यूजीसी की ओर से की जा रही उच्च शिक्षा को रोजगार से जोडऩे की कवायद

उच्च शिक्षा को रोजगार से जोडऩे की कवायद

Update: 2022-02-14 14:59 GMT
कैलाश बिश्नोई । विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों को रोजगारपरक बनाने के उद्देश्य के साथ राष्ट्रीय कौशल अर्हता फ्रेमवर्क में बदलाव से जुड़ा एक प्रारूप तैयार किया है। प्रस्तावित प्रारूप का उद्देश्य देश में व्यावसायिक शिक्षा और औपचारिक शिक्षा के बीच एकरूपता लाना एवं कौशल शिक्षा का व्यवस्थित ढांचा तैयार करना है। देश के सामने कौशल विकास की बड़ी चुनौती है। ऐसे में कौशल प्रशिक्षण एवं रोजगारपरक शिक्षा की दिशा में यूजीसी की इस पहल के प्रभाव दूरगामी साबित हो सकते हैं
राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 में कौशल शिक्षा पर खास ध्यान दिया गया है। इसी क्रम में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की ओर से उच्च शिक्षा से जुड़े सभी पाठ्यक्रमों को इस प्रकार से डिजाइन किया जा रहा है जिससे वह उच्च शिक्षा को कौशल तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण और इंडस्ट्री इंटरफेस के साथ एकीकृत कर सके। यूजीसी द्वारा राष्ट्रीय उच्च शिक्षा अर्हता ढांचा (एनएचईक्यूएफ) के मसौदे में युवाओं को कौशल प्रशिक्षण एवं रोजगारपरक शिक्षा देने के लिए उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों को कौशल व व्यावसायिक शिक्षा के साथ जोड़ दिया है। इनमें औपचारिक डिग्री के साथ-साथ कौशल का प्रशिक्षण भी मिलेगा। यह उसी पाठ्यक्रम या क्षेत्र से संबंधित होगा, जिसमें छात्र-छात्राएं पढ़ाई कर रहे हैं। खास बात है कि इनमें डिग्री, डिप्लोमा और सर्टिफिकेट जैसे सभी स्तर के पाठ्यक्रम शामिल होंगे और छात्रों को डिग्री के साथ-साथ संबंधित विषयों में तकनीकी रूप से दक्ष भी किया जाएगा। उम्मीद की जा रही है कि नए शैक्षणिक सत्र यानी वर्ष 2022-23 से ही इन मानकों के अनुरूप स्नातक से लेकर स्नातकोत्तर स्तर के सभी पाठ्यक्रमों की पढ़ाई शुरू कर दी जाएगी।
आखिर ऐसा करने की आवश्यकता क्यों महसूस की जा रही है। देश में चल रही औपचारिक शिक्षा और व्यावसायिक शिक्षा में एकरूपता नहीं है, न ही कौशल विकास का कोई व्यवस्थित ढांचा है। इसलिए अब यूजीसी द्वारा व्यवस्थित ढांचा तैयार करने और एकरूपता लाने के उद्देश्य से उच्च शिक्षा अर्हता ढांचा का प्रारूप तैयार किया है। इसका उद्देश्य शिक्षा के बाद रोजगार की समस्या को दूर करने के साथ-साथ उद्योगों को उनकी जरूरत के मुताबिक मानव संसाधन उपलब्ध करवाना भी है। जो युवा हुनरमंद और योग्य होंगे, उन्हें रोजगार मिलेगा और उद्योगों को उनकी जरूरतों के अनुसार कर्मचारी मिलेंगे। यह एक तरह से दोनों के मध्य सेतु का काम करेगा और दोनों के लिए लाभदायक होगा।
प्रख्यात उद्यमी रतन टाटा ने कुछ समय पहले कहा था कि इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके निकल रहे युवा उद्योग की जरूरतों के मुताबिक नहीं पाए जा रहे हैं। उद्योग जगत इस तरह की अक्सर शिकायत करता रहा है कि उसे जैसे युवा चाहिए, वैसे उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में युवा और कार्यशील आबादी की हिस्सेदारी लगातार बढ़ रही है। लगभग 35 प्रतिशत भारतीय 15 से 34 वर्ष के यानी सबसे अधिक उत्पादक उम्र के हैं। यह हमारे देश का एक सकारात्मक पहलू है। लेकिन व्यावसायिक शिक्षा में सुधार किए बगैर देश अपने जनसांख्यिकीय लाभांश का समुचित दोहन नहीं कर सकता है। अत: इस जनसंख्या का लाभांश प्राप्त करने के लिए हमें युवा पीढ़ी की उत्पादकता का ज्यादा से ज्यादा सदुपयोग करने के मार्ग तलाशने होंगे। दुनिया में सर्वाधिक कार्यशील आबादी का पूरा लाभ तभी संभव है जब हर हाथ हुनर और हर दिमाग कौशल युक्त हो।
युवा इनोवेटर : यूनाइटेड नेशंस पापुलेशन फंड्स (यूएनएफपीए) ने अपनी -1.8 अरब नौजवानों की ताकत- नामक रिपोर्ट जारी करते हुए कहा था कि युवा इनोवेटर, बिल्डर और लीडर होते हैं, लेकिन ऐसा वे तभी कर सकते हैं, जब उनके पास कौशल, अवसर, स्वास्थ्य व निर्णय लेने की क्षमता हो। अच्छी बात है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने इस चिंता को ध्यान में रखते हुए कौशल विकास के लिए उच्च शिक्षा अर्हता ढांचा (एनएचईक्यूएफ) का मसौदा तैयार किया है।
वैश्विक मांग : भारत जैसे युवा देश में कुशल मानव कार्यबल की अत्यधिक कमी है। नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएसओ) के मुताबिक देशभर में केवल 3.5 प्रतिशत युवा ही हुनरमंद हैं। जबकि चीन में 45 प्रतिशत, अमेरिका में 56 प्रतिशत, जर्मनी में 74 प्रतिशत, जापान में 80 प्रतिशत और दक्षिण कोरिया में 96 प्रतिशत लोग हुनरमंद हैं। वर्तमान में भारत में कौशल प्रशिक्षण के कई पाठ्यक्रम उद्योगों के अनुरूप नहीं हैं या फिर कौशल प्राप्त होने का केवल प्रमाणपत्र ही है, वास्तविक कौशल नहीं है। यही कारण है कि इन लोगों को जल्द नौकरी नहीं मिल पाती है। महामारी जनित कारणों से उद्योग के संचालन के स्वरूप में भी परिवर्तन आया है, जिससे जरूरी कौशल और कौशल पाठ्यक्रम के बीच की खाई और चौड़ी होने की आशंका है। ऐसे में कोरोना महामारी के बाद बड़ी चुनौती बदली परिस्थितियों में हमारे नौजवानों को औद्योगिक और सेवा क्षेत्रों की जरूरतों के हिसाब से ढालने की होगी।
जरूरतों से सामंजस्य : देशभर में फैले दस हजार से अधिक औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों (आइटीआइ) का नेटवर्क कौशल भारत अभियान की रीढ़ है। इनमें से 80 प्रतिशत से भी अधिक संस्थान निजी हैं। समस्या यह है कि इन प्रशिक्षण संस्थानों से निकलने वाले युवा अक्सर अर्थव्यवस्था की बदलती जरूरतों से सामंजस्य नहीं बिठा पा रहे हैं। सरकारी आइटीआइ संस्थानों के पास अच्छी-खासी इमारतें एवं भूमि हैं, लेकिन गुणवत्तापरक प्रयोगशालाओं एवं उपकरणों का स्तर औसत ही है।
आधुनिक टेक्नोलाजी और विशेषकर कृत्रिम बुद्धिमत्ता के बढ़ते चलन के कारण कामकाज की प्रकृति भी बदल रही है। इस वजह से परंपरागत नौकरियां तेजी से कम होती जा रही हैं। जाहिर है कि शिक्षा संस्थानों के साथ कौशल विकास संस्थानों को वैसे युवा तैयार करने पर गंभीरता से ध्यान देना होगा, जो तेजी से बदलते उद्योग जगत की आवश्यकता को पूरा कर सकें। आने वाले समय में कृत्रिम बुद्धिमत्ता का अधिक महत्व होगा और नौकरियों की प्रकृति में बड़ा बदलाव होगा, क्योंकि लोगों की जीवनशैली में भी व्यापक बदलाव आएगा। ऐसे में शैक्षिक पाठ्यक्रम को उन परिवर्तनों के अनुकूल बनाने के लिए डिजाइन किया जाना चाहिए, जिनकी जरूरत पडऩे वाली है और शिक्षकों का चयन और उनका प्रशिक्षण भी उसी के अनुसार होना चाहिए।
कामकाजी आबादी की मांग : दुनिया के ज्यादातर विकसित देशों में कामकाजी आबादी कम हो रही है। इस कारण से इन देशों में भारत के कौशल प्रशिक्षित युवाओं की मांग बढ़ रही है। ऐसे में जरूरी है कि भारत डिग्री के साथ टेक्नीकल स्किल्स एवं प्रोफेशनल स्किल्स से दक्ष प्रतिभाओं का निर्माण करने पर फोकस करे। गौरतलब है कि दुनिया के एक लब्ध प्रतिष्ठित मानव संसाधन परामर्श संगठन कार्न फेरी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जहां विश्व में वर्ष 2030 तक कुशल कामगारों का बड़ा संकट खड़ा होगा, वहीं हम कौशल विकास की दिशा में प्रभावी कदम उठाएं तो भारत के पास 24.5 करोड़ अतिरिक्त कुशल श्रमबल हो सकता है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि 2030 तक दुनिया के 19 विकसित और विकासशील देशों में 8.52 करोड़ कुशल श्रमशक्ति की कमी होगी। वहीं, भारत इकलौता देश होगा जिसके पास अतिरिक्त कुशल कामगार उपलब्ध हो सकेंगे। भारत ऐसे में विश्व के तमाम देशों में कुशल कामगारों को भेजकर इसका फायदा उठा सकता है। ऐसे में कौशल विकास की दिशा में मिशन की तरह काम करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को प्रतिभा का एक ऐसा साझा प्लेटफार्म बनाने की जरूरत है, जहां ऐसे स्किल कोर्स शुरू किए जाएं, जिनकी विदेश में जरूरत है। इस कमी को पूरा करने के लिए हमारे तकनीकी संस्थानों और विश्वविद्यालयों को विदेशी संस्थानों व वहां की नियोक्ता कंपनियों के साथ तालमेल बैठाना चाहिए।
इसमें कोई संदेह नहीं कि केंद्र सरकार कौशल विकास के उन्नयन पर निरंतर ध्यान दे रही है। भारत की शिक्षा व्यवस्था को डिग्रियों के जाल से निकालकर कौशल पर आधारित करने के लिए अटल इनोवेशन शुरू किया गया है। सरकार 40 करोड़ युवाओं को हुनरमंद बनाने के लिए स्किल इंडिया कार्यक्रम चला रही है। यहां महत्वपूर्ण सवाल यह है कि स्किल इंडिया कार्यक्रम को कैसे सफल बनाया जाए? देश में कौशल विकास के लिहाज से दो चीजें महत्वपूर्ण हैं। एक तो यह कि नियोक्ता की अपेक्षा के मुताबिक कौशल पर्याप्त हो और दूसरा कर्मचारियों (युवा और वृद्ध) को एक सम्मानित आजीविका कमाने लायक बनाना।
भारत को जर्मनी, जापान, चीन, सिंगापुर और ब्राजील के तकनीकी और व्यावसायिक प्रशिक्षण/ शिक्षा माडल से सीखने की भी जरूरत है, जिनके पास अतीत में इसी तरह की चुनौतियां थीं। साथ ही एक व्यापक माडल को अपनाने के लिए अपने स्वयं के अनुभवों से सीखने की आवश्यकता है।
यूजीसी के नए अध्यक्ष के समक्ष चुनौतियां % पूरे देश के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में गुणवत्ता युक्त शिक्षा देने के लिए प्रयासरत अपेक्स थिंक टैंक विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) का नया अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के कुलपति रहे जगदीश कुमार को नियुक्त किया गया है। पदभार संभालते ही अध्यक्ष ने छात्रों के हित में देशभर के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों को फिर से खोले जाने को लेकर जरूरी नोटिस जारी किया है। ऐसे में जाहिर सी बात है कि नए अध्यक्ष के समक्ष पहली चुनौती महामारी के कारण विश्वविद्यालयों में बंद पड़ी शिक्षण गतिविधियों को जरूरी प्रोटोकाल के साथ फिर से सुचारु रूप से शुरू करने की होगी। उच्च शिक्षण संस्थानों की परीक्षाएं जल्दी सम्पन्न हों और परीक्षा परिणाम व दाखिले भी हो जाएं व नया सत्र भी ज्यादा बाधित न हो।
दूसरी चुनौती नई शिक्षा नीति को लागू करने में आ रही अड़चनों को दूर करने की होगी। गौरतलब है कि नई शिक्षा नीति में स्नातक पाठ्यक्रम में मल्टीपल एंट्री एंड एक्जिट व्यवस्था को अपनाने की है। इसके तहत तीन या चार वर्ष के स्नातक कार्यक्रम में छात्र कई स्तरों पर पाठ्यक्रम को छोड़ सकेंगे और उन्हें उसी के अनुरूप डिग्री या प्रमाण-पत्र प्रदान किया जाएगा (एक वर्ष के बाद प्रमाण-पत्र, दो वर्षों के बाद एडवांस डिप्लोमा, तीन वर्र्षों के बाद स्नातक की डिग्री तथा चार वर्षों के बाद शोध के साथ स्नातक)। तीसरी चुनौती विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की रिक्तियों को जल्द से जल्द भरने की होगी। देश के 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में करीब 20 हजार शैक्षणिक व गैर-शैक्षणिक पद रिक्त पड़े हैं। इन पर नियुक्ति नहीं होने से शैक्षणिक के साथ-साथ एकेडमिक कार्य प्रभावित हो रहे हैं।
समय पर नियुक्ति नहीं होने से केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थिति भी खराब होती जा रही है। केंद्र सरकार के डाटा के अनुसार एक अप्रैल 2021 तक देशभर के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 18,911 शिक्षकों के पदों के विरुद्ध 12,775 शिक्षक ही कार्यरत हैं, यानी 6136 शैक्षणिक पद रिक्त पड़े हैं। पिछले कुछ वर्षों में यूजीसी का कार्य क्षेत्र बहुत बढ़ गया है। नए अध्यक्ष के समक्ष एक चुनौती उच्च शिक्षण संस्थानों में अनुसंधान और नवाचार पारिस्थितिकी तंत्र को सक्षम करने और उच्च शिक्षा को प्रौद्योगिकी का उपयोग करके अधिक समावेशी और सुलभ बनाने की भी होगी।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शोध अध्येता हैं )
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