हमारे साथ दलाईलामा
अपने मूल्यों और प्रतिष्ठा के साथ अंततः महामहिम दलाईलामा ने यह तय कर लिया कि वह अब धर्मशाला में ही रहेंगे
Divyahimachal .
अपने मूल्यों और प्रतिष्ठा के साथ अंततः महामहिम दलाईलामा ने यह तय कर लिया कि वह अब धर्मशाला में ही रहेंगे। वह भारतीय लोकतंत्र की शक्ति, प्रेरणा और इसके मूल स्वरूप के कायल हैं और अंतरराष्ट्रीय मंचों में देश के लिए देवदूत का कार्य करते हैं। विश्वशांति के परिचायक और सांसारिक कलेशों के बीच जीवन की सरलता का संदेश देते दलाईलामा का रिश्ता हिमाचल के लिए वरदान सरीखा है, लेकिन हमने इस महान हस्ती को मात्र औपचारिक सम्मान हीे दिया। दलाईलामा का हिमाचल में होना अंतरराष्ट्रीय श्रद्धा और शरण की खोज को पूरा करता है और जिसका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष लाभ हमारी आर्थिकी को हुआ है। ऐसे में दलाईलामा केंद्रित हिमाचली प्रचार के हम भागीदार बने, लेकिन बदले में लौटाया कुछ नहीं। डलहौजी, धर्मशाला से मनाली तक या पांवटा साहिब तक फैले तिब्बती समुदाय ने हिमाचल की विविधता में अपना पक्ष जोड़ा है। बौद्ध परंपराओं से नजदीकी के कारण लाहुल-स्पीति व किन्नौर जिलों में दलाईलामा से जुड़ी देव परंपरा का शंखनाद होता है, तो यह हिमाचल के पर्यटन का खाका क्यों नहीं बना।
विश्व भर की बौद्ध परंपराओं में दलाईलामा का स्थान अति श्रेष्ठता व श्रद्धा से लिया जाता है और इसीलिए कालचक्र आयोजन की परंपरा ने बौद्ध गया जैसे स्थान को फिर से परिभाषित किया है। आश्चर्य यह कि हिमाचल ने आजतक यह प्रयास नहीं किए कि महामहिम दलाईलामा की उपस्थिति को देखते हुए एक बौद्ध सर्किट को विस्तृत आकार दिया जाए और इसी के साथ तिब्बती पर्यटन को भी नत्थी कर दिया जाए। अगर धर्मशाला से मनाली के बीच या जोगिंद्रनगर के आसपास कालचक्र समागम स्थल विकसित किया होता, तो विश्वशांति, करुणा, प्रेम और अहिंसा की भावना को आगे बढ़ाते सैलानी यहां आते और इस तरह हम महामहिम की भूमिका में उत्प्रेरित होते। इसी के साथ बौद्ध महोत्सव का आयोजन हर वर्ष हिमाचल के कुछ पर्यटक डेस्टिनेशन को नया आकर्षण देता। विडंबना यह है कि विश्वशांति का नोबेल पुरस्कार पाने की अहमियत में 'हिमालय उत्सव' की शुरुआत मकलोडगंज से शुरू हुई थी, लेकिन धीरे-धीरे यह आयोजन अनियमित तथा केवल रस्म अदायगी तक ही सिमट गया। धर्मशाला स्थित केंद्रीय विश्वविद्यालय अगर दलाईलामा खंडपीठ की स्थापना कर दे तो कई अंतरराष्ट्रीय विषयों, क्षेत्रीय इतिहास, वैश्विक शांति तथा तिब्बती परंपराओं का अध्ययन व शोध मुमकिन होगा। केंद्रीय विश्वविद्यालय इस तरह विश्व भर के बौद्ध शोधकर्ताओं का मक्का बन सकता है, लेकिन हिमाचल के विषय केवल सियासी परिक्रमा तक ही सीमित हैं।
धर्मशाला स्मार्ट सिटी की परियोजनाओं में भी दलाईलामा की उपस्थिति का सम्मान दिखाई नहीं देता है। बनारस, बौद्ध गया की तरह मकलोडगंज के अस्तित्व का सांस्कृतिक एवं धार्मिक पक्ष सीधे दलाईलामा व परोक्ष में तिब्बती संस्कृति से जुड़ता है, लेकिन यहां के विकास के लिए कोई योजनाबद्ध प्रयास ही नहीं हुआ। धूमल सरकार के दौरान एक बार मकलोडगंज विकास बोर्ड के गठन पर रोशनी डाली गई थी, लेकिन यह घोषणा भी आई-गई हो गई । ऐसे में जिस शांति व सद्भावना का उल्लेख करते हुए महामहिम दलाईलामा अब स्थायी रूप से धर्मशाला में ही रहना चाहते हैं, क्या हम उसे प्रदान करने में सक्षम होंगे। क्या मकलोडगंज जैसे स्थल की भौगोलिक परिस्थितियों में व्यापारिक उद्देश्य खलल नहीं डाल रहे। दलाईलामा महल की ओर जाती सड़क पर शांति खोजें या व्यापार के प्रसार पर खुश हो जाएं। कम से कम अब तो हमें यह एहसास कर लेना चाहिए कि दलाईलामा जैसी हस्तियों के लिए यहां की आवासीय व्यवस्था के लिए प्रदेश की व्यवस्था और निकम्मी साबित न हो।