ऑक्सीजन की कमी से मौत: मौलिक सवाल और अधूरे जवाब

मौलिक सवाल और अधूरे जवाब

Update: 2021-07-27 14:55 GMT

शंकर अय्यर। अवास्तविकतावाद भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था का स्थायी तत्व है, जिसका अनुभव संसद के हर सत्र में किया जा सकता है। मानसून सत्र के पहले हफ्ते में इसकी एक अनूठी मिसाल सामने आई। सरकार ने संसद को सूचित किया कि 'राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा विशेष रूप से ऑक्सीजन की कमी के कारण किसी की मौत की सूचना नहीं मिली है।' भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में कल्पनाशील अवास्तविकतावाद का इस्तेमाल शासन को परेशान करने वाली कमियां दूर करने के लिए किया जाता है।

तकनीकी रूप से सही (आखिरकार केंद्र सरकार केवल वही बताती है, जो राज्य रिपोर्ट करते हैं) और राजनीतिक रूप से विनाशकारी अभिव्यक्ति उदासीनता और संवेदनहीनता को ही दर्शाती है। नौकरशाही के कामकाज का स्तर यह है कि उसने आंकड़ा और सूचना तथा इन्कार योग्य एवं इन्कार के बीच के अंतर को मिटा दिया है। क्या कुछ शब्द मदद के लिए गुहार लगाने वाले लोगों की तीन महीनों की परेशान छवियों को छिपा सकते हैं? तथ्य यह भी है कि उस दौरान सरकार के कम से कम छह मंत्रालय ऑक्सीजन की आपूर्ति के लिए हाथ-पांव मार रहे थे। केंद्र और राज्य सरकारें दुखी लोगों के दुख के कारणों की पुष्टि करने से इन्कार क्यों कर रही हैं?
मामला सिर्फ कोविड से हुई मौतों का नहीं है। अध्ययनों के मुताबिक, देश में हर साल वायु प्रदूषण से पांच लाख से ज्यादा लोगों की जान जाती है। विगत 23 जुलाई को सांसद रोडमल नागर ने वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों के बारे में लोकसभा में सवाल पूछा। सरकार का जवाब था, 'वायु प्रदूषण के कारण मृत्यु/बीमारी का सीधा संबंध स्थापित करने के लिए कोई निर्णायक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है', हालांकि सरकार ने 124 शहरों को सूचीबद्ध किया, जहां प्रदूषण ने लगातार पांच वर्षों तक स्वीकृत मानदंडों का उल्लंघन किया। वर्ष 1998 में भी सरकार से वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों के बारे में पूछा गया था। सरकार का जवाब था, 'वायु प्रदूषण और मौत के बीच सीधा संबंध स्थापित करने के लिए कोई निर्णायक आंकड़ा नहीं है।'
साफ है कि सरकारों का मानना है कि देश के नागरिक वायु प्रदूषण से सुरक्षित हैं। महामारी के दौरान हुई तबाही और संकट को देखते हुए सांसदों ने सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली की वस्तुस्थिति जानने की कोशिश की है। लोकसभा सांसद अरविंद कुमार शर्मा और आलोक कुमार सुमन ने ग्रामीण क्षेत्रों में डॉक्टरों की कमी और उस संबंध में उठाए जा रहे कदमों के बारे में पूछा। इसके जवाब में सरकार ने खुलासा किया कि डॉक्टरों, डेन्टिस्टों से लेकर नर्सिंग और पैरा मेडिकल स्टाफ तक के 90,000 से अधिक स्वीकृत पद खाली हैं। लेकिन यह आंकड़ा ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी मार्च, 2019 का है। इसलिए हमें नहीं पता कि वर्ष 2021 में क्या स्थिति है।
लोकसभा सदस्य टी एन प्रतापन और पांच अन्य ने 'देश के सरकारी अस्पतालों में बिस्तरों की कुल संख्या' के बारे में पूछा। इसका जवाब दिया गया, 'चूंकि स्वास्थ्य राज्य का विषय है, इसलिए मुख्य रूप से यह राज्य सरकारों/केंद्र शासित प्रदेशों की जिम्मेदारी है कि वे अपने अस्पतालों में जरूरतों और निधि की उपलब्धता के अनुसार बिस्तरों की संख्या बढ़ाने के प्रयास करें। इस संबंध में ऐसा कोई आंकड़ा केंद्रीय रूप से नहीं रखा जाता है।' मजे की बात यह है कि सरकार ने एक और सवाल का जवाब देते हुए खुलासा किया कि आइसोलेशन और आईसीयू बेड की क्षमता क्रमश: 18.21 लाख और 1.22 लाख थी! तो सरकार अस्पताल के बिस्तरों की संख्या क्यों नहीं जानती?
हाल ही में भारत ने ग्रामीण विद्युतीकरण का कार्य पूरा होने पर जश्न मनाया। सांसद भर्तृहरि महताब ने स्कूलों में विद्युतीकरण की स्थिति के बारे में पूछा जवाब था- 'एकीकृत जिला शिक्षा सूचना प्रणाली के अद्यतन संस्करण (2019-20) के मुताबिक, देश में 15,07,708 स्कूल हैं, जिनमें से 12,57,897 स्कूलों में बिजली है-देश भर के 2,49,811 स्कूलों में बिजली नहीं है।' शिक्षा केंद्रों में शत प्रतिशत विद्युतीकरण, प्रकाश की कमी और डिजिटल पढ़ाई की भव्य योजनाओं के बीच कोई कैसे सामंजस्य बिठा सकता है? जब आजीविका की बात आती है, तब बहाने और इन्कार की स्थिति और कठोर हो जाती है। सत्र के पहले ही दिन सांसदों ने सरकार से 'कोविड महामारी की दूसरी लहर के दौरान नौकरी से हटाए गए आकस्मिक/ठेका कर्मचारियों की संख्या' का ब्योरा देने के लिए कहा। सरकार द्वारा दिए गए लंबे जवाब में नई भर्तियों के लिए ईपीएफओ के माध्यम से आर्थिक सहायता से लेकर रिजर्व बैंक द्वारा विस्तारित कर्ज तक की पहल का जिक्र था, लेकिन रोजगार के नुकसान का कोई उल्लेख नहीं था। व्यवस्था में रोजगार के नुकसान को दर्ज करने के लिए कोई तंत्र ही नहीं है!
सूक्ष्म, लघु और मंझोले उद्योग (एमएसएमई) थोक में रोजगार देते हैं और उसकी अर्थव्यवस्था में 40 फीसदी जीवीए (सकल मूल्य वर्धन) की हिस्सेदारी है। सांसदों ने सरकार से उन एमएसएमई की संख्या का विवरण मांगा, जो बीमार या बंद हो गए और नौकरियों का नुकसान हुआ। इसके जवाब में सरकार ने कर्ज के विस्तार और पुनर्गठन के लिए रिजर्व बैंक द्वारा उठाए गए कदमों की सूची बताई, और यहां तक कि दो सर्वेक्षणों का हवाला भी दिया, जिनमें कहा गया था कि 88 प्रतिशत एमएसएमई महामारी से प्रभावित हुए थे। लेकिन इस जवाब से यह पता नहीं चला कि सरकार को इसकी जानकारी है कि कितने एमएसएमई प्रभावित हुए।
यह तब है, जब उद्योग आधार पोर्टल पर 102.32 लाख से अधिक एमएसएमई सूचीबद्ध हैं। विकास वह चीज है, जिसे आंकड़ों में मापा जा सकता है और जिसमें सुधार किया जा सकता है। कोई व्यवस्था या सिस्टम उस बुनियाद पर कैसे खड़ा रह सकता है, जिसमें महत्वपूर्ण सूचनाएं या तो मापी नहीं जातीं, या वे उपलब्ध नहीं है या फिर निराशाजनक रूप से पुरानी हैं? आंकड़ा और सूचना के बीच का अंतराल बहानों और अस्पष्टता को ही प्रोत्साहन देता है। क्या 21वीं सदी की एक आधुनिक अर्थव्यवस्था, जो डिजिटल अर्थव्यवस्था बनना चाहती है, आवंटन, परिणामों और जवाबदेही के बीच की व्यापक खाई को बर्दाश्त कर सकती है?

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