दिव्याहिमाचल.
कुछ बिजली संकट है और कुछ शोर अधिक मचाया जा रहा है। देश का कोई भी इलाका, शहरी या ग्रामीण, अंधेरे में डूबने के कगार पर नहीं है। अलबत्ता गांवों में एक दिन में औसतन 18-20 घंटे बिजली मिल जाती है, तो उसे बेहतर योजना माना जाता है। कोई ग्रिड फेल नहीं हुआ है और न ही आसार हैं। देश में गैस, पनबिजली और परमाणु ऊर्जा के विकल्प भी सशक्त हैं। अब तो सौर माध्यम से भी बिजली पैदा होनी शुरू हो चुकी है। बेशक कोयला बिजली पैदा करने का सबसे पुराना और व्यापक जरिया है, लिहाजा कोयले की कमी हुई है, तो बिजली संकट को भयावह करार दिया जा रहा है। यदि दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने आनन-फानन में प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखा है, तो वह आदतन है। कोरोना-काल में ऑक्सीजन की कमी को लेकर उन्होंने इसी तरह हाय-तौबा मचाई थी। दरअसल किसी भी संवेदनशील और बुनियादी कमी को लेकर केजरीवाल की सांसें फूलने लगती हैं। प्रबंधन में उनका विश्वास बेहद कम है। बहरहाल सरकारों को विचार करना चाहिए था कि यदि चार दिन का कोयला शेष है, तो पीछे से आपूर्ति भी जारी है। बेशक आपूर्ति की भी अपनी सीमाएं हैं। रविवार को केंद्रीय कोयला मंत्रालय को सार्वजनिक खुलासा करना पड़ा कि अब भी कोल इंडिया के पास 400 लाख टन से ज्यादा कोयला उपलब्ध है, जिससे 24 दिन की आपूर्ति संभव है।
यह भी बताया गया कि देश के बिजली संयंत्रों के पास भी 72 लाख टन से ज्यादा कोयला भंडारण में है। इतना कोयला 4 दिन के लिए पर्याप्त है। मुद्दा यह नहीं है कि कोयले का बफर स्टॉक भी भारत सरकार ने कम क्यों रखा? अहम सवाल यह है कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कोयला महंगा होने के कारण निजी कंपनियों ने आयात बंद क्यों कर दिया? चीन, ऑस्टे्रलिया के बजाय इंडोनेशिया पर ही आपूर्ति का भरोसा क्यों किया गया? कोयले की कमी से निपटने के मद्देनजर बिजली संयंत्रों से बिजली के यूनिट ही बंद करने क्यों शुरू कर दिए? यानी आयात बंद होने से उत्पन्न स्थिति को संभालने की तैयारी न तो कोल इंडिया के पास थी और न ही पॉवर प्लांट्स के पास थी। यह दूरंदेशिता की कमी का सवाल है। जब कोरोना-काल में भी कोयले की आपूर्ति 24 घंटे के अंतराल में हो जाती थी, तो निजी बिजली संयंत्रों ने भंडारण की क्षमता कम करके 7-10 दिन तक सीमित क्यों की? जबकि कोयला भंडारण 22-25 दिन का होना चाहिए। बहरहाल आयात रोक देने, कोयला खदानों में अति बारिश के कारण बाधाएं पैदा होने, अचानक आर्थिक गतिविधियां बढ़ने से बिजली संयंत्रों के 18 फीसदी अधिक कोयले की मांग करने के मद्देनजर कोल इंडिया पर ही बोझ आ गया, नतीजतन कंपनियां 'संकट-संकट' चिल्लाने लगीं। कुछ राज्य सरकारों ने भी समवेत स्वर मिलाया।
कोल इंडिया में ही कोयले का उत्पादन बीते दो सालों के दौरान करीब 107 लाख टन कम हुआ है। यह भी एक गंभीर कारक है। उसकी जवाबदेही किसकी है? राज्य सरकारों ने लंबे वक़्त से भुगतान लटका रखे हैं, तो इस तरह कारोबार कब तक चलेगा? बिजली हम सबके लिए बुनियादी और घोर अनिवार्य वस्तु एवं सेवा है। बिजली नहीं होगी, तो देश का जीवन ही ठप्प हो जाएगा। जो भी संकट महसूस किया जा रहा है, उसके लिए दो पक्ष ही जिम्मेदार हैं-सरकार और बिजली बनाने वाला निजी क्षेत्र, जो कोयला आयात करता है। अक्सर 14 सितंबर तक मॉनसून विदा हो जाता है। इस बार बारिश खूब हुई है और अक्तूबर के शुरुआती दिनों तक जारी रही है। आज भी कई खुली खदानों में पानी भरा है। कोयले तक पहुंचने का रास्ता अवरुद्ध है, लिहाजा स्टॉक होने के बावजूद कोयले की आपूर्ति नहीं हो पा रही है। कई प्रोजेक्टों में उत्पादन ही बंद है, क्योंकि खदानें ज़मीन के विवादों में फंसी हैं। नीतिगत निर्णय यह होना चाहिए कि बड़ी खदानों के पास उत्पादन के लिए ज़मीन कमोबेश पांच साल के लिए उपलब्ध रहनी चाहिए। कुछ राज्य सरकारों ने खनन के लिए अभी फैसला लिया है, लिहाजा कोयले का उत्पादन होने और बिजली संयंत्रों तक पहुंचने में वक़्त तो लगेगा। फिलहाल मौसम कुछ बदलने लगा है, लिहाजा बिजली की मांग में भी कमी आने लगी है। यदि घरेलू स्तर पर मांग कम होगी, तो खपत भी कम करनी पड़ेगी और कोयले का भंडारण ज्यादा दिनों तक रह सकेगा। एक वक्त ऐसा आएगा कि कई महीनों के कोयले का स्टॉक सरकार व कंपनियों के पास होगा।