कोरोना महामारी: इक्कीस के आलोक में बाईस की तलाश
वह गड़बड़ी है चीन का विस्तारवादी एजेंडा और यूक्रेन के पार रूस का दुस्साहस। और हां, ऑक्सफोर्ड ने जिस ‘क्लाईमेट इमर्जेंसी’
वर्ष 2020 में ऑक्सफोर्ड वर्ड ऑफ द ईयर 'लॉकडाउन' था, तो 2021 में 'वैक्सिनेशन' यानी टीकाकरण! हर रोज घर, दफ्तर और सरकार की बातचीत की शुरुआत या अंत में 'कोविड की वजह से' का उल्लेख जरूर होता है। अब यह सरकारी कामकाज में काहिली का बहाना भी हो गया है। आप गूगल पर पैनडेमिक (महामारी) सर्च करेंगे, तो सर्च इंजन 400 करोड़ से अधिक नतीजे उगल देगा-हर कुछ घंटे में इनमें कुछ और करोड़ नतीजे जुड़ जाते हैं।
यह वैश्विक महामारी का तीसरा साल है। वायरस ने 28 करोड़ से अधिक लोगों को प्रभावित किया और इससे करीब आधे करोड़ लोगों की मौत हुई-और इस जाड़े में संक्रमण के दुनिया भर में 10 लाख से अधिक मामले रोज आ रहे हैं। सतर्क लेकिन थकी हुई दुनिया जब वर्ष 2022 में प्रवेश करने जा रही है, तब जनता आशा और निराशा के बीच झूल रही है। लोगों कीआशा इस उम्मीद पर टिकी है कि ओमिक्रॉन वैरिएंट का उदय कोविड के कमजोर होने का प्रमाण है। जबकि उनकी निराशा सरकारों की विषम नीतियों के कारण है। वे आशंकित हैं कि ओमिक्रॉन के बारे में उनकी सोच खुशफहमी न साबित हो। अब जब दुनिया भर के देश और लोग अनिश्चय के बीच हैं, तब यह कुछ सवाल उठाने का समय है, क्योंकि इन्हीं से वर्ष 2022 में हमारा भविष्य तय होगा।
नई योजना बनाने का समय-महामारी से निपटने में अभी तक दुनिया वुहान के लॉकडाउन मॉडल का ही पालन करती आई है। जीरो कोविड चीन में एक लोकप्रिय शब्दावली है-जबकि कोई नहीं जानता कि वहां कितने लोगों की जांच हुई, कितने संक्रमित हुए, और कितनों की मौत हुई। एक धारणा यह है कि उड़ानों पर रोक लगाने का फायदा नहीं है। न ही सामान्य सरकारी नीति से काम चलने वाला है। राजनीतिक वर्ग ने मान लिया कि बड़ी फार्मास्यूटिकल कंपनियां महामारी का समाधान निकाल लेंगी, जिससे राजनेताओं का जोखिम कम हो जाएगा। बेशक वैक्सीन से लोगों की जान बची है और दवा कंपनियों की सक्रियता जरूरी है। पर क्या अब समय नहीं आ गया है कि सरकारें वायरस को बेअसर करने के लिए योजना बनाएं?
वैक्सीन की कितनी खुराक-एक साल पहले यह कहा गया था कि वैक्सीन की एक खुराक वायरस का जवाब है। वैक्सीन की पहली खुराक देने के करीब 50 सप्ताह के बाद सरकारों ने दूसरी खुराक भी दे दी, लेकिन अब भी वे इसे जोर देकर 'पूर्ण टीकाकरण' नहीं कह पा रहीं। तमाम देश अब बूस्टर डोज की व्यवस्था में लगे हैं। इस्राइल ने अपने नागरिकों को वैक्सीन की चौथी खुराक देने की घोषणा की है। हर कुछ सप्ताह में एक नया अध्ययन बताता है कि एक वैक्सीन के असरदार रहने की अवधि तीन या छह महीने तक ही है। सबको वैक्सीन न लग पाने के कारण ही समस्या ज्यादा है। लेकिन अगर वैक्सीन की अवधि के बारे में बात हो रही है, तो इस पर चर्चा होनी चाहिए-भले ही इसका मतलब सरकारों के लिए नए सिरे से बजट की व्यवस्था करना और हर छह महीने में टीकाकरण की तैयारी करना ही क्यों न हो।
कोविड जांच की लागत-आर्थिक सिद्धांत बताते हैं कि किसी चीज का ज्यादा इस्तेमाल होने पर उसकी कीमत घट जाती है। पर कोविड की जांच के साथ ऐसा नहीं है। वर्ल्डोमीटर पोर्टल का आंकड़ा बताता है कि 4.1 अरब से अधिक लोगों ने कोविड-19 की जांच कराई है। मोटे तौर पर रोज एक करोड़ से अधिक कोविड की जांच होती है। भारत में कोविड-19 की रोज की जांच का आंकड़ा 10 लाख है। भारत में आरटीपीसीआर की एक जांच की लागत करीब 500 रुपये है और अमेरिका में इसकी लागत 150 डॉलर। द लैंसेट का एक अध्ययन बताता है कि आरटीपीसीआर टेस्ट की लागत अगर पांच डॉलर हो, तो पूरी दुनिया के लिए यह बहुत किफायती साबित होगा। महामारी पर अंकुश लगाने के लिए कोविड जांच का सस्ता और सुलभ होना अत्यंत आवश्यक है।
बल्कि कोविड जांच अगर वाकई सस्ती हो जाए, तो इसके नीति नियंताओं के लिए महामारी पर अंकुश लगाने का काम और सहज और किफायती हो जाएगा। मास्क और जन व्यवहार-पूरी दुनिया में ओमिक्रॉन वैरिएंट के बढ़ते मामलों को देखते हुए सरकारों ने अब फिर से मास्क का इस्तेमाल करने के लिए कहा है। जाहिर है, मास्क और सोशल डिस्टेंसिंग संक्रमण को फैलने देने से रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मास्क संक्रमण से सुरक्षा की प्राथमिक वस्तु हैं, यह अलग बात है कि इस मुद्दे पर राजनेताओं के रवैये ने ही लोगों को मास्क के इस्तेमाल के प्रति हतोत्साहित किया है। महामारी के उभार के समय ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने 'हैंड्स, फेस, स्पेस' का नारा दिया था, यानी अपने हाथ धोएं, चेहरा ढकें और लोगों से दूरी बरतें। लेकिन बाद में उन्हीं जॉनसन ने मास्क के बगैर अपनी तस्वीरें प्रसारित कर अपने ही अभियान को पलीता लगाया। भारत में चुनावी रैलियों में राजनेताओं के बगैर मास्क वाली तस्वीरें उनके दोहरेपन के बारे में बताती हैं। देश भर में रात का कर्फ्यू लग चुका है, पर चुनावी और राजनीतिक रैलियों पर कोई रोक नहीं है। यह स्थिति तब है, जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय चुनाव पर सवाल उठा चुका है। शादी और अंतिम संस्कार में लोगों की सीमा तय की गई है, लेकिन चुनावी रैलियों पर रोक न पश्चिम बंगाल में थी, न उत्तर प्रदेश में है। उससे भी बदतर यह कि इन रैलियों में राजनेता बिना मास्क के होते हैं। ऐसा क्यों है कि नियम बनाने वाले नियम तोड़कर आम जनता का जीवन खतरे में डालते हैं?
मूल्यवृद्धि और मुद्रास्फीति पर क्या-वायरस से मांग घटने के साथ उत्पादन और आपूर्ति लाइन पर भी असर पड़ा है। अमीर देशों में बनी नीतियों का खामियाजा गरीब देश उठा रहे हैं। अमेरिकी फेडरल बैंक के प्रमुख जेरोमी पॉवेल द्वारा लिए गए फैसले का असर भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास के फैसले पर पड़ता है। चूंकि मुद्रास्फीति तेजी से बढ़ रही है, ऐसे में इसका विकास दर पर असर पड़ना तय है और वायरस की तरह मुद्रास्फीति भी वैश्विक है। सच तो यह है कि इस महामारी का प्रबंधन भू-राजनीतिक गड़बड़ियों को सुलझाने में ही निहित है। और वह गड़बड़ी है चीन का विस्तारवादी एजेंडा और यूक्रेन के पार रूस का दुस्साहस। और हां, ऑक्सफोर्ड ने जिस 'क्लाईमेट इमर्जेंसी'