क्या पिकअप वाहन से बांध कर घसीटे गए नीमच के आदिवासी कान्हा को बचा सकते थे हम?
देश भर में आस्थावान सनातन संस्कृति कृष्ण जन्माष्टमी के भावरस में सराबोर है, तब मध्य प्रदेश के नीमच ज़िले में पिकअप गाड़ी से बांधकर आदिवासी युवक कान्हा उर्फ कन्हैयालाल को खींचने की वायरल हुई
रवि पाराशर। देश भर में आस्थावान सनातन संस्कृति कृष्ण जन्माष्टमी के भावरस में सराबोर है, तब मध्य प्रदेश के नीमच ज़िले में पिकअप गाड़ी से बांधकर आदिवासी युवक कान्हा उर्फ कन्हैयालाल को खींचने की वायरल हुई तस्वीरें सोच में कौंध रही हैं, मन को तरल कर रही हैं. गाड़ी के पीछे रस्सी से बंधे नौजवान की सड़क पर घिसटती तस्वीर नई नहीं है. फिल्मों में बहुत बार ऐसे दृश्य दिखाए जा चुके हैं. फिल्मी पर्दे पर शक्तिशाली खलनायक किसी मज़लूम को इसी तरह गाड़ी या घोड़े से बांधकर घसीटता है, तो दुख होता है. लेकिन जब कोई नायक किसी खलनायक को इसी तरह घसीटता है, तो अच्छा लगता है, खलनायक का अंजाम देखकर मन को सुकून मिलता है.
अगस्त, 2021 यानी देश की आज़ादी के अमृत महोत्सव के शुरुआती दौर में सोशल मीडिया और टीवी न्यूज़ चैनलों पर मध्य प्रदेश के नीमच ज़िले में सिंगोली क्षेत्र में अथवाकलां इलाक़े में पिकअप वाहन से घिसटते असहाय नौजवान की तस्वीरें देखकर यकायक कौतूहल होता है. पता नहीं वह नायक है या खलनायक! बाद में पता चलता है कि कान्हा या कन्हैयालाल नाम के आदिवासी युवक को पहले पीटा गया था और फिर दंड देने के लिए दबंगों ने उसे पिकअप से बांधकर घसीटने की काली करतूत की. जब यह पता चला कि बुरी तरह घायल होने पर कान्हा को अस्पताल में भर्ती करने पर भी बचाया नहीं जा सका, तो बहुत दुख और अफ़सोस हुआ.
पता चला है कि कान्हा के कारण उनमें से एक की मोटर साइकल का एक्सीडेंट हो गया था. उसने अपने शुभचिंतकों को बुलाकर पहले तो कान्हा को बुरी तरह पीटा और फिर उसके पैरों में रस्सी बांधकर उसे पिकअप के साथ घसीट कर अमानवीय बर्ताव किया. वारदात को अंजाम देने इन लोगों को पकड़ लिया गया है. वारदात के बाद कार्रवाई तब शुरू हुई, जब तस्वीर वायरल होते-होते ज़िले के एसपी के मोबाइल में पहुंच गईं. हालांकि आरोपित पकड़े गए और हो सकता है कि उन्हें उनके किए की सज़ा भी मिल जाए, लेकिन कान्हा की ज़िंदगी वापस नहीं लाई जा सकती.
क्या हम कान्हा जैसे कई असहायों का जीवन बचा सकते हैं
सवाल यह है कि क्या सोशल मीडिया के मौजूदा दौर में थोड़ी सावधानी बरती जाए, तो क्या हम कान्हा जैसे कई असहायों का जीवन बचा सकते हैं? क्या कौतूहल भरे भाव पैदा करने के साथ ही कोई अजीबोग़रीब तस्वीर हमारे मन में चौकन्नेपन का भाव जगाकर हमें अच्छा और सच्चा नागरिक बनाने के कर्तव्य की ओर प्रेरित कर सकती है? नीमच ज़िले से निकली पिकअप से घिसटते हुए नौजवान की तस्वीर पर अगर तत्काल कार्रवाई की जाती या फिर तस्वीर रिकॉर्ड करते वक़्त ही वहां मौजूद लोग विरोध व्यक्त करते, तो कान्हा की ज़िंदगी बचाई जा सकती थी, इसमें कोई शक नहीं है. आनन-फ़ानन में वह तस्वीर सारे मुख्यधारा के मीडिया के पास पहुंच गईं, लेकिन पीड़ित की जान नहीं बचाई जा सकी.
साफ़ है कि किसी की दिलचस्पी पीड़ित की जान बचाने में नहीं, बल्कि सोशल मीडिया के अपने अकाउंट पर व्यू बढ़ाने, पाठक संख्या और दर्शक संख्या बढ़ाने में रहती है. कोई तस्वीर देखते समय पीड़ित को जल्द से जल्द इंसाफ़ मिले, इसके प्रति हमारी संवेदना व्यावहारिक तौर पर सक्रिय नहीं होती. हम भर्त्सना, निंदा, आलोचना वाले मोड में तो तुरंत आ जाते हैं और जागरूकता बढ़ाने के मानवीय कर्तव्यबोध से प्रेरित होकर ऐसी रौंगटे खड़ी कर देने वाली तस्वीरों को आगे बढ़ाने में तुरंत लग जाते हैं. लेकिन यह चिंता हमारे प्राथमिक बोध में घर ही नहीं करती कि पहले किसी पीड़ित की जान बचाने का प्रयास किया जाए. किसी पीड़ित की जान ही नहीं बचेगी, तो फिर बाद में उसके लिए न्याय की गुहार लगाने का औचित्य क्या रह जाएगा?
डिजिटल दौर में साइबर क्राइम से निपटने के लिए अब हर ज़िले में पुलिस के साइबर सेल अति सक्रिय हैं. पुलिस और पत्रकारों के व्हाट्सएप ग्रुप अति-सक्रिय हैं. ऐसे में कान्हा उर्फ़ कन्हैयालाल को पिकअप से बांधकर सोच की खुरदरी बेमुरव्वत सड़क पर घसीटे जाने की तस्वीरें तुरंत पुलिस के पास पहुंच गई होंगी, इसमें कोई शक नहीं है. फिर कन्हैयालाल को क्यों नहीं बचाया जा सका? इतने संवेदनशील और झटपट हज़ारों व्यू की संभावना वाले वीडियो को अपने सोशल मीडिया पर जारी करने की जल्दी हर किसी को होती है. ऐसी तस्वीरें मिलते ही गांव-क़स्बे में सक्रिय पत्रकार या नागरिक पत्रकार उन्हें ज़िलों, वहां से मंडलों और वहां से राजधानियों और दिल्ली तक पहुंचा देते हैं. सबको सच ही लगता है कि टीवी चैनल वाले ऐसी तस्वीरों को आनन-फ़ानन में प्रसारित कर देते हैं.
जरूरत है थोड़ा और संवेदनशील होने की
मध्य प्रदेश के नीमच ज़िले में हुई वारदात में पीड़ित को पिकअप से बांधकर क़रीब सौ मीटर तक घसीटा गया. बुरी तरह छिलता जा रहा कान्हा राह चलते लोगों से मदद की गुहार लगाते देखा जा सकता है. लेकिन जिन लोगों ने मोबाइल फ़ोन में तस्वीरें उतारीं, उन्होंने मौक़े पर ही तुरंत उसकी मदद के लिए कोई उपक्रम नहीं किया. ज़ाहिर है कि दबंगों के डर से ऐसा हुआ होगा. लेकिन तस्वीरें रिकॉर्ड करने वाला तुरंत कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता था, तो कम से कम वारदात की शिकायत फ़ोन के माध्यम से पुलिस से तो कर सकता था. कोई तत्काल थाने पहुंचकर वारदात की जानकारी पुलिस को तो दे सकता था. ऐसा हुआ होता, तो कान्हा की ज़िंदगी बचने की संभावना हो सकती थी.
लेकिन ऐसा नहीं हुआ. एक तो पुलिस से ही डर और दूसरे सिर्फ़ रिकॉर्डिंग तक ही अपनी ज़िम्मेदारी समझने की प्रवृत्ति हमारे अंदर घर करती जा रही है.
ज़ाहिर है कि किसी के साथ ज़ुल्म की तस्वीरें खींच कर हम उसका एक तरह से साथ देने की मानसिकता से काम तो करते हैं, लेकिन सिर्फ़ तस्वीरें खींच कर वायरल करने से ही बहुत बार काम नहीं चलता. हमें थोड़ा और संवेदनशील होना पड़ेगा. नीमच ज़िले के वारदात स्थल पर अगर कोई ज़रा सा आगे बढ़कर अपना कर्तव्य थोड़ा और निभाता, तो कान्हा की जान बचाई जा सकती थी. अब उसकी हत्या के मामले में इंसाफ़ तो होगा, लेकिन उसे देखने के लिए वह नहीं होगा. ज़रूरी है कि हम जन्माष्टमी मनाएं, लेकिन ज़ुल्म की चक्की में पिसने वाले कान्हाओं को भी बचाएं, यह भी हमारी ज़िम्मेदारी है.
सिर्फ़ तस्वीरें खींच कर और उन्हें वायरल कर जागरूकता बोध की इतिश्री न कर लें, बल्कि पीड़ित की सहायता करने की ज़िम्मेदारी भी ज़रा आगे बढ़कर समझें, तभी इंसान होने का सही परिचय दे पाएंगे. कितना अच्छा होता कि हम ज़रा से सचेत और होते, तो नीमच का कान्हा भी आज हमारे साथ जन्माष्टमी मना रहा होता!!