संपादकीय: बेपानी व्यवस्था

संपादकीय की खबर

Update: 2021-09-10 15:59 GMT

इससे ज्यादा अफसोस की बात और क्या हो सकती है कि देश के आम लोगों को जीने की सबसे बुनियादी जरूरत के रूप में पीने के पानी तक से लाचार होना पड़े। दूरदराज के ग्रामीण इलाकों की तो दूर, विकास के दावों और नारों के बीच चकमते शहरों-महानगरों में भी हालत यह है कि बहुत सारे लोगों को स्वच्छ पेयजल हासिल करने के लिए काफी जद्दोजहद से गुजरना पड़ता है। हालांकि इस मसले पर राजनीतिक दलों की ओर से अमूमन हर चुनावी मौके पर तमाम तरह के वादे किए जाते हैं, सरकारें अपने कार्यक्षेत्र के कोने-कोने में स्वच्छ पेयजल पहुंचाने के दावे करती रहती हैं।

मगर हकीकत यह है कि आज भी लोगों को यह मौलिक अधिकार तक आसानी से हासिल नहीं है और साफ पानी की मुश्किल का सिलसिला लगातार कायम है। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि मुंबई के पास ठाणे जिले में भिवंडी कस्बे के कांबे गांव के लोगों को महीने में केवल दो बार ही पानी मिल रहा है। जब देश के एक अपेक्षया विकसित माने जाने वाले राज्य में यह दशा है तो सवाल है कि आखिर वहां विकास के किस पैमाने को अपनाया गया है!
यह बेवजह नहीं है कि बॉम्बे हाई कोर्ट ने इस मसले पर सुनवाई के दौरान यह सख्त टिप्पणी की कि नियमित पेयजल की उपलब्धता एक मौलिक अधिकार है, लेकिन दुर्भाग्य है कि लोगों को आजादी के पचहत्तर साल बाद भी इसके लिए अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ रहा है। आम लोगों को पीने का साफ पानी मुहैया कराना सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी है, लेकिन आखिर क्या वजह है कि चौतरफा विकास के दावों के बीच आज भी किसी इलाके में महीने में सिर्फ दो बार पानी उपलब्ध हो पा रहा है। यह समझना मुश्किल नहीं है कि इस स्थिति में लोग कैसे पानी को जमा करके किसी तरह पेयजल की अपनी जरूरत में कटौती करके काम चलाते होंगे।
क्या सरकार या संबंधित महकमे को इस बात का अहसास नहीं है कि पीने के पानी के अभाव में जिंदगी कैसी हो जा सकती है? सरकार की ओर से संबंधित इलाके में पानी पहुंचाने की जो व्यवस्था की गई है, अगर वहां किसी वजह से गड़बड़ी हो रही है या कोई कमी है, तो उसका समाधान करना किसकी जिम्मेदारी है? अगर अदालत में न्यायाधीशों ने कहा, हमें यह कहने पर मजबूर मत कीजिए कि महाराष्ट्र सरकार नागरिकों को पानी मुहैया कराने में विफल हो गई है तो सरकार के लिए इससे ज्यादा शर्मनाक और क्या हो सकता है!
संबंधित महकमे की ओर से एक दलील यह पेश की गई कि गांव में आबादी बढ़ने के चलते बीते कुछ वर्षों में पानी की मांग बढ़ गई है, लिहाजा व्यवस्था को उन्नत करने की जरूरत है। सवाल है कि यह दलील कब तक सरकार के बचाव के लिए ढाल के रूप में इस्तेमाल की जाती रहेगी! यह कोई भी देख सकता है कि एक तरफ किसी इलाके में लोग पीने के पानी के लिए तरस रहे होते हैं, वहीं निजी स्तर पर पानी का कारोबार फलता-फूलता रहता है। आज दशा यह है कि शहरों-महानगरों में बड़ी तादाद में लोगों को पीने के पानी के लिए निजी स्तर पर बोतलबंद पानी के कारोबारियों पर निर्भर होना पड़ रहा है। क्या यह सरकारी दावों के सामने एक आईना नहीं है? इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट तक ने काफी पहले यह साफ कर दिया था कि स्वच्छ पेयजल प्राप्त करना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन का मौलिक अधिकार है और इसे मुहैया कराना सरकार का दायित्व है। लेकिन संसाधनों की कमी की दुहाई देकर सरकारें अपनी इच्छाशक्ति पर पर्दा डालती रही हैं।
क्रेडिट बाय जनसत्ता 
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