इस वैक्सीन की वजह से भारत में अब तक ब्लड क्लाटिंग की कोई शिकायत नहीं आई। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय वैज्ञानिक प्रमाणों पर नजर रखे हुए है। विश्व स्वास्थ्य संगठन तथा दवाओं पर नजर रखने वाली यूरोपीय संस्था यूरोपीयन मेडिसिन्स एजैंसी (ईएमए) द्वारा एस्ट्राजेनेका वैक्सीन के सुरक्षित होने की बात कहे जाने के बाद भी जर्मनी, इटली, फ्रांस, स्पेन, पुर्तगाल, स्लोवानिया, लातविया ने वैक्सीन का इस्तेमाल बंद कर दिया है। यूरोप के बाहर इंडोनेशिया ने भी इस वैक्सीन का प्रयोग निलम्बित कर दिया है। इसी बीच केन्द्र सरकार ने कोविशील्ड की पहली और दूसरी डोज के बीच इंटरबल को 4-6 सप्ताह की बजाय 4-8 सप्ताह कर दिया है। इसे लेकर भी लोग सवाल करने लगे हैं कि ऐसा क्यों किया गया है। महामारी के दौरान लोगों का मनोविज्ञान कुछ इस तरह का हो गया है कि वे वैक्सीन को संदेह की दृष्टि से देखने लग गए हैं। दरअसल इंटरबल बढ़ाने का फैसला मौजूद वैज्ञानिक सबूतों को देखते हुए किया गया है। विशेषज्ञों के दो समूहों नेशनल टैक्निकल एडवाइजरी ग्रुप ऑफ इम्यूनाइजेशन और नेशनल एक्सपर्ट ग्रुप ऑफ वैक्सीन एडमिनिस्ट्रेशन फॉर कोविड-19 की सलाह पर केन्द्र ने यह कदम उठाया है। कोविशील्ड वैक्सीन (ए जैड डी 122) पर दुनिआ भर में ट्रायल हुए। ट्रायल्स में यह बात सामने आई है कि अगर दूसरी डोज पहली के 6 हफ्ते या बाद दी जाए तो वैक्सीन की एफेकसी बढ़ जाती है। ब्रिटेन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका में हुए ट्रायल्स पर एक स्टडी बताती है कि 6 या 8 हफ्तों पर टीके देने पर वैक्सीन की एफेकसी 59.9 फीसदी, 9-11 हफ्तों के अंतराल पर डोज लगी तो एफेकसी 63.7 फीसदी हो गई। वहीं जब दो टीकों के बीच समय को 12 हफ्ते या उससे ज्यादा किया गया तो एफेकसी 82.4 फीसदी तक पहुंच गई। अमेरिका, चिली और पेरू में चले फेज-3 क्लीनिकल ट्रायल्स के नतीजे बताते हैं कि अगर दो डोज के बीच 4 सप्ताह से ज्यादा का अंतर हो तो वैक्सीन 79 फीसदी असरदार है लेकिन भारत में डोज का इंटरबल 8 हफ्तों से ज्यादा नहीं रखा गया। 8 हफ्तों से ज्यादा डोज इंटरबल की सलाह उन देशों के लिए है, जहां वैक्सीन की कमी है। भारत के पास वैक्सीन की कोई कमी है ही नहीं। वैक्सीन के दूसरे डोज को देर से लगाने का मतलब यह होगा कि अब ज्यादा लोगों को पहली डोज लगेगी। प्राथमिकता वाले समूह की आबादी को टीके लगाना आसान हो जाएगा।
लोगों को कोविशील्ड को लेकर भ्रम में नहीं रहना चाहिए और टीका जल्द से जल्द लगवाना चाहिए। अब जबकि कोरोना का कहर फिर से बढ़ने लगा है तो हमें मुस्तैदी के साथ सामना करना होगा। जिस तरह की तस्वीरें टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में दिखाई देती हैं उससे पता चलता है कि मास्क पहनने को लेकर लोग लापरवाह हो चुके हैं। पहले चरण में संक्रमण के बहुत अधिक मामले बड़े शहरों से आ रहे थे लेकिन अब मध्यम आकार के और छोटे शहरों तथा आसपास के ग्रामीण क्षेत्र प्रभावित हो रहे हैं। इन जगहों पर उपचार की व्यवस्था तुरन्त कर पाना मुश्किल होगा। हमें याद रखना चाहिए कि 1918 में इंफ्लूएंजा की महामारी की दूसरी लहर अधिक भयानक साबित हुई थी। उसमें बड़ी संख्या में लोग संक्रमित भी हुए थे। बीमारी ज्यादा तकलीफदेह हो गई थी और मृतकों की संख्या भी काफी अधिक थी। भारत की कोरोना वैक्सीन में सफलता से भी कुछ देश काफी चिड़े हुए हैं। कोविशील्ड के विरुद्ध भ्रामक प्रचार सुनियोजित भी हो सकता है। गुजरे एक साल में कोरोना संकट ने करोड़ों भारतीयों को गरीबी में धकेल दिया है। आमजन का जीवन प्रभावित हुआ है। अच्छा यही होगा कि हम सब सतर्क और कोरोना से बचाव के सभी उपाय इस्तेमाल करते रहे। अगर महामारी की नई लहर ने जाेर पकड़ा तो आबादी का बड़ा हिस्सा गरीबी की दलदल में फंस जाएगा, जिसे उबरने में बहुत लम्बा समय लगेगा। इसलिए किसी भ्रम में न पड़ कर टीके लगवाएं। अब तो टीके का विरोध करने वाले लोग भी टीका लगवा रहे हैं। ऐसे में किसी को कोई संशय नहीं होना चाहिए।