विमर्श: सत्ता समीकरण और दलित
क्या इस पृष्ठभूमि में स्वस्थ और समरसतापूर्ण समाज की कल्पना संभव है?
आदरणीय बहन प्रियंका जी, गत बुधवार (20 अक्तूबर) को आप उत्तर प्रदेश के आगरा स्थित सफाईकर्मी अरुण वाल्मिकी के घर संवेदना प्रकट करने गईं। इसके लिए आपको साधुवाद। दलित अत्याचार की निंदा जितनी भी की जाए, वह कम है। सभ्य समाज का कर्तव्य है कि वह ऐसे पीड़ित परिवारों का साथ दे। आगरा की घटना के अनुसार, अरुण पर 25 लाख रुपये चोरी का आरोप लगा था, जिसकी मौत उत्तर प्रदेश पुलिस की हिरासत में हो गई।
आपकी आगरा यात्रा दलित-उत्पीड़न के आक्रोश से जनित है या फिर विशुद्ध राजनीति से प्रेरित? यह संदेह इसलिए उठ रहा है, क्योंकि आगरा की दुखद घटना से पहले 15 अक्तूबर को दिल्ली-हरियाणा की सिंघु सीमा पर एक दलित मजदूर लखबीर सिंह की निहंग सिखों ने सरेआम न केवल नृशंस हत्या कर दी, अपितु उसके शव को क्षत-विक्षत करके किसान आंदोलन के मंच के पास लटका दिया था। लखबीर पर आरोप है कि उसने बेअदबी की थी। क्या दलित लखबीर के परिवार को आपने या आपकी पार्टी के प्रतिनिधि ने सांत्वना दी?
बीते दिनों कश्मीर में जिहादियों ने जिन निरपराधों को चिह्नित करके और गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया, उसमें से एक बिहार निवासी दलित वीरेंद्र पासवान भी था। आर्थिक तंगी के कारण परिजनों ने वीरेंद्र का अंतिम संस्कार भागलपुर स्थित गांव के बजाय श्रीनगर में कर दिया। मजहब के नाम पर हिंसा के शिकार हुए वीरेंद्र के परिजनों का दर्द बांटने क्या आप या आपकी पार्टी के नेता श्रीनगर या फिर भागलपुर गए?
प्रियंका जी, भले ही यह खुला पत्र आपको संबोधित है, किंतु यह चिट्ठी उस वर्ग के लिए भी है, जो स्वयं को वाम-उदारवादी और सेक्यूलर कहलाना पसंद करता है। क्या यह सच नहीं है कि यह वर्ग अक्सर अपराध/हिंसा का संज्ञान पीड़ित-आरोपी के मजहब, जाति और क्षेत्र देखकर लेता है? इस समूह ने जनवरी, 2016 के रोहित वेमुला आत्महत्या मामले को वैश्विक बना दिया था, वह भी तब, जब रोहित दलित था ही नहीं।
उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में भीड़ द्वारा चार भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या को सड़क-दुर्घटना में हुई किसानों की मौत से जनित आक्रोश की प्रतिक्रिया बताकर न्यायोचित ठहराया जा रहा है। लेकिन वाम-उदारवादी और सेक्यूलर कुनबा दलित लखबीर की निहंग सिखों द्वारा निर्मम हत्या किए जाने पर मौन है, क्योंकि लखबीर के कातिलों की पहचान/मान्यता और संदर्भ (किसान आंदोलन) इन लोगों के नैरेटिव के लिए उपयोगी नहीं था। पोस्ट मार्टम के बाद लखबीर का अंतिम संस्कार रात के अंधेरे में बिना किसी रीति-रिवाजों के और ईंधन डालकर कर दिया।
बकौल मीडिया रिपोर्ट, राजस्थान में इस वर्ष सितंबर तक अनुसूचित जाति के 11 लोगों की हत्या और बलात्कार के 51 मामले सामने आ चुके है। अकेले अगस्त में ही हत्या के आठ और दुष्कर्म के 49 मामले दर्ज किए गए थे। इन्हीं दलित विरोधी घटनाओं की शृंखला में अलवर निवासी दलित योगेश जाटव की मुस्लिम भीड़ द्वारा पिटाई में मौत हो गई थी। इन मामलों में वाम-उदारवादियों द्वारा कोई प्रदर्शन या सांत्वना यात्रा का आयोजन नहीं हुआ, क्योंकि यह मामला इनके द्वारा परिभाषित सेक्यूलरवाद पर कुठाराघात नहीं था। ऐसा ही दोहरा दृष्टिकोण इस वर्ग का पश्चिम बंगाल के हिंसक घटनाक्रम में भी दिखता है, जहां हुई राजनीतिक हिंसा का दंश दलितों ने सबसे अधिक झेला था। उनका अपराध केवल यह था कि उन्होंने चुनाव में विरोधी दल का समर्थन किया था।
दलित हमारे समाज का अभिन्न अंग है। शर्म की बात है कि सदियों से उन पर अत्याचार होते रहे हैं। उससे भी अधिक शर्मनाक बात यह है कि एक विशेष राजनीतिक वर्ग ऐसी प्रताड़नाओं को रोकने के स्थान पर उनका उपयोग सत्ता प्राप्ति हेतु सीढ़ी के रूप में कर रहा है। क्या इस पृष्ठभूमि में स्वस्थ और समरसतापूर्ण समाज की कल्पना संभव है?