पैनडेमिक के दौरान मर्द लिख रहे थे एकेडमिक रिसर्च पेपर, महिलाएं संभाल रही थीं गृहस्‍थी

इंटरनेशनल मीडिया में ये दो खबरें एक साथ फ्लैश हुई हैं

Update: 2021-11-10 08:00 GMT

मनीषा पांडेय।


इंटरनेशनल मीडिया में ये दो खबरें एक साथ फ्लैश हुई हैं. एक ओर महिलाएं दुनिया के पहली विमेंस स्‍टडीज डिपार्टमेंट के 50 साल पूरे होने का जश्‍न मना रही हैं, वहीं दूसरी ओर इटली की मिलान यूनिवर्सिटी के सोशल एंड पॉलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट में हुई स्‍टडी कह रही है कि पैनडेमिक के दौरान एकेडमिक्‍स के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी कम हुई है. दुनिया भर के 2,329 एकेडमिक जरनल्‍स का अध्‍ययन करने के बाद रिसचर्स इस नजीते पर पहुंचे हैं कि पैनडेमिक के पहले साल में एकेडमिक रिसर्च के क्षेत्र में महिलाओं की हिस्‍सेदारी कम हुई है.


इस कम भागीदारी में छिपा हुआ एक तथ्‍य और भी है, जिसके बारे में सोशल एंड पॉलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट की प्रोफेसर फ्लेमिनो स्‍क्‍वाजनी कहती हैं कि पैनडेमिक के दौरान रिसर्च जरनल्‍स को भेजे जाने वाले एकेडमिक पेपर्स में 30 फीसदी का इजाफा हुआ, लेकिन इन एकेडमिक पेपर्स में महिलाओं के द्वारा लिखे गए पेपर्स की संख्‍या 2019 के मुकाबले 18फीसदी कम हो गई.

द इकोनॉमिस्‍ट में इस स्‍टडी पर छपी लंबी रिपोर्ट विस्‍तार से इसके कारणों की पड़ताल करते हुए कहती है कि इसकी वजह मुख्‍य रूप से पैनडेमिक के दौरान औरतों पर बढ़ी घर और परिवार के देखभाल की जिम्‍मेदारी है. नौकरी करने वाली महिलाओं पर भी पैनडेमिक के दौरान काम का दबाव बहुत ज्‍यादा बढ़ गया था, लेकिन एकेडमिक्‍स और रिसर्च का काम खासतौर पर बहुत सारे वक्‍त और एकाग्रता की मांग करता है. कामों के बोझ तले दबे हुए और बहुत सारे पारिवारिक दबावों के बीच काम करते हुए एकेडमिक पेपर नहीं लिखा जा सकता.

रिचा नायर तिरुवनंतपुरम के एक साइंस रिसर्च इंस्‍टीट्यूट में पिछले तीन साल से फैलो हैं. रिचा के पति फिजिक्‍स के प्रोफेसर हैं और पैनडेमिक और लॉकडाउन के दौरान अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी में बतौर विजिटिंग प्रोफेसर गए हुए थे. पैनडेमिक से पहले पिछले तीन सालों में रिचा ने दो लंबे एकेडमिक रिसर्च पेपर लिखे और उसके बाद से उनके पढ़ने-लिखने का काम बिलकुल ठप्‍प पड़ा हुआ है.

रिचा कहती हैं, "तीन सालों में दो लंबे रिसर्च पेपर के बाद पिछले दो साल में मैंने कुछ भी काम नहीं किया है. एक पेपर जिस पर मैं पहले काम कर रही थी, वो पिछले दो साल में कछुए की रफ्तार से आगे बढ़ रहा है. पैनडेमिक के दौरान मैं दोनों बच्‍चों और सास-ससुर के साथ अकेली थी. मेरे पति भी यहां नहीं था. काम का बोझ और जिम्‍मेदारियां इतनी बढ़ गई थीं कि मैं एक घंटा में पूरी एकाग्रता के साथ अपने काम पर फोकस नहीं कर पाती थी."
रिचा का काम अब धीरे-धीरे थोड़ा पटरी पर लौट रहा है, लेकिन वो कहती हैं कि दो साल में मैं इतनी पीछे चली गई हूं कि वापस उस जगह लौटने में मुझे चार गुना मेहनत करनी होगी.

पैनडेमिक की स्थितियां अब धीरे-धीरे बदल रही हैं. अब सबकुछ उतना भयावह और डिप्रेसिंग नहीं है, जितना कि आज से छह महीने पहले भी महसूस होता था. लेकिन एक ग्‍लोबल महामारी के दो सालों ने पूरी दुनिया में महिलाओं के विकास की रफ्तार को जिस जगह पहुंचा दिया है, उसकी भरपाई करने में कई दशक लग जाएंगे.

इस साल की शुरुआत में आई वर्ल्‍ड इकोनॉमिक फोरम की रिपोर्ट के मुताबिक जेंडर इक्‍वैलिटी का जो लक्ष्‍य आने वाले 120 सालों में हासिल किए जाने का अनुमान था, वह अब एक पीढ़ी पीछे खिसक गया है. विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन की रिपोर्ट कहती है कि पैनडेमिक के दौरान महिलाओं में अवसाद 17 गुना बढ़ा है. ये तब है, जब पैनडेमिक के पहले भी मानसिक अवसाद, डिप्रेशन और एंग्‍जायटी के केसेज महिलाओं में पुरुषों के मुकाबले 30 गुना ज्‍यादा थे.

यूएन विमेन की एक्‍जीक्‍यूटिव डायरेक्‍टर जॉर्डन की सिमा सामी बाहौस कहती हैं कि जेंडर बराबरी के जिस लक्ष्‍य को हासिल करने के लिए हम इतने बरसों से मेहनत कर रहे थे, एक वैश्विक महामारी ने उस लड़ाई में हमें कई दशक पीछे ढकेल दिया है. महिलाओं की शिक्षा और स्‍वास्‍थ्‍य से लेकर उनकी नौकरी और आय तक में हम काफी पीछे चले गए हैं. साथ ही घरेलू हिंसा और चाइल्‍ड मैरिज की घटनाओं में हुआ इजाफा अलग से समस्‍या को और गंभीर रूप दे रहा है.

एकेडमिक स्‍टडी और रिसर्च के क्षेत्र में वैसे भी महिलाओं की संख्‍या पुरुषों के मुकाबले बहुत कम है. साइंस रिसर्च में तो वो और भी ज्‍यादा कम है. आंकड़ा कहता है कि पूरी दुनिया में विज्ञान के क्षेत्र में शुरुआती शिक्षा में महिलाओं और पुरुषों की भागीदारी का अनुपात 52:48 का है यानि कि 52 फीसदी महिलाएं और 48 फीसदी पुरुष हैं. लेकिन जैसे-जैसे आप हायर एकेडमिक्‍स की दिशा में बढ़ते जाते हैं, महिलाओं का अनुपात कम होने लगता है. यह अनुपात इतनी तेजी के साथ कम होता है कि सबसे ऊपरी लैडर तक पहुंचते-पहुंचते महिलाएं सिर्फ 12 फीसदी रह जाती हैं और पुरुष 88 फीसदी.
रिचा नायर कहती हैं, "और इसकी वजह स्त्रियों की कम काबिलियत तो बिलकुल नहीं हैं. एकेडमिक्‍स में जहां तक महिलाएं पुरुषों के साथ चल रही होती हैं, उनका परफॉर्मेंस मर्दों के मुकाबले कहीं बेहतर होता है. हायर एकेडमिक्‍स और खासतौर पर साइंस के क्षेत्र में महिलाओं के पिछड़ जाने की वजह मुख्‍यत: सामाजिक और पारिवारिक है. औरतों के पास मर्दों की तरह सपोर्ट सिस्‍टम नहीं है. अधिकांश लड़कियों की शादियां हो जाती हैं और भारतीय समाज में खासतौर पर ऐसे परिवारों में, जहां पति और ससुराल वालों को कमाऊ बहू तो चाहिए, लेकिन ऐसा काम करने वाली बहू नहीं, जिसे अपने काम के लिए 14-14 घंटे घर से बाहर लैबोरेटरी में बिताने पड़ें और पैसा भी कम मिले." रिचा कहती हैं कि पुरुष आगे इसीलिए बढ़ते क्‍योंकि उन्‍हें अपने कॅरियर के अलावा और किसी चीज की चिंता नहीं करनी पड़ती. औरतें दुनिया की सारी चिंताओं से निपटने के बाद सबसे अंत में अपने कॅरियर के बारे में सोच पाती हैं.

पैनडेमिक का औरतों की जिंदगी के और किन पहलुओं पर कितना नकारात्‍मक असर हुआ है, यह तो आने वाला वक्‍त और सलीके से बताएगा. मिलान यूनिवर्सिटी की इस स्‍टडी की तरह अभी और दसियों रिसर्च और स्‍टडी इस बात का खुलासा करेंगे, जो दुनिया पहले से इतनी स्‍त्री विरोधी थी, वो पैनडेमिक में और भी ज्‍यादा खतरनाक हो गई. औरतें विकास के रास्‍ते पर बहुत पीछे ढकेली जा चुकी हैं. अब वापस से पुरानी जगह पर पहुंचने के लिए भी उन्‍हें दुगुनी रफ्तार से दौड़ना होगा. बराबरी की बात तो अभी हम सोच भी नहीं रहे.


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