विमुद्रीकरण : पांच साल की गफलत

पांच साल की गफलत

Update: 2021-11-13 05:25 GMT

विमुद्रीकरण एक अनुचित कदम था जिसने अपने किसी भी लक्ष्य को हासिल नहीं किया, यहां तक कि गोल पोस्ट को स्थानांतरित करने पर भी नहीं। विमुद्रीकरण देश के लिए एक नीति प्रेरित संकट लाया…


पांच साल पहले 8 नवंबर 2016 को ऊंचे मूल्य के नोटों के विमुद्रीकरण ने नागरिकों के कुछ महीनों को एक दुस्वप्न में बदल दिया था। यह स्थिति 30 दिसंबर 2016 के बाद भी बनी रही, जो पुराने नोटों को जमा करने और उन्हें नए नोटों में बदलने की अंतिम तिथि थी। महीनों तक आर्थिक गतिविधियां बुरी तरह प्रभावित रहीं। नई मुद्रा प्राप्त करने के लिए बैंकों और एटीएम के बाहर लंबी कतारें देखी गईं, ताकि जीवन और जीविका चलते रहें। सत्ताधारी दल ने जिसे मास्टर स्ट्रोक समझा था, वह एक आफत बन गया। दोषपूर्ण तर्क ः अचानक हुए विमुद्रीकरण का आधार यह विचार था कि 'काले का अर्थ नकद' है और यह काला धन ऊंचे मूल्यवर्ग के करेंसी नोटों में पाया जाएगा।

इसलिए यदि ऊंचे मूल्य के नोटों को अचानक अवैध घोषित किया जाता है तो अमीरों का काला धन शून्य और अमान्य हो जाएगा। विमुद्रीकरण की घोषणा से ठीक पहले 18 लाख करोड़ रुपए की मुद्रा प्रचलन में थी। बड़े मूल्यवर्ग की मुद्रा, 1000 और 500 रुपए के नोट, इसका 85 फीसदी हिस्सा थे। कुछ कार्यों, जैसे पेट्रोल पंपों पर ईंधन की खरीद, केंद्रीय भंडारों में किराने का सामान और दवाओं को छोड़कर, गैर-अधिसूचित नोटों का उपयोग नहीं किया जा सकता था…व्यापार और विनिर्माण के लिए भी नहीं। इस निर्णय की घोषणा रात 8 बजे की गई और इसे आधी रात से लागू होना था। नीति निर्धारकों का मानना था कि काले धन के जमाकर्ताओं को पकड़ने के लिए आकस्मिक आश्चर्य और गोपनीयता आवश्यक थी, ताकि वे अपने काले धन को नई मुद्रा में परिवर्तित करने में असफल रहें। हालांकि, आभूषण और संपत्ति खरीदने के लिए जौहरियों की दुकानों, बिल्डरों और दलालों के कार्यालयों में भीड़ लगी थी। इसलिए एक निश्चित मात्रा में काला धन संपत्ति में परिवर्तित हो गया जिसे बाद में मुद्रीकृत किया जा सकता था। इस सोच में घातक दोष यह है कि 'काली' सिर्फ नकदी नहीं है। आय और धन में अंतर है। 'काली आय' का सृजन आर्थिक गतिविधि पर आधारित एक प्रक्रिया है। यदि कोई डॉक्टर 50 मरीजों को देखता है और 30 तक भुगतान की घोषणा करता है तो बाकी मरीज़ों द्वारा किए गए भुगतान का पैसा 'काली' आय है। यह 'अंडर इनवॉइसिंग' का एक उदाहरण है जो व्यवसायों द्वारा नियमित रूप से किया जाता है। इस काली आय में से जो बचत होती है, वह वर्षों के दौरान जमा होने वाली संपत्ति बन जाती है। धन को विभिन्न रूपों में रखा जाता है, जैसे कि माल का अवमूल्यन करके या विदेशों में टैक्स हेवन (कर बचाने के लिए धन छिपाने वाली सुरक्षित जगहें) में धन जमा करके। इस धन से लाभ कमाने की उम्मीद रहती है। तो, नकद, जिस पर कोई रिटर्न नहीं है, वह एक छोटी राशि होगी… कुल काले धन का एक फीसदी। इस प्रकारए यदि विमुद्रीकरण काले धन को समाप्त करने में कामयाब होता भी, तो केवल एक फीसदी काला धन समाप्त हो जाता, लेकिन गलत माध्यम से काली आय को उत्पन्न करने की प्रक्रिया जारी रहेगी। मौजूदा भ्रष्टाचार को देखते हुए पुरानी मुद्रा को नए नोटों में बदलना आसान साबित हुआ। कुछ बैंकर अपने अमीर ग्राहकों को पुराने नोट बदलने में मदद करते हुए पकड़े गए। इस पर 30 फीसदी शुल्क था, इसलिए एक नई काली आय उत्पन्न हुई। जन धन खातों में जमा राशि अचानक बढ़ गई क्योंकि गरीबों को 'कैश खच्चरों' के रूप में इस्तेमाल किया गया।

पुराने नोट को नए नोट में बदलने के लिए कारोबारियों ने हाथ में नकदी दी। पैसे के रूपांतरण के लिए ऐसी कई रणनीतियां अपनाई गईं। 2000 रुपए के नोटों के जारी होने से काला धन रखना आसान हो गया। इस लेखक ने जून 2017 में अनुमान लगाया था कि 10 जनवरी 2017 तक उच्च मूल्यवर्ग के 99 फीसदी नोट बैंकों को वापस कर दिए गए थे। अगस्त 2017 में आरबीआई द्वारा इसकी पुष्टि भी की गई थी। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो सभी पुरानी मुद्रा का हिसाब था। जाहिर है, विमुद्रीकरण ने न तो काले धन को समाप्त किया और न ही काली आय के सृजन को रोका। बदलता लक्ष्य ः सत्ताधारी दल ने चुनाव के दौरान वादा किया था कि काले धन को जड़ से उखाड़ फेंका जाएगा और विदेशों में पड़े धन को वापस लाया जाएगा। कहा गया था कि हर परिवार को 15 लाख रुपए मिलेंगे। पर यह एक जुमला निकला। विदेशों में न तो इतना काला धन था, न ही सरकार को पता था कि वह कहां है और न ही यह कि उसे कैसे वापस लाया जाए। अपनी गंभीरता दिखाने के लिए सरकार ने काले धन की जांच के लिए विभिन्न कदम उठाए, जैसे सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी वाली एसआईटी का गठन, विदेशी धन विधेयक और आय घोषणा योजना (आईडीएस) शुरू की गई। इनमें से किसी ने भी काम नहीं किया, इसलिए एक बड़े धमाके की जरूरत थी और वह था विमुद्रीकरण। प्रधानमंत्री के भाषण में तीन लक्ष्य निर्धारित किए गए थे। काले धन को जड़ से खत्म करना, जाली नोटों का खात्मा और आतंकवाद के वित्तपोषण को समाप्त करना। ये सब प्रशंसनीय लक्ष्य थे, लेकिन विमुद्रीकरण का उनमें से किसी से कोई लेना-देना नहीं था। जैसा कि ऊपर बताया गया है, विमुद्रीकरण से न तो काला धन और न ही काली आय का सृजन प्रभावित हुआ। जालसाजी जारी है क्योंकि विदेशी तत्व इसमें शामिल हैं। आतंकवाद को विभिन्न माध्यमों से वित्तपोषित किया जाता है, जैसे हवाला, डॉलर का उपयोग, नशीली दवाओं की तस्करी आदि। इसलिए निर्धारित लक्ष्यों में से कोई भी लक्ष्य हासिल नहीं किया गया। कुछ लोगों की यह भी राय थी कि राजनीतिक कारणों से विमुद्रीकरण का आदेश दिया गया था। अर्थात, विशेष रूप से यूपी का चुनाव जीतना महत्वपूर्ण था।

यह सोचा गया था कि यदि विपक्ष अपने काले धन का ढेर खो देता है तो वह प्रभावी ढंग से प्रचार नहीं कर पाएगा। कुछ ही दिनों में सरकार को अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने 'गोल पोस्ट' या लक्ष्य ही बदल दिया। उसने तर्क दिया कि इस कदम से अर्थव्यवस्था 'कैशलेस' हो जाएगी। जब बताया गया कि कैशलेस व्यवस्था बनने में लंबा समय लगेगा तो अगले दिन लक्ष्य एक 'कम नकद वाली अर्थव्यवस्था' बन गया, लेकिन इसका भी काली अर्थव्यवस्था से कोई संबंध नहीं था। लोगों की पीड़ा के बावजूद सत्ताधारी पार्टी ने यूपी चुनाव जीता, क्योंकि बहुत से गरीबों ने यह विचार स्वीकार कर लिया कि भले ही उन्हें नुकसान हुआ हो, परंतु अमीरों ने भी अपने गलत तरीके से की गई जमाखोरी को खोया तो है। राजनीति ने अर्थशास्त्र को पछाड़ दिया। आर्थिक प्रभाव ः अर्थव्यवस्था के लिए नकद रक्त की तरह है जो शरीर के सभी अंगों को पोषक तत्वों की आपूर्ति करता है। नकद परिसंचरण लेन-देन को सक्षम बनाता है जो आय पैदा करने में मदद करता है। अगर 85 फीसदी खून शरीर से निकाल दिया जाए और हर हफ्ते सिर्फ 5 फीसदी ही बदले में दिया जाए तो शरीर मर जाएगा। इसी तरह जब प्रचलन में मुद्रा का 85 फीसदी निकाल दिया गया और लगभग एक वर्ष में थोड़ा-थोड़ा करके बदला गया तो अर्थव्यवस्था ढह गई। यदि कुछ ही दिनों के भीतर मुद्रा को बहाल कर दिया गया होता, तो नुकसान की भरपाई हो जाती। भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रमुख घटक असंगठित क्षेत्र है, जिसमें 94 फीसदी कार्यबल कार्यरत है। इसमें सूक्ष्म और लघु इकाइयां शामिल हैं जो बजाय औपचारिक बैंकिंग के, नकद के साथ काम करती हैं। जहां संगठित क्षेत्र मांग में कमी के कारण प्रभावित हुआ था, क्योंकि लोगों की आय कम हो गई थी, वहीं असंगठित क्षेत्र बिना नकदी के बिल्कुल ही काम नहीं कर सका। विमुद्रीकरण की अवधि से आगे जाने वाले दीर्घकालिक प्रभाव स्पष्ट हैं। बढ़ती बेरोजगारी और असमानताओं में वृद्धि के कारण मांग में गिरावट आई है। परिणामस्वरूप महामारी की मार के पहले से ही 2020 की आर्थिक मंदी पैदा हुई। विमुद्रीकरण एक अनुचित कदम था जिसने अपने किसी भी लक्ष्य को हासिल नहीं किया, यहां तक कि गोल पोस्ट को स्थानांतरित करने पर भी नहीं। विमुद्रीकरण देश के लिए एक नीति प्रेरित संकट लाया। -(सप्रेस)

अरुण कुमार
स्वतंत्र लेखक
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