बदलाव की दिशा: सीटें बढ़ाना मेडिकल शिक्षा में सुधार की गारंटी नहीं
उन निजी उद्यमियों के हाथों में सौंप देना भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता, जो मेडिकल कॉलेज खोलना चाहते हैं।
यूक्रेन पर रूसी आक्रमण और युद्ध क्षेत्र में फंसे भारतीय मेडिकल छात्रों की हुई दुर्दशा से एक ऐसे मुद्दे पर ध्यान गया है, जिसके अविलंब हल की आवश्यकता है-और वह मुद्दा देश की चिकित्सा शिक्षा में सुधार का है। अनेक भारतीयों ने यह सवाल पूछा है कि आखिर ये छात्र मेडिकल की पढ़ाई के लिए यूक्रेन क्यों गए थे। जबकि पढ़ाई के लिए विदेश जाने पर हैरानी जताने वालों में से ज्यादातर इसकी असली वजह जानते हैं।
यूक्रेन के खार्किव में रूसी गोलाबारी में मारे गए भारतीय छात्र नवीन के दुखी पिता को उसके दिवंगत बेटे के 97 फीसदी अंक पाने के बावजूद देश के किसी निजी मेडिकल कॉलेज में प्रवेश न पाने को लेकर सवाल किया गया। यह देश में चिकित्सा शिक्षा की दयनीय स्थिति के बारे में बताता है। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि उस पिता से कॉलेज के चुनाव को लेकर पूछताछ की जा रही थी, जिसने अभी-अभी अपना बेटा खोया है! इससे यह भी पता चलता है कि स्थिति कितनी विकट है और हमारी चिकित्सा शिक्षा प्रणाली में कितनी अपर्याप्तता और कमी है।
कटु सच्चाई यह है कि जो लोग इस देश में डॉक्टर बनना चाहते हैं, उनके पास विकल्प बहुत कम हैं। निजी मेडिकल कॉलेजों में फीस एक करोड़ रुपये से ज्यादा हो सकती है। वहीं यदि इसकी तुलना अन्य देशों से करें, तो उसी कोर्स की कीमत कई देशों में 20 लाख रुपये से 30 लाख रुपये के बीच है। यह सच है कि हमारे देश के सरकारी मेडिकल कॉलेज बहुत सस्ते हैं, लेकिन उनमें सीटें बहुत कम हैं और आवेदकों की संख्या बहुत ज्यादा है।
गौरतलब है कि 2021 में राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (एनईईटी, यूजी) परीक्षा में एमबीबीएस की कुल 84,649 सीटों के लिए 16,14,777 उम्मीदवारों ने पंजीकरण किया था। उनमें से 8,70,074 छात्रों ने क्वालीफाई किया। इसमें वह पैसा भी जोड़ा जाना चाहिए, जो आमतौर पर नीट परीक्षा के लिए महंगी कोचिंग पर खर्च किया जाता है। तमिलनाडु सरकार द्वारा नियुक्त एक पैनल की रिपोर्ट के अनुसार, क्वालीफाई करने वाले ज्यादातर छात्र वही होते हैं, जो कोचिंग लेते हैं।
हमारे देश में कुल 596 मेडिकल कॉलेज हैं। इनमें से करीब 300 मेडिकल कॉलेज सरकारी हैं, जबकि शेष निजी मेडिकल कॉलेज हैं। इसके अलावा पिछले सात वर्षों में एम्स की संख्या भी बढ़ी है, इसके बावजूद मेडिकल शिक्षा से जुड़े कई प्रमुख मुद्दे अभी अनसुलझे हैं। भारत में प्रति 1,000 की आबादी पर 0.9 डॉक्टर हैं, जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा तय मानक से नीचे है, जिसके मुताबिक प्रति एक हजार की जनसंख्या पर एक डॉक्टर होना चाहिए। इसके अलावा गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा सेवा के मामले में शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में भारी असमानता है। ऐसे में, उन छात्रों के लिए विकल्प क्या है, जो डॉक्टर बनना चाहते हैं? जाहिर है, हमारे देश में डॉक्टरों की मांग उनकी उपलब्धता की तुलना में कहीं अधिक है। चूंकि हमारे देश में चिकित्सा शिक्षा का मौजूदा ढांचा इतने सारे छात्रों की महत्वाकांक्षाएं पूरी नहीं कर सकता, ऐसे में, डॉक्टर बनने के महत्वाकांक्षी युवा मेडिकल शिक्षा के लिए चीन और पूर्वी यूरोप के लिए रवाना हो जाते हैं, जहां की फीस हमारे यहां के निजी मेडिकल कॉलेजों की तुलना में बहुत कम है।
मेडिकल शिक्षा में सुधार का मतलब सिर्फ कॉलेजों में सीटें बढ़ाना नहीं है, न ही नए मेडिकल कॉलेज स्थापित कर देने से समस्या सुलझ जाएगी। जो चीज मायने रखती है, वह है दी जाने वाली शिक्षा की गुणवत्ता, जो काफी हद तक पाठ्यक्रम, फैकल्टी, उपकरण और इन मेडिकल छात्रों को मिलने वाले मौके पर निर्भर करती है। भारत में फैकल्टी की कमी एक बड़ी समस्या है।
मेडिकल शिक्षा में सुधार का उदाहरण देखें, तो उत्तर प्रदेश ने इस दिशा में कुछ ठोस कदम उठाए हैं। राज्य में कई नए मेडिकल कॉलेज खुल रहे हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने ही पिछले दिनों घोषित किया कि भाजपा के कार्यकाल में राज्य में मेडिकल के अंडरग्रेजुएट कोर्स में 900 सीटें बढ़ाई गई हैं, जबकि स्नातकोत्तर कोर्स में 20 प्रतिशत सीटें बढ़ाई गई हैं। आने वाले समय में उत्तर प्रदेश सरकार को शिक्षकों की कमी और अध्ययन की गुणवत्ता जैसे मुद्दों पर भी ध्यान देना होगा।
बहुत से विशेषज्ञों का कहना है कि मेडिकल शिक्षा के पाठ्यक्रम और पढ़ाई के तरीके में आमूलचूल बदलाव की जरूरत है। इसके अलावा मेडिकल की पढ़ाई करने वालों को विकल्प भी मिलना चाहिए। एक चिकित्सक और जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ सोनाली वैद कहती हैं, 'हमारी सरकार और मेडिकल शिक्षा से जुड़े विनियंत्रक-यानी राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) को इस संबंध में सक्रिय होना चाहिए और मेडिकल शिक्षा के मामले में उदार और लचीला होना चाहिए। अभी हमारी चिकित्सा शिक्षा में इस पर बहुत गर्व किया जाता है कि मेडिकल के छात्रों के चयन और देश से बाहर उनकी पढ़ाई के मामले में हम बहुत सख्त हैं। इस सोच पर विराम लगना चाहिए। मेडिकल की पढ़ाई करने के इच्छुक बहुतेरे छात्र इसलिए भी विदेश जाना चाहते हैं, क्योंकि वहां की पढ़ाई में अवसर ज्यादा मिलते हैं, और वहां जरूरी लचीलापन भी है। और उसमें कुछ गलत नहीं है।' गौरतलब है कि खुद सोनाली वैद ने मेडिकल की शुरुआती पढ़ाई बुल्गारिया में की थी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में बताया कि उनकी सरकार ने यह फैसला लिया है कि निजी मेडिकल कॉलेजों की 50 फीसदी सीटों पर उतना ही शुल्क लिया जाएगा, जितना सरकारी मेडिकल कॉलेजों में लिया जाता है। इसका मतलब यह है कि सरकार अब स्वास्थ्य क्षेत्र में खर्च बढ़ाने जा रही है, जबकि अब भी यह बहुत कम है। जैसे, स्कूल की बिल्डिंग खड़ी कर देने का मतलब गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं है, उसी तरह मेडिकल की सीटें बढ़ा देना या नए मेडिकल कॉलेज खोलना बेहतर और किफायती मेडिकल शिक्षा की गारंटी नहीं है। अस्पताल सहित एक नया मेडिकल कॉलेज खोलने में 600 से 800 करोड़ रुपये की लागत आती है। जिला अस्पतालों की स्थिति सुधारना और मेडिकल कॉलेजों को इनसे जोड़ देना एक विकल्प हो सकता है। लेकिन जिला अस्पतालों को उन निजी उद्यमियों के हाथों में सौंप देना भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता, जो मेडिकल कॉलेज खोलना चाहते हैं।
सोर्स: अमर उजाला