चुनावी हवा से नहीं चल पाएगा 'डनलप' का पंचर टायर, रैलियों के शोर में दब गईं बूढ़े मजदूरों की आवाजें

ये 80 के दशक की बात है. दूरदर्शन पर क्रिकेट मैच के दौरान एक विज्ञापन आता था. उसे देखकर दिल खुश हो जाता था.

Update: 2021-02-24 13:34 GMT

ये 80 के दशक की बात है. दूरदर्शन पर क्रिकेट मैच के दौरान एक विज्ञापन आता था. उसे देखकर दिल खुश हो जाता था. विज्ञापन में ये बताया जाता था कि हवाई जहाज के टायर भी भारत में ही बन रहे हैं. वो विज्ञापन था टायर बनाने वाली कंपनी डनलप का. टैगलाइन थी- "Dunlop is Dunlop, Always Ahead". टायर बनाने वाली ये कंपनी कई साल से बंद है. यहां काम करने वाले बेरोजगार हैं. जो इस कंपनी से रिटायर हो गए वो अब तक अपने फंड का इंतजार कर रहे हैं. कंपनी को दिवालिया घोषित करने की प्रक्रिया चल रही है. हुगली के शाहगंज इलाके में बनी इस विशालकाय कंपनी की इमारत जरजर हो चुकी है. वीरान पड़ी ये फैक्ट्री सांप-छछूंदरों का डेरा बन चुकी है.


अब इस इलाके में रौनक तभी आती है जब चुनाव होते हैं. यहां का डनलप मैदान राजनीतिक रैलियों के लिए नेताओं की पसंदीदा जगह है.सोमवार को प्रधानमंत्री मोदी ने यहां एक बड़ी चुनावी रैली की. बुधवार को इसी मैदान में ममता बनर्जी की रैली हो रही है. नेताओं के भाषण ये इलाका कई बरसों से सुन रहा है. हर कोई उम्मीद करता है कि डनलप की पुरानी शान वापस लौटेगी. कोई ना कोई नेता कुछ समाधान लेकर आएगा. लेकिन हर बार चुनावों के बाद उम्मीदों का उफान उदासी में बदल जाता है.


'डनलप' की कहानी
कोलकाता से करीब 70 किलोमीटर दूर शाहगंज में डनलप की फैक्ट्री करीब 250 एकड़ इलाके में फैली हुई है. 1936 में यहां साइकिल से लेकर हवाई जहाज तक के टायर बनने शुरू हो गए थे. उस जमाने में डनलप के कारखाने अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी और जापान जैसे देशों में ही थे. भारत की फैक्ट्री से बना सामान दूसरे देशों को निर्यात भी होता था. आजादी के बाद इस फैक्ट्री में कनवेयर बेल्ट, फोम कुशनिंग जैसे प्रोडक्ट भी बनने लगे.

हड़ताल ने खराब कर दी हालत
70 के दशक की मंदी में डनलप पर संकट के बादल मंडराने लगे. तेल संकट की वजह से ऑटोमोबाइल इंड्स्ट्री मुश्किल में थी. भारत में गिनी चुनी गाड़ियां ही बनती थीं. इस सबने डनलप की चमक को कम कर दिया. 80 के दशक में कंपनी का एक बड़ा हिस्सा बिजनेस टाइकून मनु छाबड़िया के पास चला गया. एक तरफ कंपनी आर्थिक संकट से जूझ रही थी दूसरी तरफ ट्रेड यूनियन्स की राजनीति अपने चरम पर थी. 1988 में 97 दिन की हड़ताल ने डनलप की हालत और खराब कर दी. अगर समय रहते तब की पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार हरकत में आती तो डनलप को बचाया जा सकता था. उदारीकरण के दौर में डनलप एक बार फिर चमका लेकिन मैनेजमेंट की अंदरूनी समस्याओं ने कंपनी को फिर पटरी से उतार दिया. 1998 में डनलप बिमारू कंपनियों की कतार में खड़ी हो गई. 2005 में बिजनेसमैन पवन रूइया ने डनलप को खरीदा लेकिन यूनियन बाजी और दूसरे उतार चढ़ावों ने डनलप को आगे नहीं बढ़ने दिया.

डनलप पर राजनीति
आज की तारीख में टीएमसी और बीजेपी दोनों बंगाल में बंद पड़ी कंपनियों को चालू करने का वादा करती हैं. 2016 के चुनावों से ठीक पहले ममता सरकार ने एक कानून पास करके डनलप और जेसोप कंपनियों के अधिग्रहण का फैसला किया. फैसला चुनावी था. चुनावों के बाद मामला ठंडा हो गया. तृणमूल का कहना है कि मोदी सरकार की वजह से इस बिल को राष्ट्रपति की मंजूरी नहीं मिली. राष्ट्रपति की मंजूरी इसलिए जरूरी थी कि जेसोप कंपनी में 4 फीसदी हिस्सा भारत सरकार का है. बस इतना हुआ कि डनलप के करीब 200 कर्मचारियों को हर महीने 10 हजार रुपये का सरकारी मुआवजा मिलने लगा.

समाधान किसी के पास नहीं है
इस चुनाव में एक बार फिर बंद पड़े कारखानों को लेकर चिंता जाहिर की जा रही है. लेकिन डनलप जैसी कंपनी को फिर से जिंदा करना आसान नहीं है. टायर इंडस्ट्री के एक्सपर्ट बताते हैं कि डनलप जैसी कंपनी को फिर चालू करने के लिए करीब सात-आठ सौ करोड़ रुपए के निवेष की जरूरत है. इतनी बड़ी रकम कहां से लगेगी इसका जवाब किसी के पास नहीं है. क्या चुनावों के बाद खंडहर हो चुकी इस कंपनी के दरवाजे खुलेंगे इस सवाल के जवाब में फिलहाल सिर्फ वादे हैं कोई ठोस प्लान नहीं है. बंगाल में ऐसी कई कंपनियां हैं जिनके पास जमीन है, इमारतें हैं, काम करने वाले लोग भी हैं लेकिन कोई ऐसा प्लान नहीं है जिससे वे बदले हुए आर्थिक माहौल में आगे बढ़ सकें. फिलहाल डनलप मैदान में रैलियों का सिलसिला जारी है. बंद हुई कंपनियों के बूढ़े हो चुके मजदूरों को आरोप-प्रत्यारोप और वादों की आदत पड़ चुकी है. और नई पीढ़ी कहीं और अपना भविष्य देख रही है.


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