खोरी गांव बस्ती मेहनत-मजदूरी करने वालों से आबाद होती चली गई
खोरी गांव अरावली पहाड़ की तली पर 1980 के आसपास तब बसना शुरू हुआ था, जब यहां खनन शुरू हुआ। पहले खदानों में काम करने वाले मजदूरों की कुछ झुग्गियां बसीं, फिर इसका विस्तार लकड़पुर गांव से दिल्ली की सीमा तक होता रहा, फिर सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अरावली में खनन पूरी तरह बंद कर दिया गया और यह बस्ती मेहनत-मजदूरी करने वालों से आबाद होती चली गई। पावर ऑफ अटार्नी पर गरीब-श्रमिक जमीन खरीदते रहे और अपनी सारी कमाई लगाकर अधपक्के ढांचे खड़े करते रहे। इधर दिल्ली सुरसा मुख सी फैल रही थी तो उधर फरीदाबाद-गुरुग्राम सड़क आने के बाद सारा इलाका नगर निगम क्षेत्र में अधिसूचित हो गया। इस एक लाख आबादी की रिहाइश भले ही हरियाणा में हो, लेकिन दिल्ली से तार खींच कर यहां घर-घर बिजली दी जाती थी। बाकायदा साढ़े 13 रुपये यूनिट की वसूली ठेकेदार करते थे। पानी के लिए टैंकर का सहारा। एक हजार रुपये प्रति टैंकर की दर से माफिया पानी भरता था। पीने के लिए 20 रुपये की 20 लीटर वाली बोतल की घर-घर सप्लाई की व्यवस्था यहां थी। जाहिर है कि यहां हर महीने अकेले बिजली-पानी का कारोबार 20 करोड़ रुपये से कम का न था और इतने बड़े व्यापार तंत्र का संचालन बगैर सरकारी मिलीभगत से हो नहीं सकता। यहां हर एक बाशिंदे के पास मतदाता पहचान पत्र है और इस बस्ती के लिए बाकायदा चार मतदाता केंद्र स्थापित किए जाते थे।
बसा हुआ खोरी गांव खंडहर हो रहा
असल में खोरी की कोई सौ एकड़ जमीन नगर निगम की है। पंजाब भू संरक्षण अधिनियम-1900 के तहत यह जमीन वन विकसित करने के लिए अधिसूचित है और यहां कोई भी गैरवानिकी कार्य र्विजत है। अरावली क्षेत्र से अवैध कब्जे हटाने के लिए दायर एक जनहित याचिका पर फरवरी और अप्रैल 2020 में सुप्रीम कोर्ट राज्य सरकार को खोरी का अवैध कब्जा हटाने के आदेश दे चुका था, लेकिन सरकार जनाक्रोश के डर से अतिक्रमण हटाने से बचती रही। हाल में सुप्रीम कोर्ट ने फरीदाबाद के उपायुक्त और पुलिस प्रमुख को अतिक्रमण न हटा पाने की दशा में व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार निरूपित करते हुए छह हफ्ते में आदेश के पालन के आदेश दिए। इसके बाद से खोरी खंडहर हो रहा है। यहां की बिजली काट दी गई। चप्पे-चप्पे पर पुलिस है। प्रदर्शन, धरने, हिंसा भी हुई, लेकिन यह सवाल अनुत्तरित है कि इतनी बड़ी आबादी के लिए तत्काल घर तलाशना-वह भी अपने कार्यस्थल के पास कैसे संभव है? हालांकि अदालत और प्रशासन से यह उम्मीद जरूर थी कि यहां जमीन, पानी और बिजली बेचने वालों पर न केवल आपराधिक मुकदमे हों, बल्कि उनकी संपत्ति से विस्थापित लोगों को आवास मुहैया कराया जाए। खोरी के इतने बड़े विस्थापन पर राजनीतिक रूप से कोई बड़ी हलचल न होना जताता है कि इतनी बड़ी बस्ती को बसाकर अपने महल खड़े करने वालों में हर दल के लोग होते हैं।
देश में सरकारी जमीनों पर अवैध कब्जा कर बने धार्मिक स्थलों को हटाया जाए: सुप्रीम कोर्ट
यह जानना जरूरी है कि देश में कुल वन भूमि के दो प्रतिशत अर्थात 13 हजार वर्ग किमी पर अवैध कब्जे होने की बात केंद्र सरकार ने एक सूचना अधिकार अर्जी में स्वीकार की है। इससे पहले जुलाई 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने देश में सरकारी जमीनों पर अवैध कब्जा कर बने धार्मिक स्थलों की सूची मांगी थी और 2016 में आदेश दिया था कि ऐसे 20 लाख से ज्यादा कब्जे हटाए जाएं। सुप्रीम कोर्ट में राज्य सरकारों ने ही बताया था कि तमिलनाडु में 77,450, राजस्थान में 58,253, मध्य प्रदेश में 52,923, उप्र में 45,152 ऐसे धार्मिक स्थल हैं, जो सरकारी जमीन पर कब्जा कर बनाए गए हैं। आदेश को पांच साल से अधिक हो गया। इसका क्रियान्यवन नहीं हुआ।
अतिक्रमण प्रधान देश में खोरी को बगैर विकल्प के उजाड़ देना भले ही वैधानिक हो, लेकिन मानवीय नहीं
आजादी के समय देश के हर गांव में एक परती या चरागाह की जमीन होती थी। हर गांव में मवेशियों के चरने के लिए बड़े हरियाली चक को छोड़ा जाता था। आज शायद ही किसी गांव में चरागाह की जमीन बची हो। देश का कोई भी शहर, कस्बा ऐसा नहीं है, जहां बाजार या दुकान के नाम पर कुछ फुट सरकारी जमीन पर कारोबार आगे न बढ़ाया गया हो। पैदल चलने वालों के लिए बने फुटपाथ पर दुकान सजाना तो अधिकार में शामिल है। हर कालोनी में घर के आगे की कुछ जमीन पर क्यारी लगाने, गाड़ी खड़े करने का चबूतरा या शेड बनाने में किसी को कोई लज्जा नहीं आती। दिल्ली की सीमाओं पर सार्वजनिक सड़क पर कब्जे कर पक्की संरचनाएं खड़ी कर सात महीने से धरना दे रहे किसानों पर कोई कानून लागू नहीं होता। जाहिर है ऐसे अतिक्रमण प्रधान देश में खोरी को बगैर विकल्प के उजाड़ देना भले ही वैधानिक हो, लेकिन नैतिक या मानवीय कतई नहीं।