

विचित्र है कि दिल्ली नगर निगम में वर्षों से भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं। उसके कर्मचारियों को समय पर वेतन नहीं मिल पाता, जिसे लेकर वे जब-तब प्रदर्शन पर उतर आते हैं, हड़ताल पर चले जाते हैं। नगर निगम के स्कूलों, मुहल्लों की गलियों, सड़कों, उनमें रोशनी, सार्वजनिक शौचालयों आदि की दशा दयनीय बनी हुई है। साफ-सफाई के मामले में हर रोज शिकायतें आती रहती हैं।

कचरा प्रबंधन तो इस बार के चुनाव में प्रमुख मुद्दा बन चुका है। इन सब पहलुओं पर ध्यान देने के बजाय निगम पार्षदों का ध्यान अपनी जेबें भरने पर लगा हुआ है, तो निश्चित रूप से यह चिंता का विषय है। मगर सवाल है कि क्या उन पार्षदों के खिलाफ उनकी पार्टियों की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती।

 

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