हिरासत में मौतें
केंद्रीय गृह राज्यमंत्री ने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया कि देश में पिछले तीन वर्षों में पुलिस हिरासत में 348 लोगों की मौत हुई
केंद्रीय गृह राज्यमंत्री ने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया कि देश में पिछले तीन वर्षों में पुलिस हिरासत में 348 लोगों की मौत हुई और 1,189 लोगों को यातनाएं दी गईं। इसके साथ दिए गए वर्षवार आंकड़े बताते हैं कि हर साल इस संख्या में कमी देखी गई है। 2018-19 में 136 लोगों की मौत हुई थी, जो 2019-20 में घटकर 112 हुई और 2020-21 में और कम होकर 100 पर आ गई। मगर इसी सवाल के अगले हिस्से में यह भी पूछा गया था कि इन मौतों के लिए दोषी अफसरों के खिलाफ किस तरह की कार्रवाई की गई। इसका जवाब केंद्र सरकार के पास नहीं था क्योंकि कानून व्यवस्था और पुलिस से जुड़े मामले राज्य सरकार के अंतर्गत आते हैं।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि राज्य सरकारें ऐसे मसलों को किस रूप में देखती हैं और क्या वे इसे पर्याप्त अहमियत देती हैं। औपचारिक तौर पर दावे चाहे जो भी किए जाएं, विभिन्न रिपोर्टों के आंकड़ों का अधूरापन बताता है कि उस तरह की पारदर्शिता बरतने में हमारी सरकारों की दिलचस्पी नहीं है, जैसी कि किसी लोकतांत्रिक देश में अपेक्षा की जाती है। उदाहरण के लिए, एनसीआरबी (नैशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो) के आंकड़ों के मुताबिक पिछले दस वर्षों में देश में हिरासत में हुई कुल 1004 मौतों में से 40 फीसदी या तो स्वाभाविक मौत थी या फिर बीमारी का परिणाम।
इसके अलावा 29 फीसदी मौतें खुदकुशी थीं। यानी 69 फीसदी मौतों के लिए ये दोनों कारण जिम्मेदार थे। फिर भी इन रिपोर्टों से यह स्पष्ट नहीं होता कि बीमारी लंबे समय से चल रही थी या अचानक हुई या पुलिस हिरासत में मारपीट का नतीजा थी। यही नहीं, हिरासत में होने वाली मौतों की संख्या को लेकर भी एनसीआरबी और एनएचआरसी (नैशनल ह्यूमन राइट्स कमिशन) के आंकड़ों में अक्सर अंतर देखा जाता है। जानकारों के मुताबिक इस मामले में सरकारी तंत्र को उत्तरदायी बनाने की राह में एक बाधा यह भी है कि मौजूदा कानूनों के मुताबिक संबंधित पुलिस अधिकारियों पर मुकदमा चलाने के लिए सरकार की पूर्वानुमति लेनी पड़ती है और अमूमन सरकारें इस मामले में उदार रुख नहीं अपनातीं।
बहरहाल, किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए यह स्थिति शर्मनाक कही जाएगी। जो लोग पुलिस हिरासत में लिए जाते हैं, उनके अपराधी होने का संदेह भले हो, लेकिन उनका अपराध साबित नहीं हुआ होता है। इसलिए उनके साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार की इजाजत संविधान नहीं देता। जरूरी है कि पुलिस और प्रशासनिक तंत्र को इस मामले में संवेदनशील बनाया जाए। इस दिशा में पहला कदम यही हो सकता है कि ऐसे तमाम मामलों में विश्वसनीय जांच से बचने की प्रवृत्ति पर कठोरता से अंकुश लगाया जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि दोषी अफसरों-पुलिसकर्मियों को कानून के मुताबिक उपयुक्त सजा हर हाल में मिले।