भारत की फौजों ने तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में वहां की आम जनता के नागरिक अधिकारों का सम्मान करते हुए और उनके मानवीय हकों को संरक्षण देने के लिए बंगलादेश की मुक्ति वाहिनी के साथ यह लड़ाई लड़ी थी और पाकिस्तान की नामुराद फौजों के चंगुल से उन्हें छुड़ा कर एक नये स्वतन्त्र देश की सत्ता उन्हें सौंप दी थी। बंगलादेश में आज के दिन को 'विजय दिवस' के रूप में इसीलिए मनाया जाता है कि वहां की जनता ने इसी दिन पाकिस्तान के निर्माता मुहम्मद अली जिन्ना के धार्मिक आधार पर भारत से किये गये बंटवारे के दस्तावेजों को कब्र में गाड़ दिया था।
बंगलादेश का वजूद में आना इसलिए भी महत्वपूर्ण था क्योंकि इस देश के लोग अपनी सांस्कृतिक व भाषायी पहचान के लिए इस्लामी देश पाकिस्तान के हुक्मरानों से लड़ रहे थे। यह जिन्ना के धार्मिक आधार पर बनाये गये पाकिस्तान की संरचना के सिद्धान्त के विरुद्ध बंगाली अस्मिता का जयघोष था। इस बंगाली संस्कृति पर धर्म का मुलम्मा चढ़ा कर ही जिन्ना ने 1947 में पश्चिम व पूर्वी पाकिस्तान प्राप्त किये थे। बंगलादेश का उदय भारतीय उपमहाद्वीप की वैविध्यपूर्ण सांस्कृतिक पहचान का घोषणा पत्र था जिसे इसके अस्तित्व में आने पर इसके राष्ट्रपिता कहे जाने वाले शेख मुजीबुर्रहमान ने स्वीकार किया और अपने देश की आबादी 85 प्रतिशत मुस्लिम होने के बावजूद इसे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया।
यह काल के कपाल पर लिखा हुआ ऐसा दस्तावेज था जिसे दुनिया की सभी शक्तियों ने स्वीकार करते हुए बंगलादेश के अस्तित्व को मान्यता दी और कबूल किया कि सांस्कृतिक एकता और समानता मजहब की दीवारों से बहुत ऊंची होती है और इसकी खनक अदृश्य रह कर लोगों के दिलों को जोड़े रखती है। बंगलादेश का निर्माण यह साबित भी कर गया कि भारतीय फौजें मानवतावादी सिद्धान्त की पक्षधर हैं और वे जुल्म के खिलाफ टकराने का लोहा रखती हैं क्योंकि 1971 में अमेरिका पाकिस्तान का सबसे बड़ा मित्र देश था जिसने उसकी मदद के लिए बंगाल की खाड़ी में अपना सातवां एटमी जंगी जहाजी बेड़ा उतार दिया था और धमकी दी थी कि यदि भारत ने अपनी सैनिक कार्रवाई न रोकी तो परमाणु युद्ध की आशंका पैदा हो सकती है।
इसका जवाब तब भारत के मित्र राष्ट्र सोवियत संघ ने दिया था और कहा था कि यदि सातवें बेड़े से जरा भी हरकत हुई तो परिणाम विनाशकारी होंगे मगर सबसे बड़ी जीत भारतीय संस्कृति और इसके सिद्धान्तों की हुई थी जिनका आधारभूत सिद्धान्त मानवीयता है। जिन्ना ने पाकिस्तान बनाते वक्त इन्हीं मानवतावादी सिद्धान्तों की बलि चढ़ाई थी और पूरे देश में हिन्दू-मुस्लिम दंगे करा दिया थे।
मजहब को राष्ट्र की पहचान बता कर जिन्ना ने भारत मां के हृदय में जो शूल चुभोया था उसे 1971 में भारत की जांबाज फौजों ने एक ही झटके में निकाल बाहर करके सिद्ध किया कि बांग्ला संस्कृति के तार इतने ढीले नहीं हैं कि उन्हें मजहब तोड़ सके। यही वजह है कि बंगलादेश का राष्ट्रगान गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर का लिखा 'आमार शोनार बांग्ला' गीत ही है। काजी नजरुल इस्लाम को स्वतन्त्र बंगलादेश की सरकार ने भारत से बुला कर बेशक विभिन्न सम्मानों से अलंकृत किया मगर उनका दिल आसनसोल के नाम से ही अन्तिम समय तक धड़कता रहा। भारत को 1971 में यही सिद्ध करना था कि पाकिस्तान का बंटवारा एक साजिश के तहत हुआ था जिससे स्वतन्त्र होकर संयुक्त भारत कभी भी विकसित देशों के समकक्ष आकर उनकी ऊंचाई तक न पहुंच सके मगर आजादी के बाद भारत ने यह ऊंचाई अपने लोगों की मेहनत और राष्ट्रभक्ति व कर्मठता से आखिरकार छूकर ही चैन लिया।
अतः आज के समय में चाहे पाकिस्तान हो या चीन उन्हें हमेशा याद रखना चाहिए कि भारतीय फौजों के अदम्य साहस को चुनौती देना आसान काम नहीं है। ये तो वह फौज है जो अपने शौर्य व साहस से नक्शे बदल देने का हुनर जानती है। जो काम इसे एक महीने में करने के लिए कहा जाता है वह केवल 14 दिन में ही निपटा देती है। बंगलादेश युद्ध शुरू होने पर तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने विजय पाने का लक्ष्य जनरल एसएच एमजे मानेकशा को एक महीने का दिया था मगर उन्होंने इसे 14 दिन में ही पूरा करके बंगलादेश विजय की घोषणा करने को प्रधानमन्त्री को कह दिया था। यह भी एेतिहासिक है कि बंगलादेश विजय की घोषणा सबसे पहले संसद के भीतर ही की गई थी क्योंकि तब संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा था। जय हिन्द और जय हिन्द की सेना।