भाग्यवादी नहीं पुरुषार्थी बनो
प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने एक बार पुनः देश की जनता को आगाह किया है कि वह भाग्यवादी बनने की जगह पुरुषार्थी बने और राजनैतिक दलों द्वारा मुफ्त में दिये जाने वाले उपहारों या खैरात को अपना भाग्य न समझें। यह वास्तविकता है
आदित्य चोपड़ा; प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने एक बार पुनः देश की जनता को आगाह किया है कि वह भाग्यवादी बनने की जगह पुरुषार्थी बने और राजनैतिक दलों द्वारा मुफ्त में दिये जाने वाले उपहारों या खैरात को अपना भाग्य न समझें। यह वास्तविकता है कि राजनैतिक दल चुनावों से पहले या बाद में चुनाव जीतने के लिए देश या राज्यों की जनता को मुफ्त सौगात देने के लालच देकर उन्हें लोकतन्त्र का मालिक होने की जगह चाकर या नौकर बनाने की पहल कर देते हैं और सत्ता में आने पर अपने द्वारा किये गये भ्रष्टाचार या राजस्व धन की लूट किये जाने की माफी चाहते हैं। मुफ्त सौगातें बांट कर वे गरीबों को गरीब ही बनाये रखने की कुत्सित चालें चलते हैं और उनकी आगे बढ़ कर समाज में सम्मानित स्थान पाने की इच्छा को कुचलते हैं। लोकतन्त्र में यह इसलिए निषेध है क्योंकि सत्ता की भागीदारी में पहला हक जनता का ही होता है जिसे वह अपने एक वोट की ताकत से काबिज करती है। चालाक राजनीतिज्ञ इसी एक वोट का सौदा करने के लिए गरीबों को लालच देकर अपने पापों पर पर्दा डालने का षड्यन्त्र रचते हैं।बेशक भारत एक कल्याणकारी राज है और इसमें गरीबों के उत्थान के प्रयास करना सरकारों का कर्त्तव्य होता है मगर यह काम न तो बेरोजगारी भत्ता देने से हो सकता है और न ही मुफ्त में स्कूटी या लेपटाप बांट कर। गरीबों को रोजगार के समुचित साधन उपलब्ध कराने के लिए और उनकी आर्थिक ताकत को मजबूत बनाने के लिए सरकारों को वाणिज्य के क्षेत्र से लेकर औद्योगिक व कृषि क्षेत्रों में एेसे उपाय करने पड़ते हैं जिससे इनमें लोगों की आय में वृद्धि हो और वे आत्मनिर्भर हो सके। उनकी आत्मनिर्भरता मुफ्त की सौगात या उपहारों पर नहीं बल्कि उनकी क्रय शक्ति पर निर्भर करती है जिससे वे समाज में प्रतियोगिता करते हुए अपने पुरुषार्थ के बूते पर ऊंचा उठ सके। जो लोग मुफ्त रेवड़ी बांटने का दिखावा करते हैं वे अपनी इस मूलभूत जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते हैं और गरीब को गरीब ही बनाये रखते हुए उनके वोटों पर डाका डालना चाहते हैं। जरा सोचिये आज भारत की जनसंख्या 140 करोड़ है और जब यह आजाद हुआ था तो 32 करोड़ के आसपास थी मगर अब 2022 के आते-आते 70 करोड़ से अधिक लोग तो मध्यम वर्ग में आ चुके हैं जिनमें से उच्च मध्यम वर्ग के लोगों की संख्या भी 30 प्रतिशत से ऊपर है। यह सारा मुफ्त उपहार बांट कर नहीं बल्कि कल्याणकारी राज के नियमों व सिद्धान्तों का पालन करते हुए हुआ है और इस तरह हुआ है कि भारत में आज एेसे उद्यमियों की संख्या लाखों में हैं जो कल तक कहीं मेहनत-मजदूरी या कारीगरी करते थे अथवा किसी की चाकरी करके अपना गुजारा करते थे। संपादकीय :नूपुर शर्मा को राहतचीनी मांझे से मरते लोगबाबा का धर्मनिरपेक्ष 'बुलडोजर'आजादी के अमृत महोत्सव का उत्साह देखते ही बनता है.......पदकों की बरसात लेकिन कसक बाकीबिहार में फिर 'पलटू राज'हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि अपने समय में हर बड़ा रईस कभी न कभी गरीब था। ( केवल पुराने रजवाड़ोंं या जागीरदारों को छोड़ कर) उसने अपने पुरुषार्थ से ही सम्पत्ति अर्जित की। गरीब जनता कोई भिखारी नहीं होती कि उसकी झोली में कुछ डाल कर जनता के चुने हुए प्रतिनिधि अपने दायित्व से मुक्ति पा लें। जहां तक बिजली, पानी व भोजन स्वास्थ्य आदि का सम्बन्ध होता है तो सरकारों का दायित्व होता है कि वे गरीब जनता को उसकी जेब के मुताबिक इन चीजों को उसे सुलभ करायें मगर उसे भाग्यवादी न बनाये और उसमें पुरुषार्थ करने का जज्बा जागृत रखे। तभी तो कोई जूते सिलने वाला व्यक्ति अपने कौशल के बूते पर कोई दुकान खोलने की हिम्मत कर सकता है मगर यदि हम उसे घर के बर्तन ही उपहार में दे देंगे तो उसमें आगे बढ़ने का जज्बा टूट गया और वह भाग्यवादी बन कर किसी नयी सौगात की उम्मीद में ही बैठा रहेगा। इसे ही भाग्यवादी बनाना कहते हैं। बात तब की है जब भारत नया-नया आजाद हुआ था। भारत में अमेरिका के राजदूत तब चार्स वोल्स्टर थे। उन्होंने अमेरिका की तरफ से भारत के सबसे गरीब राज्य ओडिशा में सामुदायिक सुविधाओं का निर्माण कराना शुरू किया और उनके उपयोग की छूट ग्रामीणों को मुफ्त देनी शुरू की। यह बात 1949-50 के करीब की है। उस समय ओडिशा के मुख्यमन्त्री डा. हरेकृष्ण मेताब थे। चार्स वोल्स्टर ने ओडिशा के काला हांड़ी व बोलनगीर जैसे गरीब जिले चुने थे। तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने चार्ल्स बोलस्टर को इसकी इजाजत दे दी थी। अमेरिका अपना काम कर रहा था तो डा. मेहताब ने पं. नेहरू को एक खुला पत्र लिख कर बोल्स्टर की इस परियोजना का जबर्दस्त विरोध किया और कहा कि एेसा करके हम गरीबों को अकर्मण्य और भाग्यवादी बना देंगे। मुफ्त में मिली सुविधा की किसी व्यक्ति के समक्ष कोई कीमत नहीं होती। वह श्रम की कीमत को कभी नहीं पहचानेगा और इससे वह जीवन भर गरीब ही बना रहेगा। अंत में पं. नेहरू को अपना निर्णय वापस लेना पड़ा था। मगर सरकार तब भी गरीबों को अनाज व उपभोक्ता सामग्री सस्ते दामों पर उपलब्ध कराती थी। सरकारी अस्पतालों में नाम भर फीस की पर्ची कटाने पर इलाज कराती थी। आज भी सरकार ने बहुत सी योजनाएं शुरू की हुई हैं जिनमें स्वास्थ्य की आयुष्मान योजना व गरीबी की सीमा रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के लिए सस्ता अनाज आदि। कल्याणकारी राज की यही परिकल्पना है मगर किसी भी गरीब से गरीब को गरीब ही बनाये रखने की परिकल्पना नहीं है । बल्कि उसे आगे बढ़ने के अवसर प्रदान करने की है। मुफ्त में रेवड़ी बांट कर हम उसके सबल बनने के सपने को चकनाचूर कर देते हैं।