डियर मलिष्का, इस देश की लड़कियां नीरज चोपड़ा की प्रेमिका नहीं, खुद नीरज चोपड़ा बनना चाहती हैं
इस देश की लड़कियां नीरज चोपड़ा की प्रेमिका नहीं, खुद नीरज चोपड़ा बनना चाहती हैं
मनीषा पांडेय।
सोशल मीडिया पर आपने वो वीडियो देखा होगा, जिसमें आरजे मलिष्का को अपनी महिला सहकर्मियों के साथ नीरज चोपड़ा के लिए डांस कर रही हैं. जूम पर एक ऑनलाइन इंटरव्यू के दौरान लैपटॉप के सामने तीन-चार लड़कियां नाच रही हैं और बैकग्राउंड में गाना बज रहा है- "उड़े जब-जब जुल्फें तेरी कंवारियों का दिल मचले." सामने स्क्रीन पर नीरज चोपड़ा मंद-मंद मुस्कुराते हुए लड़कियों को नाचते देख रहे हैं. हालांकि उनके चेहरे पर हल्की सी असहजता भी दिख रही है.
अगर इस सवाल को एक बार के लिए दरकिनार कर दें कि क्या इस तरह नीरज चोपड़ा को ऑब्जेक्ट ऑफ डिजायर बनाकर उनके दिल अपना मचलवाने वाली कंवारी लड़कियां उन्हें असहज कर रही हैं तो भी इस तरह डांस करके ये लड़कियां आखिर साबित क्या करना चाह रही हैं. मैं ये मानकर चल रही हूं नीरज इससे असहज नहीं होंगे और न ही उन्हें अजीब महसूस हुआ होगा. इसलिए इस नजरिए से मुद्दे को देखते ही नहीं हैं.
ये देखने की कोशिश करते हैं कि ओलिंपिक में भारत के लिए पहला गोल्ड मेडल जीतकर आए नीरज चोपड़ा की उपलब्धि का इस तरह जश्न मनाने के गहरे निहितार्थ क्या हैं? कोई बड़ी उपलब्धि, जीत और मुकाम हासिल करने वाले मर्द के इर्द-गिर्द लड़कियों के इस तरह इतराने के गहरे निहितार्थ क्या हैं? मर्दों की सफलता पर लड़कियों का दिल मचलने लगे तो इसके गहरे निहितार्थ क्या हैं?
मुझे पता नहीं कि आर.जे. मलिष्का फेमिनिस्ट हैं या नहीं या स्त्रीवादी नजरिए से समाज को देखती हैं या नहीं, लेकिन एक बात तो तय है कि वह खुद एक सफल प्रोफेशनल हैं. अपने काम में सफलता और ऊंचा मकाम हासिल किया है. दुनिया में अपनी पहचान बनाई है. जाहिरन वो उन संघर्षों और बाहर की दुनिया के मर्दवादी चरित्र से वाकिफ होंगी, जो हजार उपलब्धियां हासिल कर लेने के बाद भी औरत को ऑब्जेक्टीफाई करने से नहीं चूकता. शरीर से ऊपर उठकर उसे एक दिल-दिमाग और बुद्धि वाले मनुष्य के रूप में नहीं देख पाता.
नीरज चोपड़ा और आरजे मलिष्का. फोटो उनके ट्विटर हैंडल से साभार.
ओलिंपिक से ढेर सारे मैडल लेकर तो लड़कियां भी लौटी हैं. अब फर्ज करिए कि ऐसे ही एक सफल अचीवर स्त्री के चारों ओर पुरुष घेरा बनाकर नाचें और यह कहें कि उसके लिए इन मर्दों का कंवारा दिल मचलता है तो यह सुनकर उस स्त्री को कैसा महसूस होगा. ऐसा नहीं लगेगा कि उसे ऑब्जेक्टीफाई किया जा रहा है. अगर एक औरत को ऑब्जेक्टीफाई करना, उसे एक ऑब्जेक्ट ऑफ डिजायर की तरह देखना गलत है तो एक पुरुष को इस तरह देखना सही कैसे हो सकता है.
अगर एक बार को हम ये तर्क मान भी लें कि किसी स्त्री के गिर्द पुरुषों के इस तरह नाचने के मायने अलग होंगे क्योंकि उसके पीछे असमानता का लंबा इतिहास और सामाजिक-सांस्कृतिक कारण है तो शायद असमानता के उस इतिहास और सामाजिक-सांस्कृतिक कारणों की वजह से ही लड़कियों का एक अचीवर के सामने इस तरह इतरा-इतराकर नाचना न सिर्फ औरतों के वजूद को कमतर करता है, बल्कि सैकड़ों सालों से चले आ रहे उसी पितृसत्ता के विचार को मजबूत करता है, जो मानती है कि संपदा, ताकत और उपलब्धियां पुरुषों की बपौती हैं और औरतों का काम सिर्फ मर्दों को रिझाना है. औरत की सबसे बड़ी ताकत उसका दैहिक आकर्षण और सेक्स अपील है और उसका इस्तेमाल करके वो सबसे सफल और ताकतवर पुरुष को चुनती है. वही डार्विन का विकासवाद का सिद्धांत.
लेकिन पिछले सौ सालों में दुनिया बहुत तेजी के साथ बदली है. पूरी दुनिया में फेमिनिस्ट मूवमेंट ने उस ऐतिहासिक और सिस्टमैटिक भेदभाव को परखा है और उसके खिलाफ आवाज उठाई है. औरतों ने पुराने मर्दवादी पूर्वाग्रहों और नियमों को चुनौती दी है और सत्ताओं और सरकारों को इस बात के लिए मजबूर किया है कि वो अपने संविधान और कानून में जेंडर बराबरी को हासिल करने का लक्ष्य रखें. लड़कियों के जीवन का मकसद अब सज-संवरकर इतराना और सफल, ताकतवर मर्दों को रिझाना नहीं है. अब वो खुद सफल और ताकतवर हो रही हैं. वो हर उस चीज में मर्दों से अपने लिए बराबर का हिस्सा मांग रही हैं, जिससे उन्हें सैकड़ों सालों तक वंचित रखा गया.
आज हर आत्मनिर्भर और आत्मसम्मान वाली लड़की, जो मानती है कि वो सिर्फ शरीर नहीं है, जो घर से बाहर निकलकर नौकरी करने जा रही है, अपना पैसा कमा रही है, अपना बिल खुद भर रही है, वो चाहती है कि पुरुष उसे सिर्फ एक शरीर और ऑब्जेक्ट ऑफ डिजायर की तरह न देखें. वो उसकी छातियां को नहीं, बल्कि आंखों में देखकर बात करें. उसका स्त्री होना उसकी मानवीय उपलब्धियों के रास्ते में दीवार न बने और न ही समाज और दफ्तर के मर्द उसे दीवार की तरह देखें.
और इस सारी रौशनी में आर.जे. मलिष्का और उनकी सहकर्मी महिलाओं का डांस उसी मर्दवादी नरेटिव को मजबूत करने की कोशिश है, जिसके खिलाफ हमारी लड़ाई है. उन लड़कियों का इस तरह इतराकर एक सफल गोल्डन बॉय के सामने नाचना दरअसल हर उस लड़की की लड़ाई को कमजोर करता है, जो लगातार सिर्फ इस बात के लिए संघर्ष कर रही है कि शरीर से ऊपर उठकर वो एक मनुष्य बन सके.
सफलता मर्दों की बपौती नहीं है. गोल्ड मेडल पर उनका एकाधिकार नहीं है. हर बार जरा सा भी मौका मिलने पर लड़कियों ने इस बात को साबित भी किया है. इस साल के टोक्यो ओलिंपिक में भी. इसलिए जब मलिष्का नीरज चोपड़ा का इंटरव्यू लेने जा रही थीं तो उनके सामने इतराने, नाचने, उनकी जुल्फों पर न्यौछावर होने और उन्हें गले लगाने के अरमान व्यक्त करने की बजाय मलिष्का को उनसे गंभीर और ठोस सवाल पूछने चाहिए थे. खुद उनके सामने बिछने के बजाय अपना आत्मसम्मान और बराबरी सुरक्षित रखनी चाहिए थी और नीरज से सवाल पूछना चाहिए था कि ओलिंपिक से मैडल लेकर लौटी बाकी महिला एथलीटों के बारे में वो क्या सोचते हैं.
मलिष्का को पूरे देश की लड़कियों की तरफ से नीरज चोपड़ा को ऑनलाइन गले लगाने की बजाय पूरे देश की लड़कियों की तरफ से नीरज से सवाल पूछने चाहिए थे. सच तो ये है कि पूरे देश की लड़कियां नीरज की जुल्फों पर न्यौछावर नहीं हैं. देश की बहुसंख्यक लड़कियां खुद नीरज की तरह मकाम हासिल करना चाहती हैं. वो खुद वो उपलब्धियां पाना चाहती हैं, सफल होना चाहती हैं, स्कूल जाना चाहती हैं, अपनी मर्जी से शादी करने और शादी न करने का अधिकार चाहती हैं. वो मर्दों की नजर में ऑब्जेक्ट ऑफ डिजायर नहीं होना चाहतीं. वो आजादी और बराबरी चाहती हैं.
आरजे मलिष्का जैसी सफल स्त्रियों की जिम्मेदारी सिर्फ अपनी जिंदगी में सफलता और आजादी हासिल कर लेना नहीं है, उनकी जिम्मेदारी ये भी है कि वो वैसे ही सपनों और अरमानों से भरी लड़कियों की आवाज बनें. और ऐसा करने के बजाय उन्होंने उन सारी लड़कियों को शर्मिंदा किया है और उनकी लड़ाई को कमजोर किया है, जो इस दुनिया में नीरज चोपड़ा की प्रेमिका नहीं, बल्कि खुद नीरज चोपड़ा बनने के लिए लड़ रही हैं.