संघवाद पर विमर्श

संघवाद पर एक नई बहस का आगाज़ हो सकता है और उसका सूत्रधार विपक्ष बन सकता है

Update: 2022-02-16 04:50 GMT
दिव्यहिमाचल.
संघवाद पर एक नई बहस का आगाज़ हो सकता है और उसका सूत्रधार विपक्ष बन सकता है। भारत राज्यों का एक संघ है, लेकिन सभी मिलकर एक 'राष्ट्र' को परिभाषित करते हैं। केंद्र के स्तर पर वित्त आयोग और अन्य व्यवस्थाएं हैं, जिनके जरिए राज्यों को उनकी हिस्सेदारी मुहैया कराई जाती है। आपात स्थितियों में मदद भी की जाती है। भारत में केंद्र और राज्य आपस में पूरक हैं और संघवाद जि़ंदा है। हमारे संवैधानिक पुरखों को सलाम है। ऐसा समन्वय होने के बावजूद कुछ आयोग बनाए जाते रहे हैं, ताकि संघीयता की भावना और क्रियान्वयन को पुख्ता किया जा सके। इस बार विपक्ष एक महत्त्वपूर्ण पहल करने जा रहा है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन दिल्ली में मिलने और संघवाद पर विमर्श करने की योजना बना रहे हैं। विपक्ष के और मुख्यमंत्री विमर्श में शामिल क्यों नहीं होंगे, यह स्पष्ट नहीं है। इस संवाद के बाद 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी महागठबंधन का भी प्रयास किया जाएगा, यह भी अभी साफ नहीं है। बहरहाल संघवाद पर विमर्श का यह एक अच्छा प्रयास है। आपसी मतभेद और राजनीति से ही विपक्ष के मुख्यमंत्री सशक्त और मजबूत नहीं हो सकते। अक्सर विपक्षी मुख्यमंत्री केंद्र सरकार पर आर्थिक सौतेलेपन का आरोप लगाते रहते हैं।
आर्थिक संसाधन ही केंद्र-राज्य के बीच सबसे पेचीदा और कथित पक्षपातपूर्ण मुद्दा रहा है। यही संघवाद नहीं है। वैश्विक महामारी कोरोना वायरस के आपद्काल के दौरान टीकाकरण अभियान, टीकों की खरीद और खाद्यान्न की सार्वजनिक वितरण प्रणाली संघवाद के श्रेष्ठ उदाहरण माने जा सकते हैं। हालांकि कोरोना टीकाकरण नेे बहुत लंबा सफर तय कर लिया है। भारत करीब 140 करोड़ की आबादी और 34 राज्यों, संघशासित क्षेत्रों का देश है। केंद्र सरकार ने अकेले ही कोरोना टीकों की खरीद की और राज्यों, केंद्रशासित क्षेत्रों को, उनकी जरूरत के मुताबिक, मुफ्त में ही टीके मुहैया कराए। यह संघवाद का मानवीय पक्ष भी कहा जा सकता है। हालांकि विपक्ष के राज्य केंद्र सरकार पर 'भेदभाव' और 'कम टीकों' के आरोप लगाते रहे। उन्होंने सियासत ज्यादा की। अंततः देश के नागरिकों में टीकाकरण किया गया और अब भी सिलसिला जारी है। आम नागरिक के लिए राशन भी केंद्र राज्य सरकारों को उपलब्ध कराता रहा है, जिसे राज्य सरकारें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए वितरित करती रही हैं। यह समन्वय भी मानवीय है, क्योंकि इसके जरिए औसत नागरिक को बेहद सस्ता राशन मिल जाता है। भारत सरकार की जीएसटी व्यवस्था में भी एक कार्यकारी परिषद होती है, जिसमें सभी राज्यों के वित्त मंत्री शामिल होते हैं। परिषद सर्वसम्मति से फैसले लेती है। ये सभी संघवाद के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। करों के रूप में जो पैसा केंद्र सरकार की एजेंसियां संग्रह करती हैं, वह भी राज्यों के अनुपात में बांटा जाता है। देर-सबेर हो सकती है, लेकिन केंद्र राज्य का हिस्सा मार नहीं सकता।
संघवाद के इस उजले पक्ष के अलावा उसे नकारने की कीमत क्या हो सकती है, यदि विपक्षी मुख्यमंत्री विस्तार और ईमानदारी से उसका खुलासा कर सकें, तो वह सकारात्मक भूमिका देशहित में होगी, लेकिन राज्य सरकारें केंद्र सरकार की कुछ महत्त्वपूर्ण, कल्याणकारी योजनाओं के प्रति भी असहमति जताती रही हैं। अंततः उसके दुष्प्रभाव आम नागरिक को ही झेलने पड़ते हैं। राज्य ऐसी राजनीति से उठकर भी सोचने का प्रयास करें। हाल ही में आईएएस और आईपीएस सरीखे अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारियों की नियुक्ति और तबादले के मुद्दे पर कुछ राज्यों ने ऐतराज जताया और इसे संघवाद के खिलाफ करार दिया। ऐसे मुद्दों पर भी कुछ ज्यादा संवेदनशील होना चाहिए और राजनीति को नेपथ्य में रखकर सोचना चाहिए। मुख्यमंत्री देश के प्रधानमंत्री से बात कर सकते हैं। दरअसल ऐसे शीर्ष अधिकारियों की अपेक्षाकृत काफी कमी है। संघ लोक सेवा आयोग को भी दखल देते हुए ऐसे अफसरों का चयन कुछ ज्यादा करना चाहिए। हाल ही में कृषि के तीन कानून काफी विवादास्पद रहे। अंततः उन्हें संसद के जरिए रद्द करना पड़ा। यदि उन्हें संघीय प्लेटफॉर्म पर विपक्ष के साथ विमर्श में लाया जाता, तो शायद किसान आंदोलन की नौबत न आती। कोरी राजनीति से अलग हट कर विमर्श होना चाहिए।
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