पृथ्वी का बढ़ता तापमान और राजनीति: मतभेद भुलाकर काम करना होगा दुनिया को
दुनियाभर के देशों के नागरिक जब ईंधन की खपत ज्यादा करेंगे तो पृथ्वी का तापमान बढ़ेगा ही
बेमौसम बरसात, तापमान का तेज हो जाना तो कभी कड़कड़ाने वाली ठंड देश के नागरिकों को प्रतिवर्ष झेलनी पड़ती है। सीधे कहें तो किसी भी नागरिक की निजी जिंदगी के हिस्से में पर्यावरण अहम किरदार निभाता है।
दुनियाभर के देशों के नागरिक जब ईंधन की खपत ज्यादा करेंगे तो पृथ्वी का तापमान बढ़ेगा ही। पृथ्वी का तापमान बढ़ेगा तो उससे क्लाइमेट चेंज का खतरा बढ़ना स्वाभाविक है। पर्यावरण पर हमारी समझ लगातार कम होती जा रही है। या हम तब समझना शुरू करते हैं जब मुसीबत पास खड़ी हो जाती है।
मीडिया की रिपोर्ट्स में भी पर्यावरण से जुड़े मुद्दे औसत से कम ही पढ़ने और देखने को मिलते हैं। ऐसे में नागरिकों को जागरूकता की कमी महसूस होती है। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि स्कूल कॉलेज में पर्यावरण अनिवार्य विषय के रूप में होते हुए भी हम पर्यावरण पर इतने नकारात्मक रवैये के साथ जीवन क्यों कर रहे हैं?
पर्यावरण के लिए कौन उतरा है जमीन पर?
हीरे की चाहत में बक्सवाहा के जंगलों को खत्म करने का विरोध कितने नागरिकों ने किया होगा? यह सवाल स्वयं से पूछना चाहिए। नर्मदा बचाओ अभियान की जमीनी हकीकत को उदाहरण स्वरूप ले तो पता चलता है कि प्राइवेट कंपनियां अपने निजी फायदे के लिए बड़े वादे तो कर देती हैं लेकिन उन्हें पूरा करने में सदियां बीत जाती हैं।
पर्यावरण बचाओ की जरूरत इस सदी में सबसे ज्यादा महसूस की जा रही है। पृथ्वी का तापमान बढ़ने के कई कारण हैं जिनमें से एक है कोयले की खपत का ज्यादा होना।
1992 में पृथ्वी के इसी बढ़ते तापमान को लेकर यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज यानी UNFCCC ने जिस मुहिम की शुरुआत की उसके निष्कर्ष अभी दूर की कौड़ी मालूम देते हैं।
दुनिया के 197 देशों के सहयोग से UNFCCC पृथ्वी के तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखने के उद्देश्य को पूरा करने की कोशिश में हर साल 1995 से लेकर अब तक बैठक करता आ रहा है। लेकिन उसके नतीजे क्या निकले ये दुनिया से छिपा नहींं है।
1995 में जर्मनी से संगठन द्वारा शुरू हुए सम्मेलन की 26 वीं बैठक स्कॉटलैंड में हाल ही में हुई थी। जिसे सीओपी26 के नाम से जाना गया। इस बैठक की थीम मेक अ प्लान फॉर अवर फ्यूचर नेट जीरो 2050 था। यानी जितना कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन कोई देश करेगा उतना ही उसे सोख लेने पर जोर देगा। नेट जीरो कर देगा।
दुनिया के उन देशों जिनमें अमेरिका 27 प्रतिशत, चीन 14 प्रतिशत, और भारत 7 प्रतिशत कार्बन का उत्सर्जन करते हैं।
दुनियाभर की निगाहें इस सम्मेलन पर रही थी। लेकिन दुनिया के तीन देश COP 26 का हिस्सा नहीं रहे। चीन, रूस और तुर्की। चीन और रूस 2060 तक अपने देश को नेट जीरो करने की बात कह रहे हैं। वहीं भारत इस लक्ष्य को 2070 तक पूरा करने की बात कह रहा है। ऐसे में दूसरा पहलू यह भी है कि दुनियाभर में कार्बन सिंक का विस्तार कितना हो रहा है?
जो सवाल इन शिखर सम्मेलनों में उठाए जाते हैं उनके क्रियान्वयन पर कितना जोर होता है? कौन सा देश पृथ्वी के तापमान को लेकर कितना चिंतित है? ये सवाल मीडिया के मुख्य पृष्ठ पर जब तक नहीं आएंगे हल निकालना मुश्किल है?
कार्बन सिंक ऐसे स्थान को कहा जाता है, जो कार्बन डाइऑक्साइड को सबसे ज्यादा सोखते हैं। कार्बन के उत्सर्जन को कम करना मुश्किल तो है लेकिन 1991 के बाद से जिस तरह दुनियाभर ने तकनीकी विकास के क्रम में इंडस्ट्री खोली है उसका असर दुनियाभर के समुद्रों में भी पड़ा है। माना जाता है कि ये समुद्र लगभग 30 सालों से कार्बन को सोखते रहे हैं। लेकिन अब ये भी जवाब दे चुके हैं।
वहीं दूसरी तरफ कार्बन के नेट जीरो करने के क्रम में जंगलों की भूमिका को नजरअंदाज नहींं किया जा सकता। लेकिन दुनिया भर के जंगलों को जिस तरह नष्ट किया जा रहा है उससे इस लक्ष्य को इनके सहारे भी पूरा करना मुश्किल है।
ब्राजील के जंगल और दुनिया
पृथ्वी का फेफड़ा कहे जाने वाले ब्राजील के जंगलों को ही उदाहरण स्वरूप देखे तो पाएंगे कि दुनिया का 20 प्रतिशत ऑक्सीजन यहीं से आता है। इसे कार्बन सिंक में सर्वश्रेष्ठ स्थान में रखा जाता है। वहीं दूसरी तरफ सूरीनाम जैसा देश अब कार्बन सिंक के साथ-साथ कार्बन नेट जीरो के लक्ष्य को पूरा कर चुका है।
भूटान इस दिशा में दुनिया का सर्वोत्तम देश माना जा सकता है। कार्बन निगेटिव होने के साथ-साथ पड़ोसी देश चीन नेपाल और भारत का भी कार्बन सोखने की दिशा में काम करता हुआ दिखता है।
दुनिया के उन देशों जिनमें अमेरिका 27 प्रतिशत, चीन 14 प्रतिशत, और भारत 7 प्रतिशत कार्बन का उत्सर्जन करते हैं, उन्हें इस मॉडल से सीख लेनी चाहिए। कम से कम इन देशों को भूटान की तरक्की में मानवीय आधार पर तो मदद कर ही देनी चाहिए। लेकिन चीन भूटान को किस कदर निगलना चाहता है ये किसी से छिपा नहीं है। भारत चाह कर भी भूटान को हल्के में नहीं ले सकता क्योंकि चीन की चाल उसे परेशान कर सकती है।
विकसित देशों ने अपने विकास के लिए जितना चाहा उतना इंडस्ट्री में बिना नियम कायदों से काम किया। अब जब दुनिया भर में क्लाइमेट चेंज का खतरा बढ़ने लगा तो विकासशील देशों पर नियम कायदे का बोझ डालते हुए उनकी प्रगति में रोड़ा बनने लगे हैं।
दुनियाभर में जिस तरह से कार्बन के नेट जीरो की बात करते हुए राजनीति चल रही है उससे पृथ्वी का तापमान कम होने के बजाए बढ़ेगा।
क्या है आखिर भारत की स्थिति?
भारत पर भी यही दबाव साफ तौर पर देखने को मिल रहा है। सोलर प्लेट से बनने वाली बिजली की टेक्नोलॉजी दुनिया के विकसित देशों के पास है। ऐसे में इस विधि को बेच कर वो देश और अमीर होंगे या फिर इस विधि से दुनिया के अन्य देशों को सहयोग देकर पृथ्वी के तापमान को काम करने में योगदान देंगे?
कोयले का विकल्प यूरेनियम है। और भारत के पास पर्याप्त यूरेनियम भी नहीं है जिससे वो परमाणु ऊर्जा को बना कर कार्बन के उत्सर्जन को कम करे। विश्व में यूरेनियम की खरीद का हक उन्हें है जो जो NSG यानि न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप में शामिल होगा। 1974 में बने इस NSG में अब तक 48 देश शामिल हैं।
भारत को इसमें अभी तक एंट्री नहीं मिल पाई है। भारत नेट जीरो के लक्ष्य को पूरा करने के लिए NSG में शामिल होने की बात करता आ रहा है, लेकिन चीन की शातिर चाल बार बार उसे रोकती है।
चीन यह कहकर भारत को NSG में शामिल होने से रोक रहा है कि पहले NPT में साइन करें। NPT यानि न्यूक्लियर नॉन प्रॉलिफरेशन ट्रीटी। ऐसे देश को ना परमाणु बम रखेंगे ना उसका इस्तेमाल करेंगे।
1968 में बने इस संगठन में भारत ने अब तक साइन नहीं किए हैं, यहां भी दुनिया के उन विकसित देशों की अपनी चल होगी जो सिर्फ परमाणु हथियार खुद रखते हुए दूसरों पर राज करना चाहते हैं। अमेरिका, फ्रांस, चीन ब्रिटेन और रूस जैसे देश हाई परमाणु हथियार रख सकते हैं।
यह नियम बना सकते हैं यही दुनिया को चला सकते हैं। NSG में शामिल 48 देशों में से अगर किसी भी देश को कोई आपत्ति होती है तो नया देश उसमें शामिल नहीं हो सकता।
भारत जैसे तेजी से विकास कर रहे देश के लिए तो यह और भी मुश्किलों भरा अड़ंगा है। यही हाल भविष्य के ईंधन हाइड्रोजन, आशा की धातु कही जाने वाली यूरेनियम और भविष्य की धातु टाइटेनियम पर भी रहा तो भारत कैसे बढ़ेगा प्रगति के पथ पर? ऐसे में कैसे बनेगी दुनिया कार्बन नेट जीरो।
दुनियाभर में जिस तरह से कार्बन के नेट जीरो की बात करते हुए राजनीति चल रही है उससे पृथ्वी का तापमान कम होने के बजाए बढ़ेगा। ऐसे में आनन फानन में कुछ ऐसे कदम उठाने पड़ेंगे जैसे अभी वैश्विक महामारी कोरोना की आफत में उठाने पड़ रहे हैं। भारत को तो अपनी जिम्मेदारी का एहसास स्वयं करना शुरू कर देना चाहिए।
देश के समुद्र की हालत अब वैसी नहीं रही जिससे कार्बन नेट जीरो का लक्ष्य पूरा किया जा सके। दूसरी तरफ भारत में पर्यावरण और वन सम्बन्धी कानूनों को जिस तरह कमजोर करते हुए हीरे की चाहत में प्राइवेट कंपनियों को अनैतिक छूट दी जा रही है, यह भविष्य में खतरनाक सिद्ध होगा।
भारत को अपने जल जंगल और जमीन पर खास ध्यान देने की जरूरत है। एक ऐसा समाज जो सिर्फ पर्यावरण पर आश्रित रहा है उसके साथ जैसा भेदभाव हो रहा है उससे भारत का 2070 तक कार्बन नेट जीरो करने का सपना तो कभी पूरा नहीं होने वाला। समय रहते सचेत होने की जरूरत है।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।