दशहरा: साहस और संकल्प का महापर्व

विजयादशमी को महापर्व का स्वरूप देने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के सच्चे भक्त हैं। इस विजय पर्व पर यदि हम दुष्प्रवृत्तियों के रावण को सदैव के लिए जला सकें, तभी समझना चाहिए कि हमने सही ढंग से दशहरा मनाया।

Update: 2021-10-15 01:43 GMT

आज दशहरा का पावन दिन। अन्याय पर न्याय की जीत, असत्य पर सत्य की विजय और अनाचार पर सदाचार की जीत के साथ उत्साह और उमंग का पर्व। आज जब हम अट्टहास करते हुए खड़े रावण, कुंभकर्ण और मेघनाद का पुतला फूंकते हैं, तो मन में एक संकल्प जन्म लेता है, ऐसा संकल्प जो अनाचार, अन्याय के विरुद्ध लड़ सके। लेकिन जैसे ही रावण, कुंभकर्ण, मेघनाद का पुतला कुछ ही समय में जलकर बुझ जाता है, वैसे ही हमारे मन में उभरे संकल्प श्मशान वैराग्य की तरह कुछ समय में टूट जाते हैं। और हम अपने पुराने ढर्रे पर चलने लगते हैं।

यदि ऐसा न होता, तो समाज से रावण, कुंभकर्ण, मेघनाद जैसी राक्षसी प्रवृति, अन्याय, अनाचार, भ्रष्टाचार जैसी प्रवृति कम होती दिखाई देती। आज ये सब कुरीतियां अपना पैर पसारते हुए घर-घर तक पहुंच चुकी हैं। दशहरे की सच्चाई क्या केवल इन रस्मों के पूरी होने तक है? या इस महापर्व के साथ कुछ विजय संकल्प भी जुड़े हैं? ये सवाल वैसे ही जलते-सुलगते रह जाएंगे। शायद ही किसी का मन इनका जवाब पाने के लिए विकल-बेचैन हो। अन्यथा ज्यादातर जनों की जिंदगी दशहरा की रस्में जैसे-तैसे पूरी करके फिर से अपने उसी पुराने ढर्रे पर लुढ़कने लगेगी।
यही हमारे सामाजिक जीवन की विडंबनाग्रस्त सच्चाई है। सभी अपनी आपाधापी में परेशान हैं। सबको अपने-अपने स्वार्थ और अपने अहं की कारा घेरे है। ऐसे में सांस्कृतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय महत्व के बिंदुओं पर सोचने का जोखिम कौन उठाए? यह हमारा राष्ट्रीय और सांस्कृतिक प्रमाद नहीं, तो और क्या है कि हममें से प्रायः सभी अपने पूर्वज ऋषियों-मनीषियों द्वारा बताए गए पर्वों की प्रेरणाओं को पूरी तरह भुला बैठे हैं। पर्वों में समाई सांस्कृतिक संवेदना हमारी जड़ता के कुटिल व्यूह में फंसकर मुरझा गई है। सत्य को समझने और अपनाने का साहस और संकल्प शायद हम सभी में चुकता जा रहा है।
जबकि विजयादशमी इसी साहस और संकल्प का महापर्व है। जीवन की इन दो महत्वपूर्ण शक्तियों को जाग्रत करने और उन्हें सही दिशा में नियोजित करने की महान प्रेरणाएं इसमें समाई हैं। इस पर्व के साथ जितनी भी पुराण कथाएं अथवा लोक परंपराएं जुड़ी हुई हैं, सबका सार यही है। इस पर्व से जुड़ी सबसे पुरातन कथा मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की है। अलग-अलग महाकवियों ने अपने-अपने ढंग से प्रभु श्रीराम के विजय संकल्प को शब्दांकित किया है। कहा जाता है कि वह तिथि भी विजयादशमी थी, जब लोकनायक श्रीराम ने महर्षियों के आश्रम में निसिचर हीन करौं महि का वज्र संकल्प लिया था। और इसके कुछ वर्षों बाद घटनाक्रम में आए अनेक मोड़ों के बाद वह तिथि भी विजयादशमी ही थी, जब समर्थ प्रभु ने अपने संकल्प को सार्थकता देते हुए रावण का वध किया था।
कुछ लोककथाओं एवं लोक काव्यों में दिए गए विवरण को यदि हम प्रेरणादायी मानें, तो भगवती महिषमर्दिनी ने इसी तिथि में महिषासुर के आसुरी दर्प का दलन किया था। एक अन्य लोक कवि के अनुसार, मां जगदंबा ने अपनी विभिन्न शक्तियों के साथ शारदीय नवरात्रि के नौ दिनों तक शुंभ-निशुंभ की आसुरी सेना के साथ युद्ध किया। और अंत में नवें-दसवें दिन क्रमशः निशुंभ और शुंभ का वध करके देवशक्तियों का त्राण किया। विजयादशमी माता आदिशक्ति की उसी विजय गाथा की प्रतीक है। जिन्हें केवल ग्रंथों की छानबीन एवं ऐतिहासिक आंकड़ों के आकलन का खेल पसंद है, उन्हें हो सकता है कि लोक काव्यों के ये प्रसंग इतिहास-सत्य न लगें। पर जिन्हें जीवन के भाव-सत्य से प्यार है, वे इन प्रसंगों से प्रेरणा लेकर अपनी भक्ति एवं शक्ति की अभिवृद्धि की बात जरूर सोचेंगे।
शक्ति के उपासक क्षत्रियों में पुरातन काल में इस पर्व को धूमधाम से मनाने का प्रचलन था। देश का मध्ययुगीन इतिहास भी इसके छिटपुट प्रमाण देता है। महान प्रतापी राणा प्रताप के साहस, संकल्प, शौर्य, तेज एवं तप के पीछे विजयादशमी के महापर्व की ही प्रेरणाएं थीं। विजयादशमी को अपराजेय वीर छत्रपति शिवाजी हमेशा ही साहस और संकल्प के महापर्व के रूप में मनाते थे। धुंधले और धूमिल होते जा रहे इस प्रेरणादायी महापर्व की परंपरा के कुछ संस्मरण महान क्रांतिकारी वीर रामप्रसाद बिस्मिल एवं चंद्रशेखर आजाद से भी जुड़े हैं। ये क्रांतिवीर इस पर्व को उत्साहपूर्वक मनाया करते थे।
चंद्रशेखर आजाद का कहना था कि हमारे सभी पर्व-त्योहारों में जितनी ओजस्विता एवं प्रखरता दशहरा में है, उतनी किसी अन्य पर्व में दिखाई नहीं देती। बिस्मिल कहते थे कि विजयादशमी साहस और संकल्प का महापर्व है, पर ध्यान रहे, साहस का प्रयोग आतंकवादी बर्बरता, अन्याय, अनाचार, भ्रष्टाचार के प्रति हो, अपनों और सदाचार के प्रति नहीं। क्रांतिवीर बिस्मिल की ये बातें आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। हमारा साहस और संकल्प आज दिशा भटक गए हैं। हम साहसी, पराक्रमी तो हैं, पर नवनिर्माण के लिए नहीं, बल्कि तोड़-फोड़ के लिए। इसी तरह हम अपने संकल्पों की शक्ति अहं का उन्माद फैलाने और सांप्रदायिक दुर्भाव बढ़ाने में लगाते हैं। देश की समरसता एवं सौहार्द में विष घोलने का काम करते हैं।
इस बार की विजयादशमी हम सबके लिए विजय का संकल्प बनकर आई है। हम सब मिल-जुलकर इसको इसी रूप में मनाएं। हममें से हर एक साहस भरा संकल्प ले अपनी निज की और सामूहिक रूप से समाज की दुष्प्रवृत्तियों को मिटाने का, अनीति और कुरीति के विरुद्ध संघर्ष करने का, आतंक और अलगाव के विरुद्ध जूझने का। इस संकल्प में ही इस महापर्व की सच्ची सार्थकता है। इस साहसी संकल्प के अनुरूप व्रतशील जीवन जीकर ही हम यह प्रमाणित कर सकेंगे कि हम विजयादशमी को महापर्व का स्वरूप देने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के सच्चे भक्त हैं। इस विजय पर्व पर यदि हम दुष्प्रवृत्तियों के रावण को सदैव के लिए जला सकें, तभी समझना चाहिए कि हमने सही ढंग से दशहरा मनाया।

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