आर्थिक विषमता: कैसे खत्म होगी असमानता
आजादी के 75 वर्ष बाद भी हमारे देश में अमीर और गरीब के बीच आर्थिक असमानता की खाई लगातार बढ़ती जा रही है
आजादी के 75 वर्ष बाद भी हमारे देश में अमीर और गरीब के बीच आर्थिक असमानता की खाई लगातार बढ़ती जा रही है। भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास में आर्थिक विषमता एक बहुत बड़ी बाधा है। कोरोना महामारी से प्रभावित पिछले वर्ष के आर्थिक आंकड़े इस चिंता को और बढ़ा रहे हैं। वर्ष 2020-21 में एक तरफ जहां भारत में करीब 7.5 करोड़ गरीबों की संख्या बढ़ी है, वहीं दूसरी तरफ अरबपतियों की संख्या में 37 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। यह आंकड़ा भयभीत करता है।
इसका कारण संभवतः यह है कि समग्र समाज का आर्थिक विकास आर्थिक एजेंडे की प्राथमिकता में नहीं होता है। अन्यथा अब तक गरीबी का उन्मूलन हो जाना चाहिए था। लेकिन वास्तविकता यह है कि समाज के मात्र चंद व्यक्तियों के पास आर्थिक संपदा का संग्रहण होता जा रहा है। भारत का अपनी जनसंख्या से ज्यादा वैश्विक गरीबी में अंशदान है। यह विश्व की करीब 17 प्रतिशत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है, पर विश्व की कुल गरीबी में भारत का अंशदान 20 प्रतिशत है। आर्थिक असमानता को खत्म करने के लिए अब आम आदमी को भी पहल करनी होगी। सरकारों व उनकी आर्थिक नीतियों पर निर्भरता घटानी होगी।
आम लोगों को अपने आर्थिक स्तर को लगातार बढ़ाना होगा। सामान्यतः पाया जाता है कि आम भारतीय अपने व्यक्तिगत आर्थिक विकास के लिए मात्र रोजगार को ही प्राथमिकता देना चाहता है। इस सपने के लिए वह अपनी तमाम योग्यताओं को बढ़ाने का प्रयास करता है। लेकिन विशाल जनसंख्या का हिस्सा होने के कारण जब वह अपने इस सपने को साकार नहीं कर पाता, तो समझौता करके उपलब्ध रोजगार के माध्यम से ही जीवन चलाने लगता है। फिर अपनी योग्यताओं को बढ़ाना उसका लक्ष्य नहीं रहता। उसके आर्थिक विकास में भी गतिशीलता कम होने लग जाती है, जिसका परिणाम आर्थिक विषमता ही है। इसके विपरीत आम व्यक्ति को चाहिए कि वह अपनी योग्यताओं को लगातार बढ़ाए, जिससे उसकी आर्थिक क्षमता भी बढ़े।
हम अपने आसपास देखते हैं कि प्रत्येक परिवार में आर्थिक रूप से आश्रितों की संख्या आय कमाने वालों से अधिक होती है। अभी देश में करीब 65 करोड़ लोग ही किसी तरह के रोजगार या व्यवसाय में संलग्न हैं, जबकि बाकी उन पर आश्रित हैं, जिनमें घरेलू महिलाएं, बच्चे व वृद्ध व्यक्ति शामिल हैं। यह आंकड़ा भारतीय समाज में आर्थिक विषमता की कड़वी सच्चाई को स्पष्ट करता है। आज देश की महिलाओं को आगे बढ़कर अपने परिवार की आर्थिक जीवनचर्या में भागीदार बनना होगा, जो उनके व्यक्तिगत आर्थिक स्तर को तो बढ़ाएगा ही, आर्थिक विषमता में कमी भी लाएगा। महिलाओं के आर्थिक स्वालंबन को आर्थिक एजेंडे में प्राथमिकता के रूप में रखा जाना चाहिए।
हम भारतीयों को अपनी इस सोच में भी परिवर्तन लाना होगा कि लगातार बढ़ती उपभोग क्षमता ही आर्थिक विकास का एक मुख्य सूचक है। यह सोच समाज में आर्थिक विषमता को जन्म दे रही है, क्योंकि इससे जहां एक तरफ लोगों की आर्थिक तरलता में कमी होती है, वहीं दूसरी तरफ इसका मुनाफा मात्र कुछ हाथों में ही एकत्रित हो रहा है। आम आदमी आर्थिक निवेश को प्राथमिकता दे, ताकि उसका जीवन आर्थिक रूप से सुरक्षित हो सके।
भारतीय अर्थव्यवस्था में महंगाई तथा जटिल कर प्रणाली ने आम व्यक्ति पर एक ऐसा जाल बिछाया है, जिससे वह तमाम प्रयासों के बावजूद बाहर नहीं आ पाता है। इस कारण वह अपने बच्चों को श्रेष्ठ शैक्षणिक सुविधा नहीं दे पाता, जो बेहतर आर्थिक रोजगार दिलाने की गारंटी रखता है। आईआईटी हो या आईआईएम, अथवा नामी-गिरामी शिक्षण संस्थान-इनकी पढ़ाई इतनी महंगी है कि आम लोगों की पहुंच से बाहर है। आर्थिक विषमता अर्थव्यवस्था में अवरोधक है, तो आम लोगों के लिए मानसिक प्रताड़ना भी है। सरकारों की आर्थिक नीतियों में निश्चित रूप से औद्योगिकीकरण को प्राथमिकता रहेगी, क्योंकि यह अर्थव्यवस्था की जरूरत है, परंतु आम आदमी को भी अपनी तरफ से पहल करनी होगी।
अमर उजाला