शिक्षा और संस्कृति
किसी विवादित कृत्य, नियम या परंपरा के तर्कों की बेहतर जांच एक निष्पक्ष तुला पर की जा सकती है। अगर किसी नियम या परंपरा से मिलने वाले लाभ का पलड़ा नुकसान से भारी है
Written by जनसत्ताज़: किसी विवादित कृत्य, नियम या परंपरा के तर्कों की बेहतर जांच एक निष्पक्ष तुला पर की जा सकती है। अगर किसी नियम या परंपरा से मिलने वाले लाभ का पलड़ा नुकसान से भारी है तो कुछ सुधार के साथ वह नियम या परंपरा ठीक ही है। अगर नुकसान ज्यादा है तो बिना किंतु-परंतु उसके विरुद्ध निर्णय अपेक्षित है। पिछले कई महीनों से हिजाब विवाद का विषय बना हुआ है, जिस पर कर्नाटक हाई कोर्ट के निर्णय, जिसमें शिक्षण संस्थाओं में हिजाब पहनकर जाने पर रोक लगा दी है, के विरुद्ध अब मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। अब निर्णय जो भी आए।
उल्लेखनीय है कि यह मामला सिर्फ हिजाब का नहीं है। साथ ही इसके मूल में शिक्षा भी है। वह भी महिला शिक्षा और उसमें भी मुसलिम महिला, जिनकी शिक्षा में दयनीय स्थिति हैं। इसलिए यह मुद्दा बेहद संवेदनशील हो जाता है। अगर निर्णय में संतुलन नहीं साधा गया तो यह संबंधित महिलाओं की शिक्षा से दूरी को और बढ़ा सकता है।
विवाद में मुख्य तौर पर तीन प्रश्न उठते हैं, जिनका समेकित जवाब बेहतर समाधान सुझा सकता है। पहला, कोई छात्रा अगर हिजाब पहनकर स्कूल जाती है तो अनुशासन कैसे भंग हो जाता है? दूसरा, क्या हिजाब शिक्षा से ऊपर है? जब स्कूल की निर्धारित परिधान है तो उसे पहनकर जाने में क्या समस्या? हिजाब सिर्फ स्कूल में ही तो प्रतिबंधित किया गया है, बाकी जगह तो पहनने में कोई आपत्ति नहीं। तीसरा, क्या अब हमारी संस्कृति के सभी पक्ष कानूनों से तय होंगे कि क्या पहना जाए, कहां पहना जाए, कहां न पहना जाए? ध्यान रहे, इस तरह के विषयों पर कानून जीवन की सहजता को सीमित कर देते हैं। वह भी एक ऐसे युग में जहां स्वतंत्रता एवं निजता जैसे मूल्य केंद्र में हैं।
कुछ विषय विशेष प्रकृति के होते हैं, जिस पर बहस आखिर घाटे का सौदा होती है। हिजाब के मामले पर निर्णय में महिलाओं के हिजाब पर प्रतिबंध लगता है तो संभावना है कि जो छात्राएं हिजाब के अंदर घर से बाहर शिक्षा लेने निकली ही थीं, फिर से अंदर कर दी जाएंगी। अगर हिजाब की अनुमति मिलती भी है तो ऐसा वातावरण निर्मित होगा जो मनोवैज्ञानिक दबाव डालेगा तथा शिक्षण संस्थानों में अनुशासनहीनता का खतरा बढ़ेगा। इसका प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष तौर पर प्रभाव शिक्षा पर ही पड़ेगा।
सच तो यह है कि हिजाब की जितनी चर्चा विवादों में है, उतना हिजाब पहनना प्रचलन में नहीं है। जो छात्राएं हिजाब में घर से बाहर में निकली थीं, वे आज स्वजागरूक होकर विकास की प्रतिस्पर्धा में हिजाब को पीछे छोड़ती जा रहीं है। सर्वविदित है कि सामाजिक सुधार की गति धीमी होती है। अगर विवाद का समाधान संबंधित वर्ग की स्वेच्छा से हो तो बेहतर होगा। अगर शिक्षण संस्थानों की प्राथमिकता शिक्षित करना है और वेशभूषा द्वितीयक है, तो उसे द्वितीयक रहने दिया जाए। संबंधित समुदाय, शिक्षण संस्थान तथा राज्य तीनों शिक्षा के महत्त्व को समझें और वाद-विवाद- संवाद शिक्षा की बेहतरी के लिए हों।