मुख्यमंत्री वैसे चिंता करते नहीं थे, लेकिन धूल से सनी कुर्सी पर आराम से बैठ भी नहीं पा रहे थे। उन्हें भरोसा था कि सत्ता अपनी सत्ता की कुर्सी पर बैठ रही धूल को किसी न किसी तरह छुपा लेगी, लिहाजा खुफिया विभाग को अपनी गोपनीयता के साथ काम पर लगा दिया गया। राज्य के पुलिस प्रमुख ने भी कानून-व्यवस्था की चिंता छोड़कर सत्ता की धूल की निगरानी शुरू कर दी। वह मुख्यमंत्री के ही थे, इसलिए धूल को चख कर भी पता लगाने लगे कि इसके भौतिक गुण क्यों सत्ता के पीछे पड़ गए। पुलिस प्रमुख को बदनाम धूल का स्वाद अच्छा लगने लगा और वह पहरेदारी के बीच इसे चखने लगे। उधर उनके अधीन खुफिया जांच ने यह पहले से ही तय कर रखा था कि यह सब विपक्ष का ही किया धरा है और इसे ही स्पष्टता से सामने रखना है। फिर भी कुछ तथ्य ऐसे आ रहे थे कि चुपके से मुख्यमंत्री के कच्चे कानों को बताना लाजिमी था। मुख्यमंत्री को बताया गया, 'सर आपके नेतृत्व में चल रहे विकास कार्य इसके लिए दोषी हैं। तमाम फोरलेन व नेशनल हाईवे परियोजनाओं के जितने भी शिलान्यास किए हैं, धूल वहीं से आ रही है।' मुख्यमंत्री को हैरानी हुई कि शिलान्यास ही सत्ता की धूल पैदा कर सकते हैं, तो फिर जब काम शुरू होगा तो कैसे खुद को बचाएंगे। खुफिया तंत्र को अब शक यह भी था कि हो न हो यह धूल किसान के उजड़े खेत से आ रही है, लेकिन उसके पास तर्क इतने ज्यादा हो गए कि पूरी जांच को लगने लगा कि पूर्व सरकार के कार्यों, नीतियों और उसके द्वारा पाले गए अधिकारियों के कारण ही यह धूल सत्ता के गलियारों में रह गई है। इस तर्क पर सत्तारूढ़ दल सहमत नहीं हुआ क्योंकि विपक्ष के कारनामों को तो सरकारी तौर पर इतना धोया गया है कि अब उसका एहसास भी एक गुनाह है।
वैसे भी नेता प्रतिपक्ष अपनी पार्टी के बजाय वर्तमान मुख्यमंत्री के ही खास हैं और उनके कारण ही सत्ता में आए थे, तो यह नामुमकिन सी बात है कि सत्ता की कुर्सी पर विपक्षी धूल कुछ हैसियत जमा पाती। काफी माथापच्ची के बाद खुफिया जांच को यह लगने लगा कि धूल दरअसल आम नागरिक के पांव से निकल कर पहुंच रही है। यह बेरोजगारों की हो सकती है या सत्ता के पाले में नहीं आ रहे पत्रकारों की हो सकती है। यह धूल व्हाट्सऐप के संदेशों से ही फैली है। जांच का दायरा बड़ा होता गया, लेकिन धूल है कि सत्ता की कुर्सी से हटती नहीं। यह जांच अब सत्ता की परंपरा में इतनी निपुण हो गई कि यह दस्तावेज भी सामने आने लगा कि आजादी हासिल करने से ही धूल पैदा हुई। अंततः सत्ता ने मान लिया कि इस धूल की भूल के लिए वह दोषी नहीं, बल्कि जिन्होंने आजादी दिलाई या जो फांसी पर चढ़ गए, उनकी प्रशंसा में रचा गया इतिहास ही दोषी है। अंततः आजादी में खोट पाते हुए यह तय किया गया कि एक-एक करके आजादी के ऐतिहासिक पन्नों को नष्ट करके फिर से साफ-सुथरा इतिहास लिखा जाए। ऐसा होने लगा, लेकिन महात्मा गांधी को हाशिए से बाहर करना कठिन होता गया। राष्ट्रपिता से धोती छीन कर सत्ता की कुर्सी को साफ किया जा रहा है और सामने लगभग नंगे कर दिए गए बापू फिर से कह रहे हैं, 'हे राम! हे राम!'
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक