प्राणवायु का संकट
दिल्ली सहित ज्यादातर राज्यों के अस्पतालों में आॅक्सीजन की भारी किल्लत अभी भी बनी हुई है।
दिल्ली सहित ज्यादातर राज्यों के अस्पतालों में आॅक्सीजन की भारी किल्लत अभी भी बनी हुई है। मौतों का सिलसिला बढ़ता जा रहा है। दिल्ली के जयपुर गोल्डन अस्पताल में आॅक्सीजन की कमी से बीस मरीजों ने दम तोड़ दिया। इससे पहले सर गंगाराम में अस्पताल में पच्चीस मरीजों की मौत हो गई थी। दूसरे राज्यों में भी हालात ऐसे ही हैं।
आॅक्सीजन नहीं मिल पाने से अस्पताल मरीजों को भर्ती नहीं कर रहे हैं। कई अस्पताल अपने यहां बिस्तरों की संख्या इसीलिए कम करते जा रहे हैं क्योंकि आॅक्सीजन नहीं है। निजी अस्पताल रो-रो कर बता रहे हैं कि उनके यहां विकट हालात हैं। भर्ती मरीजों की जान सांसत में है। ऐसे में एक सवाल यह भी है कि जब अस्पताल मरीजों को भर्ती ही नहीं करेंगे तो लोग जाएंगे कहां? इतनी भयंकर अराजकता देश ने कभी देखी हो, याद नहीं पड़ता। हालात बता रहे हैं कि सरकारें पूरी तरह से लाचार हो चुकी हैं और लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया है।
ऐसे में जरूरत है कि अस्पतालों को जहां से, जैसे भी और जिस कीमत पर आॅक्सीजन उपलब्ध कराई जा सके, करवाई जाए। आॅक्सीजन मुहैया कराने के लिए स्थानीय स्तर पर फौरन कोशिश होती तो अस्पताल एक-एक घंटे की आॅक्सीजन पर नहीं चल रहे होते। हालत यह है कि फिलहाल जितनी भी आॅक्सीजन जहां पहुंच रही है, वह सैंकड़ो किलोमीटर दूर से ही रेल और टैंकरों के जरिए आ रही है।
जिन राज्यों में आॅक्सीजन संयंत्र कम हैं, वहां यह संकट ज्यादा गहरा है। कहने को केंद्र ने पिछले दिनों आॅक्सीजन के उत्पादन, आपूर्ति और क्रायोजनिक टैंकरों के आयात के लिए नीतिगत कदम उठाए हैं। लेकिन इनका असर दिखने में तो अभी बहुत समय लग जाएगा। तब तक हालत और भयावह हो जाएंगे। अगर अस्पताल अपने स्तर पर आॅक्सीजन का बंदोबस्त नहीं कर पाए, जैसा कि हो भी रहा है, तो हर पल मरीज दम तोड़ते रहेंगे।
आज के हालात के लिए ज्यादा जिम्मेदार वह शासन तंत्र है जिसे जनता ने बड़ी उम्मीदों के साथ जिम्मेदारी सौंपी थी। इस वक्त हालत यह है कि लोग संक्रमण से कम, व्यवस्था की खामियों और लापरवाही से ज्यादा मर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि केंद्र और राज्य इस हकीकत से अनजान रहे होंगे कि आने वाले वक्त में देश को कितनी आॅक्सीजन की जरूरत पड़ेगी।
पिछले साल संसद की स्थायी समिति ने आॅक्सीजन और बिस्तरों की संख्या बढ़ाने की जरूरत बताई थी। इसके बाद केंद्र सरकार ने अस्पतालों में आॅक्सीजन संयंत्र लगाने की योजना को हरी झंडी दी थी। पर दिल्ली जैसे महानगर में ही कितने अस्पतालों में ये संयंत्र लग पाए होंगे, इसका अनुमान मौजूदा अफरातफरी से लगा सकते हैं।
जाहिर है, योजनाएं तो बनती हैं, लेकिन सिर्फ कागजों में। क्या इस बात की जांच नहीं होनी चाहिए कि आखिर आॅक्सीजन संयंत्र नहीं लग पाने के लिए जिम्मेदार कौन है? आज सरकारें अदालतों में जाकर आपस में उलझ रही हैं। एक दूसरे पर ठीकरे फोड़ रही हैं।
अदालतों में बताया जा रहा है कि आॅक्सीजन संयंत्र लगाने और अस्पतालों को आॅक्सीजन पहुंचाने की जिम्मेदारी किसकी है और कौन नाकाम रहा। क्या यह वक्त आॅक्सीजन का कोटा तय करने का है? आॅक्सीजन आवंटन की केंद्रीय नीतियों के बारे में अब नए सिरे से सोचने की जरूरत है। कोटा व्यवस्था से काम नहीं चलने वाला। और वैसे भी कम से कम जीवन का तो कोई कोटा तय नहीं हो सकता। वरना लोग सिर्फ इसलिए मरते रहेंगे कि सरकार पर्याप्त आॅक्सीजन का बंदोबस्त कर पाने में नाकाम रही।