संस्कृति विहीन शिक्षा प्रणाली

कुछ दिन पहले 9 सितंबर को मुझे पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड के उपाध्यक्ष के तौर पर हिमाचल स्कूल शिक्षा बोर्ड धर्मशाला द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 पर आयोजित एक हाई लेबल की कार्यशाला में शामिल होने का मौका मिला

Update: 2021-09-14 18:43 GMT

कुछ दिन पहले 9 सितंबर को मुझे पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड के उपाध्यक्ष के तौर पर हिमाचल स्कूल शिक्षा बोर्ड धर्मशाला द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 पर आयोजित एक हाई लेबल की कार्यशाला में शामिल होने का मौका मिला, जिसमें हिमाचल के दो बार के मुख्यमंत्री व पूर्व केंद्रीय मंत्री श्री शांता कुमार जी और कांगड़ा के माननीय संसद श्री किशन कपूर भी शामिल थे। हिमाचल स्कूल शिक्षा के क्षेत्र में पंजाब की तरह प्रोग्रेसिव काम कर रहा है। इस मंच पर जहां मुझे पंजाब द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर किए जा रहे प्रयास को हिमाचल स्कूल बोर्ड के अध्यक्ष व उच्च शिक्षा अधिकारियों के साथ एक सार करने का अवसर मिला, वहीं माननीय शांता जी द्वारा शिक्षा और भारतीय संस्कृति की बढ़ती दूरी पर चिंता दिल को छू गई। उनकी बात महत्त्वपूर्ण लगी कि अब सामाजिक विसंगतियों पर नकेल डालने का एकमात्र तरीका चरित्र मूल्यों को विकसित करने वाली शिक्षा है। भारतीय संस्कृति देश में सभी धर्मों में मौजूद उच्च कोटि के विचारों का समुद्र है। हमें शिक्षा में भारतीय संस्कृति के संयोग और उसके मर्म को किसी समुदाय विशेष से न जोड़ते हुए शिक्षा में भारतीयता के महत्त्व को गहराई से समझना और विचारना चाहिए।

मेरा अल्प ज्ञान कहता है कि शिक्षा एक आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोग कार्य और विचार की नई पद्धतियां सीखते रहते हैं। उससे व्यवहार में ऐसे बदलाव लाने को बढ़ावा मिलता है, जिनसे मनुष्य की स्थिति में सुधार आए। छात्रों में एक सामाजिक भाव की संस्कृति पनपने में शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। एक छात्र के जीवन पर और स्कूल में उसकी हो रही शिक्षा पर शिक्षा विभाग, अधीक्षक, स्कूल बोर्ड इतना ही नहीं, स्कूल के प्रिंसिपल से भी उस स्कूल की संस्कृति का ज्यादा गहरा प्रभाव होता है। स्कूलों में भारतीय शिक्षा संस्कृति को अपना कर छात्रों को विरासत, लोग और समाज के बारे में सिखा सकते हैं. जिससे उनमें एक जिम्मेदारी और नागरिकता की भावना आकार लेगी। उनमें स्व-मूल्य और गौरव जगा सकते हैं, जिससे उनके आत्मविश्वास और विकास में वृद्धि होगी। शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय और अन्य संस्थाएं विचारपूर्वक अपनी सांस्कृतिक विरासत प्रसारित करती हैं। संस्कृति शिक्षा का अभिन्न भाग है। भाषा समाजीकरण और शिक्षा में अहम भूमिका अदा करती है।
छात्रों का अपने देश की स्थानीय भाषाओं से परिचित होना जरूरी है। हम शिक्षा में चरित्र मूल्यों की निरंतरता के लिए समाज के बुजुर्गों की मदद ले सकते हैं, क्योंकि वो शिक्षा के संस्कृतिकरण में अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उनके पास अक्सर ऐसी कहानियां और कौशल होते हैं, जिनके बारे में आज की पीढ़ी अनजान होती है। मानव के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के रूप में संस्कृति में विचार व व्यवहार दोनों के ही तरीके सम्मिलित होते हैं, जिनके प्रति व्यक्ति के व्यक्तित्व के विभिन्न पक्ष जागरूक होते हैं और यह जागरूकता व्यक्ति को एक सुलझा हुआ व्यक्तित्व प्रदान करती है, जिसके फलस्वरूप उसका व्यक्तित्व संपूर्ण एवं संगठित रूप में उभरकर हमारे समक्ष प्रकट होता है। छात्र समाज का एक अंग होता है तथा वह जब विद्यालय में प्रवेश करता है तो वह संस्कृति जानता है, जो उसके परिवार विशेष से संबंधित होती है। अध्यापक व विद्यालय उसे समाज की संस्कृति के अनुकूल ढालने का प्रयास करते हैं। सांस्कृतिक मूल्यों का अनुशासन पर भी प्रभाव पड़ता है।
जिस समाज में अधिनायक तत्त्व होगा, वहां दमनात्मक अनुशासन होगा एवं जहां प्रजातंत्र होगा, वहां स्वतंत्र अनुशासन होगा। सांस्कृतिक मूल्य मनुष्य का सामाजिक वातावरण से समायोजन करती है। प्रत्येक समाज की आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक परिस्थितियां भिन्न-भिन्न होती हैं एवं इसके साथ ही प्रत्येक व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि अपने समाज की विभिन्न परिस्थितियों के साथ स्वयं का अनुकूलन कर सके। संस्कृति व्यक्ति को इतना सूक्ष्म बनाती है कि व्यक्ति स्वयं को सामाजिक पर्यावरण के अनुकूल ढालता है। सांस्कृतिक मूल्यों का शिक्षा के उद्देश्यों पर प्रभाव हमेशा रहा है। प्रत्येक समाज में शिक्षा के कुछ उद्देश्य शाश्वत होते हैं एवं कुछ सामाजिक, यह दोनों ही उद्देश्य संस्कृति के आदर्शों, मूल्यों व प्रारूपों से प्रभावित होते हैं। उदाहरणार्थ भारतीय संस्कृति के कुछ शाश्वत मूल्य हैं जैसे आध्यात्मिक, मानव सेवा, परोपकार आदि। शिक्षा में इन्हें ऊंचा स्थान दिया जाना चाहिए। सांस्कृतिक मूल्यों का शिक्षा पद्धतियों पर भी प्रभाव होता है। प्राचीन संस्कृति में गुरु को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। सांस्कृतिक मूल्यों का अध्यापक पर व्यापक प्रभाव है। शिक्षक समाज का एक सदस्य होता है व उसमें ही वह विकसित होता है।
अत: समाज व संस्कृति का प्रभाव उसके आचरण व विचारों पर पड़ता है एवं समाज उन्हीं अध्यापकों को अच्छा समझता है जो सांस्कृतिक विरासत व मूल्यों का सम्मान करता है। चूंकि ऐसा ही शिक्षक बच्चे को सही दिशा दिखा सकता है। जो शिक्षक संस्कृति की उपेक्षा करता है, वह छात्रों का सांस्कृतिक विकास कदापि नहीं कर सकेगा। विद्यालय की सभी गतिविधियां एवं कार्यक्रम सांस्कृतिक आदर्शों व परंपराओं पर आधारित होते हैं। इसी कारण विद्यालय संस्कृति को विकसित करने व सुधारने में सहायक होता है। विभिन्न सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित विद्यालय उसी संस्कृति का प्रसार व प्रचार करते हैं, जिस पर वह आधारित है। समाज शिक्षा के प्रत्येक पक्ष को प्रभावित करता है तो ठीक उसी प्रकार शिक्षा भी समाज को प्रत्येक पक्ष पर प्रभावित करती है, चाहे आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक स्वरूप हो। शिक्षा का प्रारूप समाज के स्वरूप को बदल देता है क्योंकि शिक्षा परिवर्तन का साधन है। समाज प्राचीनकाल से आज तक निरंतर विकसित एवं परिवर्तित होता चला आ रहा है क्योंकि जैसे-जैसे शिक्षा का प्रचार-प्रसार होता गया, इसने समाज में व्यक्तियों की परिस्थिति, दृष्टिकोण, रहन-सहन, खानपान, रीति-रिवाजों पर असर डाला और इससे संपूर्ण समाज का स्वरूप बदला।
शिक्षा समाज के व्यक्तियों को इस योग्य बनाती है कि वे समाज में व्याप्त समस्याओं, कुरीतियों, गलत परंपराओं के प्रति सचेत होकर उनकी आलोचना करते हैं और धीरे-धीरे समाज में परिवर्तन होता जाता है। शिक्षा समाज के प्रति लोगों को जागरूक बनाते हुए उसमें प्रगति का आधार बनाती है। जैसे शिक्षा पूर्व में वर्ग विशेष का अधिकार थी, जिससे कि समाज का रूप व स्तर अलग तरीके का या अत्यधिक धार्मिक कट्टरता, रूढि़वादिता एवं भेदभाव या कालांतर में शिक्षा समाज के सभी वर्गों के लिए अनिवार्य बनी जिससे कि स्वतंत्रता के पश्चात सामाजिक प्रगति एवं सुधार स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है। शिक्षा समाज की संस्कृति एवं सभ्यता के हस्तांतरण का आधार बनती है। महात्मा गांधी ने शिक्षा के इस कार्य की आवश्यकता एवं प्रशंसा करते हुए लिखा है, 'संस्कृति ही मानव जीवन की आधारशिला और मुख्य वस्तु है। यह आपके आचरण और व्यक्तिगत व्यवहार की छोटी से छोटी बातों में व्यक्त होनी चाहिए। राष्ट्रपिता की यह बात और स्वामी विवेकानंद जैसे अनेक राष्ट्र ऋषियों के शिक्षा को नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों से ओत-प्रोत बनाने का बड़ा चैलेंज हकीकत में बदलने के लिए निरंतर प्रयासों की जरूरत है।
डा. वरिंदर भाटिया
कालेज प्रिंसीपल
ईमेल : hellobhatiaji@gmail.com


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