कश्मीर में हत्‍याओं का खतरनाक सिलसिला, इसे निर्णायक तरीके से रोकना इसकी मूल शर्त

कश्मीर में हत्‍याओं का खतरनाक सिलसिला

Update: 2022-08-22 18:15 GMT
सोर्स जागरण
विजय क्रांति : पिछले सप्ताह कश्मीर के शोपियां में सेब के एक बगीचे में काम कर रहे दो कश्मीरी हिंदुओं को आतंकियों ने गोली मार दी। 48 वर्षीय सुनील कुमार भट की वहीं मौत हो गई। उनके परिवार के पीतांबर नाथ घायल अवस्था में अस्पताल ले जाए गए। इससे पहले 12 मई को बडगाम के चडूरा इलाके में आतंकियों ने तहसील आफिस में घुसकर सरकारी कर्मचारी राहुल भट की गोली मार कर हत्या कर दी थी। राहुल उन कश्मीरी हिंदू कर्मियों में से थे, जिन्हें कश्मीरी पंडितों की वापसी के लिए चलाए जा रहे पैकेज के तहत नौकरी दी गई थी।
उसी महीने की 31 तारीख को कुलगाम के गोपालपुरा में काम करने वाली कश्मीरी पंडित और स्कूली शिक्षिका रजनीबाला की भी हत्या कर दी गई। रजनी के पति जम्मू के सांबा शहर में नौकरी करते हैं, जबकि उन्हें कुलगाम में तैनात किया गया था। कश्मीर में हिंदुओं और सिखों की छांट-छांटकर की जाने वाली हत्याओं के सिलसिले में घटी इस घटना के केवल दो दिन बाद ही कुलगाम के मोहनपुरा के इलाकाई देहाती बैंक के मैनेजर विजय कुमार की गोली मारकर हत्या कर दी गई। विजय राजस्थान के हनुमानगढ़ के रहने वाले थे और बैंक में नौकरी मिलने के बाद वहां तैनात थे।
कश्मीर में कश्मीरी पंडितों और वहां काम धंधे के लिए गए गैर कश्मीरी मजदूरों और कर्मचारियों की हत्याओं का यह नया दौर 2021 अक्टूबर में शुरू हुआ था, जब श्रीनगर में केमिस्ट मक्खन लाल बिंदरू की हत्या कर दी गई थी। इस हत्या के अगले ही दिन श्रीनगर के लाल बाजार में भेलपूरी बेचने वाले एक बिहारी युवक वीरेंद्र पासवान की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। इसके बाद आतंकियों ने श्रीनगर के ईदगाह इलाके के सरकारी स्कूल के भीतर घुसकर सिख प्रिंसिपल सुपिंदर कौर और एक हिंदू अध्यापक दीपक चंद की गोली मार कर हत्या कर दी। हत्या से पहले आतंकियों ने सभी अध्यापकों के पहचान पत्र चेक किए और उनमें से इन दोनों गैर मुसलमानों को अलग करके गोली से उड़ा दिया।
इन हत्याओं के बाद घाटी में कश्मीरी हिंदुओं और गैर कश्मीरियों की हत्याओं का जो दौर शुरू हुआ, वह थम नहीं रहा है। इस साल जनवरी से अब तक 28 ऐसे नागरिकों की हत्या की जा चुकी है, जिनका राजनीति और सुरक्षाबलों से दूर-दूर का भी रिश्ता नहीं था। इन सभी हत्याओं की कई कड़ि‍यां साझा थीं, जो भारत सरकार और पूरे देश के लिए चिंता पैदा करने वाली हैं। मारे गए ये सभी लोग हिंदू या सिख थे और कामधंधे के सिलसिले में घाटी में रह रहे थे। वे या तो राज्य अथवा केंद्र सरकार द्वारा कश्मीरी पंडितों को घाटी में फिर से बसाने के किसी पैकेज के तहत वहां नौकरी कर रहे थे या फिर कामधंधे के तहत वहां काम करने आए थे।
भले ही केंद्र सरकार घाटी में पाकिस्तानी आतंकवाद पर नियंत्रण पाने के दावे कर रही हो, लेकिन आम हिंदू और सिख नागरिकों को निशाना बनाकर शुरू किए गए हत्याओं के इस नए सिलसिले से यही स्पष्ट हो रहा है कि कश्मीरी आतंकवाद अब पाकिस्तानी आतंकियों के बजाय कश्मीरी आतंकियों के हाथ में चला गया है। इसका लक्ष्य कश्मीर में लौटकर आने के इच्छुक कश्मीरी पंडितों को वहां बसने से रोकना और दूसरे राज्यों से नौकरी, व्यापार और उद्योग लगाने के इच्छुक लोगों को हतोत्साहित करना है। घाटी से जो संकेत आ रहे हैं, उनसे यह आशंका भी बलवती हो चली है कि आतंकियों को हत्या के शिकार लोगों के बारे में खबर देने का काम उनके आसपास रहने या साथ काम करने वाले स्थानीय लोगों ने किया।
जैसी आशंका थी, इन हत्याओं के बाद कश्मीर घाटी में वापस लाकर बसाए गए या नौकरी कर रहे कर्मचारियों में घाटी छोड़कर जाने का एक नया सिलसिला शुरू हो गया है। सरकारी दावों के बावजूद यह रुकने का नाम नहीं ले रहा है। केंद्र सरकार द्वारा कश्मीर में पंडितों की वापसी के लिए शुरू किए गए सात ट्रांजिट कैंपों से लोगों के वापस लौटने का क्रम जारी है। राहुल भट, रजनीबाला और सुपिंदर कौर की हत्या के बाद घाटी में तैनात लगभग हिंदू कर्मचारियों का एक बड़ा वर्ग यह मांग कर रहा है कि उन्हें घाटी से बाहर तैनात किया जाए।
कश्मीर में छांट-छांटकर कश्मीरी पंडितों, अन्य हिंदुओं और सिखों की हत्याओं के इस नए सिलसिले ने नई दिल्ली के उन नेताओं, अफसरशाहों और विश्लेषकों की इस मान्यता को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया है कि कश्मीर की लड़ाई वहां की जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों और स्वायत्तता की चाहत की लड़ाई है। दुर्भाग्य से कोई नीति निर्धारक और स्वयंभू विशेषज्ञ रियासत में 1931 से चले आ रहे उस अभियान के इस्लामी चरित्र और उसके साथ चलने वाली हिंसा की निरंतरता के सच को स्वीकार करने का साहस नहीं रखता, जो वहां से गैर हिंदुओं को भगाकर रियासत को निजामे-मुस्तफा यानी इस्लामी राष्ट्र बनाने पर केंद्रित रहा है।
इसकी शुरुआत 1931 में तत्कालीन मुस्लिम कांफ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला ने की थी, जो अलीगढ़ मुस्लिम विवि से पढ़कर लौटे थे। शेख ने उस साल रियासत के सभी ग्रामीण इलाकों से काफिरों के सफाए का जो अभियान चलाया, उसमें हजारों हिंदुओं और सिखों की हत्या हुई, उनके घर-संपत्ति लूटे गए और लाखों लोगों को भागकर हिंदू बहुल इलाकों में शरण लेनी पड़ी। उस नरसंहार को आज भी जम्मू-कश्मीर के इतिहास में 1988 का शोरश (संवत-1988 का नरसंहार) नाम से याद किया जाता है।
यदि कश्मीर में पंडितों को न्याय दिलाने और घाटी को बाकी देश से जोड़ने के लिए शुरू किए गए घर-वापसी अभियान को कश्मीर की आतंकी शक्तियां नया नरसंहार चलाकर रोकने में कामयाब होती हैं तो यह भारत के लिए खतरे का एक नया कारण बन सकता है। उस हालत में शेष भारत में लेबनान और इजरायल के इतिहास के उन अध्यायों की पुनरावृत्ति होने का खतरा बढ़ जाएगा, जब सरकार द्वारा न्याय न दिला पाने की हालत में जनता ने इस जिम्मेदारी को अपने हाथ में ले लिया था। भारत जैसे लोकतंत्र के लिए यह एक दुखद अध्याय होगा, जिसका न्यायोचित समाधान समय रहते निकाला जाना चाहिए। कश्मीर में हत्याओं के इस क्रम को निर्णायक तरीके से रोकना इसकी मूल शर्त है।

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