युद्ध से मुक्ति की आकांक्षा

युद्ध और हिंसा मानव सभ्यता के विकास के अवांछित अंग रहे हैं। ज्ञान, बुद्धि, विवेक, वैज्ञानिकता और सामाजिकता के बढ़ने के साथ-साथ युद्ध से बचने पर विचार-विमर्श सदा ही होता रहा है।

Update: 2022-08-21 04:11 GMT

जगमोहन सिंह राजपूत: युद्ध और हिंसा मानव सभ्यता के विकास के अवांछित अंग रहे हैं। ज्ञान, बुद्धि, विवेक, वैज्ञानिकता और सामाजिकता के बढ़ने के साथ-साथ युद्ध से बचने पर विचार-विमर्श सदा ही होता रहा है। मगर इसमें सफलता का विश्वास संभवत: कभी रहा ही नहीं। अपने हर स्वरूप में सत्ताएं सदा ही आक्रमण से आशंकित रही हैं, और उससे निबटने की तैयारी में देश और लोगों की सुरक्षा की आवश्यकता पर असीमित संसाधन व्यय करती रही हैं।

आज भी युद्ध हो रहे हैं, सारा विश्व देख रहा है, मगर उस नैतिक शक्ति का अभाव है, जो संप्रति यूक्रेन और रूस के मध्य शांति स्थापित कर सके। सारा विश्व इस युद्ध से नकारात्मक ढंग से- अपवाद छोड़ कर प्रभावित है। यह भी जाना-माना तथ्य है कि शांति स्थापना की सार्वभौमिक, किंतु अलभ्य अभिलाषा सदा बनी रही है और उसी तरह हिंसा और युद्ध भी सदा होते रहे हैं।

महात्मा गांधी ने 'इंडियाज केस फार स्वराज' में लिखे थे: 'मैं अपने हृदय की गहराई में यह महसूस करता हूं कि दुनिया रक्तपात से बिल्कुल ऊब गई है। दुनिया इस असह्य स्थिति से बाहर निकलने का रास्ता खोज रही है। और मैं विश्वास करता हूं तथा उस विश्वास में सुख और गर्व अनुभव करता हूं कि शायद मुक्ति के प्यासे जगत को यह रास्ता दिखाने का श्रेय भारत की प्राचीन भूमि को ही मिलेगा।'

विश्वप्रसिद्ध इतिहासकार अर्नाल्ड टायनबी ने भारत के संबंध में सदा से बनी रही इसी अपेक्षा को यों शब्द दिए थे: 'यह भली भांति स्पष्ट हो रहा है कि एक अध्याय जिसकी शुरुआत पाश्चात्य थी, अगर उसका अंत मानव जाति के आत्मसंहार में नहीं होना है, तो समापन भारतीय होगा… मानव इतिहास के इस सबसे अधिक खतरनाक क्षण में मानव जाति की मुक्ति का अगर कोई रास्ता है तो वह भारतीय है- चक्रवर्ती अशोक और महात्मा गांधी का अहिंसा का सिद्धांत और रामकृष्ण परमहंस के धार्मिक सहिष्णुता के उपदेश ही मानव जाति को बचा सकते हैं।

यहां हमारे पास एक ऐसी मनोवृत्ति और भावना है, जो मानव जाति को एक परिवार के रूप में विकसित होने में सहायक हो सकती है। और इस अणु युद्ध में विनाश का यही विकल्प है।' गांधी, टायनबी तथा अनेकानेक अन्य मनीषियों के बाद अब मैक्सिको के राष्ट्रपति अंद्रेस मैनुएल लोपेज ओब्रदोर ने संयुक्त राष्ट्र के स्तर पर एक वैश्विक आयोग बनाने का प्रस्ताव किया है। उसमें उन्होंने तीन सदस्य सुझाए हैं, जिसमें भारत को भी शामिल करने का प्रस्ताव है। यह मानव सभ्यता के विकास में भारत के सराहनीय योगदान के प्रति वैश्विक सम्मान का द्योतक है।

दो विश्व-युद्धों की विभीषिका सहन कर चुके विश्व के देशों ने भविष्य में युद्ध रोकने के लिए ही 24 अक्तूबर, 1945 को संयुक्त राष्ट्र संघ (अब संयुक्त राष्ट्र) की स्थापना की थी। सुरक्षा परिषद भी बनाई थी। पर सभी देशों की नियति में निर्मलता नहीं थी, साम्राज्यवाद-जनित कुलीनता तथा अहंकारी श्रेष्ठता का दंभ इन संस्थाओं की संरचना में ही स्पष्ट हो गया था।

वीटो का विशेषाधिकार, जो आज भी कायम है, इसका सबसे सटीक उदहारण है। सामान्य संस्थागत शिष्टाचार के अंतर्गत यूएन तथा सुरक्षा परिषद के अनेक प्रयासों की सराहना की जा सकती है, लेकिन तथ्य तो यही है कि युद्ध, हिंसा, मानवाधिकार हनन पर कोई सार्थक अंकुश लगाने में यूएन को सफलता नहीं मिली है।

आक्रमण और युद्ध लगातार होते रहे हैं, जिनके परिणामस्वरूप कितने ही देश और वहां के लोग अमानवीय कष्ट और यातनाएं सहन करते रहे हैं। वियतनाम और अफगानिस्तान में घोर पराजय का अनुभव अमेरिका को भी मिल चुका है। अफगानिस्तान में पिछले तीन दशक में बड़े स्तर पर लगातार खून-खराबा हुआ है और वहां शांति स्थापना की कोई संभावना निकट भविष्य में दिखाई नहीं देती है।

बच्चों, लड़कियों और महिलाओं के साथ वहां जो अत्याचार हुए और हो रहे हैं, उन्हें कौन रोकेगा? यूक्रेन में जो विध्वंस 24 फरवरी को प्रारंभ हुआ, उसकी पुनर्रचना कैसे संभव होगी? यूएन की स्थापना के बाद भी पिछले सतहत्तर सालों में लाखों लोगों की हत्या और विस्थापन होते रहे हैं।

कितने आश्चर्य की बात है कि किसी भी स्तर पर किसी भी व्यक्ति से अगर यह पूछा जाए, तो उत्तर यही होगा कि युद्ध नहीं होने चाहिए, हिंसा, आतंकवाद और कट्टरवाद से भी विश्व को निजात मिलनी ही चाहिए। राष्ट्रपति ओब्रदोर का प्रस्ताव मानव समाज की उसी अभिलाषा को दर्शाता है, जिसमें मनुष्य द्वारा मनुष्य पर आक्रमण और हत्या की कोई संभावना न रहे।

यह भी सभी जानते हैं कि युद्ध रोकने में सफलता मिलने की जो संभावना सात दशक पहले थी, वह अब अत्यंत कठिन हो गई है। जटिलताएं बढ़ी हैं, संग्रहण की लिप्सा वैश्वीकरण की चकाचौंध में बेलगाम बढ़ी है।

भारत भी अपनी मूल संस्कृति और अपरिग्रह जैसी उसकी व्यावहारिक परिणति से लगातार दूर होता गया है, और आज विकास और प्रगति के लिए पश्चिम की सभ्यता-जनित उसी अवधारणा को अपना चुका है, जिसकी भविष्योन्मुखी व्याख्या युवा बैरिस्टर एमके गांधी ने अपनी कालजयी रचना 'हिंद स्वराज' में 1909 में ही कर दी थी: 'दुनिया में ऐसे विवेकी पुरुषों की संख्या बढ़ रही है, जो इस सभ्यता को, जिसके एक छोर पर तो भौतिक समृद्धि की कभी तृप्त न होने वाली आकांक्षा है और दूसरे छोर पर उसके फलस्वरूप पैदा होने वाला युद्ध है, अविश्वास की निगाह से देखते हैं। लेकिन यह सभ्यता अच्छी हो या बुरी, भारत का पश्चिम जैसा उद्योगीकरण करने की कोई आवश्यकता नहीं है।'

भारत को शांति स्थापना के लिए अपने वैश्विक उत्तरदायित्व निभाने के पहले अपनी आतंरिक स्थिति पर विचार करना होगा, और इसे सहजता, सौम्यता और सहभागिता के रूप में सारे विश्व के समक्ष प्रस्तुत करना होगा। भारत के सुझावों की स्वीकार्यता उसकी शांतिमय साख पर ही निर्भर होगी।

अपनी साख और विशिष्टता को पुन: प्राप्त करने के प्रयासों में भारत को सबसे पहले अपनी आतंरिक स्थिति को नैतिकता के पैमाने पर मापना होगा। और इसमें निराशा ही हाथ लगेगी, जिससे पार पाना आवश्यक है। किसी भी देश का अपेक्षित भविष्य तो सकारात्मक सोच द्वारा ही संवरता और निखरता है। स्वतंत्रता के तुरंत बाद- स्पष्ट रूप से कहे बिना ही- गांधी की लगभग हर अवधारणा भुला दी गई थी थी।

आज भारत पश्चिम के विकास की अवधारणा अपना कर उसी वैश्विक प्रवाह में आगे चल रहा है। इसमें कोई बड़ा परिवर्तन करने की कोई संभावना भी नहीं बची है। अरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। दुनिया का चौथे नंबर का सबसे धनी व्यक्ति भारत का है। दूसरी तरफ एक सौ सोलह देशों के वैश्विक भूख सूचकांक में भारत एक सौ एकवें स्थान पर है।


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