पुण्यतिथि: रमन ने भारत को दिलाई विज्ञान की दुनिया में एक अलहदा पहचान!

भारत को दिलाई विज्ञान की दुनिया में एक अलहदा पहचान

Update: 2021-11-21 11:55 GMT
सन् 1903 की बात है. मद्रास के प्रतिष्ठित प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रोफेसर ई. एच. एलियट बी.ए. के विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे, तभी उनकी नज़र 13-14 साल के एक बच्चे पर पड़ी. प्रो. एलियट ने सोचा यह बालक गलती से इस कक्षा में आ गया है. प्रोफेसर ने उससे पूछा, 'क्या तुम इसी कक्षा के विद्यार्थी हो?' जब बच्चे ने हां में जवाब दिया तो प्रोफेसर के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. कुछ समय बाद ही प्रोफेसर एलियट को पता चला कि यह बच्चा उम्र में भले ही छोटा है, मगर अक्ल में सबसे बड़ा है. इसी बालक ने आगे चलकर हमारे देश को विज्ञान के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलवाने में बेहद अहम भूमिका निभाई.
दरअसल, हम बात कर रहे हैं सर चंद्रशेखर वेंकट रमन की, जोकि एकमात्र ऐसे भारतीय वैज्ञानिक हैं, जिन्हें भारत में किए गए शोधकार्य के लिए दुनिया का सर्वोच्च नोबेल सम्मान मिला है. आज दुनिया भर की बड़ी-बड़ी विज्ञान प्रयोगशालाओं में परिष्कृत उपकरणों (sophisticated equipment) और अंधाधुंध पूंजी निवेश का बड़ा बोलबाला है, निश्चित रूप से उपकरण और आर्थिक अनुदान जरूरी हैं, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अभी भी दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण इंसान का दिमाग है.
इस बात की गवाही हमें सीवी रमन के जीवन से मिलती है. रमन ने बेहद सीमित संसाधनों और महज डेढ़-दो सौ रुपयों के स्वदेशी उपकरणों के जरिए 'रमन प्रभाव' की खोज की. रमन ने कहा भी था, 'विज्ञान का अस्तित्व महंगे उपकरणों में नहीं, बल्कि स्वतंत्र चिंतन और कठोर परिश्रम में है.' आज सीवी रमन की पुण्यतिथि (Death anniversary) है. आइए, विज्ञान जगत के इस दैदीप्यमान नक्षत्र (shining star) के व्यक्तिव और कृतित्व पर संक्षेप में चर्चा करते हैं, जिससे हमें स्वदेशी विज्ञान की उत्कृष्टता का संदेश और प्रेरणा मिल सकती है.
पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं
रमन का जन्म 7 नवम्बर, 1888 में तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली जिले के एक छोटे से गांव थिरुवनैक्कवल में हुआ था. उनके पिता का नाम चन्द्रशेखर अय्यर और उनकी माता का नाम पार्वती अम्मल था. चन्द्रशेखर अय्यर भौतिकी और गणित के बेहद विद्वान अध्यापक माने जाते थे. अय्यर ने विज्ञान और गणित पर कई उच्चस्तरीय किताबें इकट्ठी की हुई थीं, जिनका वे नियमित अध्ययन करते थे. इस विज्ञानमय माहौल का रमन के जीवन पर काफी प्रभाव पड़ा.
रमन की शुरुआती पढ़ाई-लिखाई विशाखापट्नम में हुई. वह पढ़ाई में बहुत होनहार थे. अचरज की बात है कि उन्होंने महज ग्यारह साल की उम्र में ही दसवीं की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास कर ली थी. इतनी कम उम्र में दसवीं की परीक्षा पास करने वाले रमन भारत के पहले छात्र थे. सन् 1901 में इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया. उस समय उनकी उम्र सिर्फ 13 साल थी.
सन् 1904 में प्रेसीडेंसी कॉलेज से स्नातक (बी.ए.) की डिग्री हासिल करने के बाद उन्होंने आगे उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड जाने का निर्णय किया. लेकिन स्वास्थ्य की दृष्टि से अयोग्य करार दिए जाने पर वे इंग्लैंड न जा सके. इसलिए उन्होनें प्रेसीडेंसी कॉलेज में ही दोबारा दाखिला लेने के बाद सन् 1907 में भौतिकी में एम.ए. की डिग्री प्राप्त की.
चूंकि, उच्च अध्ययन के लिए रमन इंग्लैंड नही जा सकते थे, इसलिए वह ऑल इंडिया एकाउंट्स सर्विस परीक्षा में बैठे और उसमें भी प्रथम स्थान प्राप्त किया. सिर्फ 19 साल की उम्र में ही असिस्टेंट एकाउंटेंट जनरल के पद पर वित्त विभाग, कलकत्ता में नियुक्ति पाई. इसी साल (नियुक्ति से पहले) श्रीकृष्ण अय्यर की पुत्री लोकसुन्दरी अम्मल से उनका विवाह भी हो गया.
विज्ञान की सेवा के लिए छोड़ दी बड़ी सरकारी नौकरी
रमन के जीवन के उस कालखंड को देखा जाए तो ऐसा लगने लगता है कि रमन एकाउंट्स सर्विस की नौकरी से संतुष्‍ट हो गए थे और विज्ञान की दुनिया से दूर हो गए थे. मगर ऐसा नहीं हुआ नौकरी करते हुए भी उनकी रूचि विज्ञान और गणित में बनी रही. असलियत में उनका मन एकाउंट्स डिपार्टमेंट की नौकरी में बिलकुल भी नहीं लगता था.
एक दिन रमन कार्यालय से घर लौट रहे थे तभी संयोग से उनकी निगाह एक संस्था के साइन बोर्ड पर पड़ी, जिस पर लिखा था- 'इंडियन एसोसिएशन फॉर कल्टीवेशन आफ़ साइंस'. तभी वे ट्राम से उतरकर सीधे उस संस्था में जा पहुंचे. उस संस्था की स्थापना महेंद्रलाल सरकार ने की थी और उसकी देखरेख आशुतोष डे करते थे.
पहली ही मुलाकात में अमृतलाल (महेंद्रलाल सरकार के पुत्र और संस्था के सचिव) ने रमन की वैज्ञानिक प्रतिभा को समझ लिया और भारतीय विज्ञान को प्रोत्साहित करने वाली इस संस्था में उनका स्वागत किया तथा प्रयोगशाला में कार्य करने की इजाजत भी दे दी. उसके बाद रमन ने इसी प्रयोगशाला में भौतिकी के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण अनुसंधान कार्य किए.
भौतिकी के क्षेत्र में रमन के उच्च कोटि के कार्यो से प्रभावित होकर कलकत्ता विश्वविद्यालय के तत्कालीन उपकुलपति सर आशुतोष मुखर्जी ने उन्हें भौतिकी के अध्यापक के रूप में पढ़ाने का प्रस्ताव रखा. रमन ने इस प्रस्ताव को तुरंत मंजूर कर लिया. अगले ही दिन लगी-लगाई वित्त विभाग की सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और विज्ञान की सेवा के लिए कलकत्ता विश्वविद्यालय में पढ़ाने लगे.
चूंकि, यह कार्य विज्ञान से संबंधित था, इसलिए उन्हें इस काम से अपार संतुष्टि मिली. उनकी पढ़ाने की शैली बहुत अच्छी थी. उनके दिमाग में गज़ब की चुस्ती थी. एक ओर जहां वे पूरी तल्लीनता से छात्रों को पढ़ाते तो वहीं दूसरी ओर पूरी तल्लीनता से वाद्ययंत्रों, क्रिस्टलों, एक्स-रे, प्रकाश, विद्युतचुम्बकत्व (electromagnetism) आदि पर महत्वपूर्ण शोधकार्य करते रहते थे.
उन्होंने अपनें प्रयोगों के लिए कई उपकरणों का निर्माण स्वयं किया और अनुसंधान के लिए विश्वविद्यालय में विज्ञानमय माहौल भी निर्मित किया.
आकाश और सागर का रंग नीला क्यों दिखाई देता है?
सन् 1921 में रमन को ऑक्सफोर्ड, इंग्लैंड से यूनिवर्सिटीज कांग्रेस में भाग लेने के लिए निमंत्रण प्राप्त हुआ. वहां उनकी मुलकात लार्ड रदरफोर्ड, जे. जे. थामसन जैसे प्रसिद्ध वैज्ञानिकों से हुई. जब रमन वापस पानी के जहाज से भारत लौट रहे थे, तब रास्ते-भर वह भूमध्यसागर के नीलेपन को निहारते रहे. उन्हें सागर के नीले रंग के बारे में जानने की जिज्ञासा हुई.
उनके वैज्ञानिक मस्तिष्क में कई प्रश्न कोलाहल मचाने लगे. वह सोचने लगे- सागर का रंग नीला क्यों है? कोई और रंग क्यों नहीं? कहीं सागर आकाश के प्रतिबिंब के कारण तो नहीं नीला प्रतीत हो रहा है? समुद्री यात्रा के दौरान ही उन्होने सोचा कि शायद सूर्य का प्रकाश जब जल में प्रवेश करता है तो वह नीला हो जाता है.
मशहूर वैज्ञानिक लॉर्ड रैले (Lord Raleigh) की मान्यता थी कि सूर्य की किरणें जब वायुमंडल में मौजूद नाइट्रोजन और ऑक्सीजन के अणुओं से टकराती हैं तो प्रकाश चारों ओर फैल जाता है और आकाश का रंग नीला दिखाई देता है, इसे रैले के सम्मान में 'रैले प्रकीर्णन' (Raleigh scattering) के नाम से जाना जाता है.
उस समय तक लॉर्ड रैले ने यह भी साबित कर दिया था कि सागर का नीलापन आकाश के प्रतिबिंब की वजह से ही है. उनके मुताबिक सागर का अपना कोई रंग नहीं होता. मगर रमन रैले के इस स्पष्टीकरण से संतुष्ट नहीं थे.
सागर के नीलेपन की असल वजह जानने के लिए रमन जहाज के डैक पर अपना उपकरण 'स्पेक्ट्रोमीटर' ले आए. और प्रयोगों में मग्न हो गए. वह अपने प्रयोगों से इस नतीजे पर पहुंचें कि सागर का नीलापन उसके भीतर ही है, मतलब यह नीलापन आकाश के प्रतिबिंब के कारण नहीं, बल्कि जल के रंग के कारण है! इसका अर्थ यह था कि स्वयं सागर का रंग नीला है और यह नीलापन पानी के अंदर से ही पैदा होता है.
बाद में, रमन इस परिणाम पर पहुंचे कि जल के अणुओं द्वारा प्रकाश के प्रकीर्णन (scattering of light) के फलस्वरूप सागरों और ग्लेशियर्स का रंग नीला दिखाई देता है. उन्होने गहन अध्ययन के बाद यह भी बताया कि आम तौर पर आसमान का रंग नीला इसलिए दिखाई देता है क्योंकि सूर्य के प्रकाश में मौजूद नीले रंग के प्रकाश के तरंगदैर्ध्य (wavelength) का प्रकाश ज्यादा प्रकीर्ण (scattered) होता है.
दरअसल, किसी रंग का प्रकीर्णन उसकी तरंगदैर्ध्य पर निर्भर करता है. जिस रंग के प्रकाश का तरंगदैर्ध्य सबसे कम होता है, उस रंग का प्रकीर्णन सबसे ज्यादा होता है तथा जिस रंग के प्रकाश का तरंगदैर्ध्य सबसे ज्यादा होता है, उस रंग का प्रकीर्णन सबसे कम होता है. लाल रंग के प्रकाश का प्रकीर्णन सबसे कम होता है, जबकि बैंगनी रंग का प्रकाश सबसे ज्यादा प्रकीर्ण होता है.
आप सोच रहे होंगें कि इस हिसाब से तो आकाश का रंग बैंगनी दिखाई देना चाहिए, फिर यह नीला क्यों दिखाई देता है? दरअसल, हमारी आँखें बैंगनी रंग की अपेक्षा नीले रंग के लिए ज्यादा संवेदनशील (sensitive) होती हैं. इसलिए प्रकीर्णित प्रकाश का मिलाजुला रंग हल्का नीला दिखाई देता है.
कलकत्ता वापसी और रमन प्रभाव की खोज
रमन रास्ते-भर सागर के नीले रंग और सूर्य के बीच के संबंध पर प्रयोग और अध्ययन करते रहे. कलकत्ता विश्वविद्यालय पहुँचकर रमन ने अपने सहयोगी डॉ. के. एस. कृष्णन के साथ मिलकर जल तथा बर्फ के ट्रांसपेरेंट ब्लॉक्स और अन्य चीजों के ऊपर प्रकाश के प्रकीर्णन पर अनेक प्रयोग किए. तमाम प्रयोगों के बाद रमन अपनी उस खोज पर पहुँचे, जो आज 'रमन प्रभाव' के नाम से विश्वप्रसिद्ध है.
रमन प्रभाव के मुताबिक जब एकरंगी (monochromatic) प्रकाश को विभिन्न रसायनिक द्रवों (liquids) से गुजारा जाता है, तब प्रकाश के एक सूक्ष्म भाग का तरंगदैर्ध्य मूल प्रकाश के तरंगदैर्ध्य से अलग होता है. तरंगदैर्ध्य में यह असमानता ऊर्जा के आदान-प्रदान की वजह से होती है. जब ऊर्जा में कमी होती है तब तरंगदैर्ध्य ज्यादा हो जाता है तथा जब ऊर्जा में बढोत्तरी होती है तब तरंगदैर्ध्य कम हो जाता है.
यह ऊर्जा हमेशा एक निश्चित मात्रा में कम-ज्यादा होती रहती है और इसी वजह से तरंगदैर्ध्य में भी परिवर्तन हमेशा निश्चित मात्रा में होता है. दरअसल, प्रकाश की किरणें असंख्य सूक्ष्म कणों से मिलकर बनी होती हैं, इन कणों को 'फोटोन' कहा जाता है. वैसे हम जानतें हैं कि प्रकाश की दोहरी प्रकृति है यह तरंगों की तरह भी व्यवहार करता है और कणों (फोटोनों) की भी तरह. रमन प्रभाव ने फोटोनों के ऊर्जा की आंतरिक परमाण्विक संरचना (internal atomic structure) को समझने में खासा मदद की है.
किसी भी पारदर्शी द्रव (transparent liquid) में एकरंगी प्रकाश को गुजारकर 'रमन स्पेक्ट्रम' प्राप्त किया जा सकता है. प्रत्येक पारदर्शी द्रव को स्पेक्ट्रोग्राफ में प्रवेशित करने के बाद वैज्ञानिकों को यह पता चला है कि किसी भी द्रव का रमन स्पेक्ट्रम विशिष्ट होता है, यानी किसी अन्य द्रव का स्पेक्ट्रम वैसा नहीं होता है. इसके जरिए हम किसी भी पदार्थ की आंतरिक संरचना के बारे में भी जान सकते हैं. उन दिनों भौतिकी में यह एक विस्मयकारी खोज थी.
रमन की इस खोज ने प्रकाश विज्ञान (Optics) के क्षेत्र में बेहद क्रांतिकारी परिवर्तन लाया. रमन प्रभाव आज रसायनों से लेकर गैसों तक अनेक पदार्थों की संरचना के अध्ययन का एक महत्वपूर्ण साधन है. आज उनकी इस खोज का इस्तेमाल न सिर्फ प्रयोगशाला में अनुसंधान के लिए किया जा रहा है, बल्कि चंद्रमा के सैंपल्स के अध्ययन से लेकर कैंसरकारी ट्यूमर तक का पता लगाने में भी किया जा रहा है.
रमन प्रभाव की खोज के बाद लगी मान-सम्मानों की झड़ी
रमन ने 28 फरवरी, 1928 को रमन प्रभाव के खोज की आम घोषणा की थी. इसलिए इस महत्वपूर्ण खोज की याद में हर साल यह दिन 'राष्ट्रीय विज्ञान दिवस' के रूप में मनाया जाता है. देश-विदेश में रमन के इस खोज को न सिर्फ खूब सराहा गया बल्कि उनके सामने पदों और पुरस्कारों की झड़ी-सी लग गई. उन्हें रॉयल सोसायटी, लंदन की फैलोशिप मिली. 1929 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 'नाइटहुड' (सर) की उपाधि दी. 1952 में उनके पास भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति बनने का निमंत्रण आया.
इस पद के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों ने उनके नाम का ही समर्थन किया था. इसलिए रमन को निर्विवाद उपराष्ट्रपति चुना जाना पूरी तरह तय था, मगर रमन में बिलकुल भी पद की चाह नहीं थी और साथ-ही-साथ उनकी राजनीति में तनिक भी रुचि नहीं थी. लिहाजा रमन ने उपराष्ट्रपति बनने के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया. 1954 में सरकार ने उन्हें अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किया.
यह तो सभी जानते हैं कि रमन नोबेल पुरस्कार पाने वाले पहले और इकलौते भारतीय वैज्ञानिक हैं, इसके साथ-साथ रमन पहले ऐसे एशियाई और अश्वेत वैज्ञानिक भी थे, जिन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. सदियों तक विदेशी शक्ति द्वारा शासन किए जाने के बाद इस अन्तर्राष्ट्रीय गौरव से भारतीय वैज्ञानिक समाज का आत्म-सम्मान बुलंद हुआ. एक भारतीय वैज्ञानिक को, जिसने सारा अनुसंधान भारत में ही रहकर किया हो, उसे दुनिया का सबसे बड़ा सम्मान मिलना सच में बेहद गर्व की बात थी.
रमन स्वीडन के स्टॉकहोम में नोबेल पुरस्कार लेने गए थे. किंग गुस्टाफ ने जब नोबल पुरस्कार के लिए उनके नाम का ऐलान किया तो रमन विनम्रता की भावना से अभिभूत हो उठे. उन्होने अचानक ब्रिटिश राष्ट्र ध्वज को लहराते हुए देखा. उनकी आँखें आंसुओं से भर गईं और वे सोचने लगे, 'मैं नोबल पुरस्कार पाने वाला भारत का ऐसा नागरिक हूँ, जो ब्रिटेन का गुलाम है.'
रमन ने ताउम्र अपने वैज्ञानिक अनुसंधानों को जारी रखा. आज ही के दिन 1970 में रमन की मृत्यु हुई. आज रमन हमारे बीच भले न हों लेकिन उनका नाम विज्ञान के इतिहास में सदैव एक निर्भीक और देशभक्त वैज्ञानिक के रूप में अमर रहेगा. अस्तु!



(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
 
प्रदीप, तकनीक विशेषज्ञ
उत्तर प्रदेश के एक सुदूर गांव खलीलपट्टी, जिला-बस्ती में 19 फरवरी 1997 में जन्मे प्रदीप एक साइन्स ब्लॉगर और विज्ञान लेखक हैं. वे विगत लगभग 7 वर्षों से विज्ञान के विविध विषयों पर देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिख रहे हैं. इनके लगभग 100 लेख प्रकाशित हो चुके हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक तक की शिक्षा प्राप्त की है.
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