बेहिसाब शोर से मिलती बीमारियां
शोर से होने वाली बहरेपन की बीमारी एक गंभीर स्वास्थ्यगत समस्या है
सुनीला गर्ग,
शोर से होने वाली बहरेपन की बीमारी एक गंभीर स्वास्थ्यगत समस्या है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की 'वर्ल्ड हीयरिंग रिपोर्ट' के मुताबिक, विश्व की 1.5 अरब आबादी बहरेपन के साथ जी रही है, जिनमें से कम से कम 43 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिनके मर्ज का इलाज हो सकता है। अंदेशा है, साल 2050 तक ऐसे लोगों की संख्या 70 करोड़ हो जाएगी। ध्वनि प्रदूषण दरअसल ऐसे अवांछित विद्युत-चुंबकीय संकेत हैं, जो इंसान को कई रूपों में नुकसान पहुंचाते हैं। इसीलिए, शोर-प्रेरित बहरेपन पर फौरन ध्यान देने की जरूरत है।
वैश्विक अध्ययन बताते हैं कि निर्माण कार्य, औद्योगिक कामकाज (मोटर वाहन उद्योग, खदान, कपड़ा उद्योग आदि), जहाज बनाने या मरम्मत करने संबंधी काम, अग्निशमन, नागरिक उड्डयन आदि सेवाओं में लगे श्रमिकों में शोर-प्रेरित बहरेपन का खतरा ज्यादा होता है। हालांकि, श्रवण के लिहाज से असुरक्षित मनोरंजन के साधन, आवासीय स्थान, और असैन्य व सैन्य सेवाएं भी बहरेपन की समस्या बढ़ा सकती हैं। आकलन है कि 15 फीसदी नौजवान संगीत कार्यक्रमों, खेल आयोजनों और दैनिक कामकाज में होने वाले तेज शोर से बहरेपन का शिकार होते हैं।
शोर-प्रेरित बहरेपन की समस्या विकासशील देशों में ज्यादा है, जहां तीव्र औद्योगिकीकरण, अनौपचारिक क्षेत्र के विस्तार और सुरक्षात्मक व शोर-नियंत्रणरोधी उपायों की कमी से लोग चौतरफा शोर-शराबे में दिन बिताने को अभिशप्त हैं। भारत में तो शोर-प्रेरित बहरेपन को फैक्टरी ऐक्ट ऐसी बीमारी मानता है, जिस पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है। महानिदेशालय कारखाना सलाह सेवा व श्रम संस्थान (डीजीएफएएसएलआई) ने आठ घंटे तक ही अधिकतम 90 डेसीबल आवाज में रहने की अनुशंसा की है।
सन् 2015 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अनुमान लगाया था कि श्रवण के असुरक्षित तरीकों से 1.1 अरब नौजवानों में बहरेपन का खतरा है। मगर कार्यस्थलों पर शोर ही मूल समस्या नहीं है। हाल के दिनों में धर्मस्थलों या इबादतगाहों में आस्था के नाम पर लाउडस्पीकरों का जमकर इस्तेमाल होने लगा है। विश्व शांति के लिए होने वाले आयोजन भी बिना शोर-शराबे के पूरे नहीं होते हैं, जबकि 85 डेसीबल से अधिक तेज आवाज अगर हमारे कानों में पहुंचती है, तो हमें अस्थायी बहरेपन की समस्या हो सकती है और हमारी सुनने की क्षमता कम हो सकती है। तेज आवाज के संपर्क में आने के 10-15 दिनों में इसका इलाज संभव है। मगर कान की रोम कोशिकाएं और संबंधित तंत्रिका तंतु यदि बार-बार या निरंतर शोर के संपर्क में रहे, तो बहरापन स्थायी बन सकता है। अत्यधिक शोर के असर से स्थायी स्मृति लोप और मानसिक रोग भी हो सकते हैं।
तेज संगीत और आसपास के शोर या अचानक तेज आवाज के संपर्क में आने से भी सुनने की हमारी क्षमता धीरे-धीरे खत्म हो सकती है। दरअसल, तेज आवाज नाजुक श्रवण कोशिकाओं को उत्तेजित करती है, जिससे वे स्थायी रूप से चोटिल या खत्म हो सकती हैं। इस तरह से एक बार यदि सुनने की क्षमता खत्म हो जाए, तो उसे फिर से हासिल करना नामुमकिन है। इसी तरह, सड़कों पर गाड़ियों के हॉर्न का अविवेकपूर्ण इस्तेमाल और देश के अलग-अलग समुदायों में सामाजिक व धार्मिक जलसों में लाउडस्पीकरों के व्यापक उपयोग से भी कई तरह की स्वास्थ्यगत समस्याएं हो सकती हैं। इनसे मानसिक रोग, बहरापन, उच्च रक्तचाप, चक्कर आना, घबराहट, अनिद्रा जैसी बीमारियां हो सकती हैं। तेज शोर के संपर्क में आने वाला व्यक्ति रक्त-बहाव तंत्र से जुड़ी बीमारियों, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, पेप्टिक अल्सर और तंत्रिका संबंधी रोगों का शिकार भी हो सकता है।
जाहिर है, हमें उन उपायों को अमल में लाना होगा, जिनसे तेज शोर के कारण होने वाली समस्याएं खत्म हो सकें। इनमें से सबसे अच्छा रास्ता तो यही है कि शोर या आसपास की तेज आवाज को कम किया जाए। सर्वोच्च अदालत का मानना है कि ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए अदालत से निर्देश जारी हो सकता है, भले ही वह शोर धार्मिक गतिविधियों की वजह से क्यों न पैदा हो रहा हो। उसने कहा है, कोई भी धर्म इसकी अनुमति नहीं देता कि दूसरों की शांति को भंग करके प्रार्थना की जानी चाहिए। एक सभ्य समाज में मजहब के नाम पर ऐसी गतिविधियों की अनुमति नहीं दी जा सकती, जो वृद्ध या दुर्बल लोगों, छात्रों या बच्चों की रात, सुबह या दिन की नींद में खलल डालती हैं। अदालत का यह निर्देश दिवाली और अन्य त्योहारों के समय होने वाली आतिशबाजी के संदर्भ में आया था। कोर्ट ने माना है कि भारतीय समाज बहुलतावादी है। यहां के लोग विभिन्न जातियों और समुदायों में बंटे हुए ैहैं और विभिन्न धर्मों में आस्था रखते हैं। वे विभिन्न त्योहार मानते हैं। वे एक-दूसरे के प्रति सहिष्णु हैं। इसलिए यदि एक को छूट दी जाती है, तो दूसरे को छूट न देने का कोई औचित्य नहीं होगा। और, अगर हम ऐसा करते हैं, तो छूट नियम बन जाएगी। तब कानूनों को लागू कराना मुश्किल हो जाएगा।
वैसे भी, निद्रा हमारा मौलिक अधिकार है। शीर्ष अदालत भी यह मानती है कि बेहतर स्वास्थ्य के आवश्यक तत्वों में संतुलन बनाए रखने के लिए इंसान के लिए नींद अनिवार्य है। इसीलिए, नींद एक मूलभूत आवश्यकता है, जिसके बिना मानव जीवन का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। नींद में खलल डालना यातना के समान होगा, जिसे अब मानव अधिकार के उल्लंघन के रूप में स्वीकार किया जाता है।
साफ है, तेज ध्वनि के संपर्क में आने से बचना बहरेपन से जुड़ी समस्या का एक प्रभावी निदान माना जाता है। यही वजह है कि हानिकारक शोर को कम करना, इसके खतरे को टालना, शोर से बचने के लिए प्रभावी निजी सुरक्षा उपकरण मुहैया कराना, स्क्रीनिंग द्वारा शोर-प्रेरित बहरेपन का शीघ्र पता लगाना और श्रवण-शक्ति गंवा चुके लोगों का इलाज सार्वजनिक स्वास्थ्य लक्ष्य का हिस्सा हैं। हमें यह समझना ही होगा कि श्रवण शक्ति का ह्रास न सिर्फ इंसान को प्रभावित करता है, बल्कि समाज पर भी नकारात्मक असर डालता है। लिहाजा, शोर-प्रेरित बहरेपन की समस्या को नजरंदाज करना हमें भारी पड़ सकता है।