सुधरने की क्षमता खोती कांग्रेस: यदि नीतियां-रणनीतियां नहीं बदलतीं तो सिर्फ काया में परिवर्तन करके कांग्रेस को क्या मिलेगा?

सुधरने की क्षमता खोती कांग्रेस

Update: 2021-06-19 05:52 GMT

सुरेंद्र किशोर : कांग्रेस लगातार दुबली होती जा रही है। कुछ दशक पहले तक ऐसा नहीं था। तब नेतृत्व सशक्त और कल्पनाशील था। इसीलिए 1977 में बुरी तरह हार जाने के बावजूद वह 1980 में ताकतवर होकर उभर आई थी। अब वैसी संभावना समाप्त होती नजर आ रही है, क्योंकि इंदिरा गांधी के बाद के दल के शीर्ष नेता पर अकुशलता छा गई। राजनीति में वंशवाद-परिवारवाद की बुराई का खामियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ रहा है। यह समस्या क्षेत्रीय दलों में भी कमोबेश देखी जा रही है। कांग्रेस के कमजोर होने की शुरुआत 1989 में ही हो गई थी। 1989 और उसके बाद के किसी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला। भ्रष्टाचार, सामाजिक न्याय, राम मंदिर और पंथनिरपेक्षता जैसे मामलों में अपनी गलत नीतियों के कारण कांग्र्रेस ढलान की ओर बढ़ती चली गई। अब भी ढलान की ओर ही है। 2002 में यदि रामविलास पासवान ने राजग नहीं छोड़ा होता तो 2004 में मनमोहन सरकार भी नहीं बन पाती। कांग्रेस की कमजोरी से देश में एक सशक्त और जिम्मेदार प्रतिपक्ष का अभाव होता जा रहा है। इसके चलते कुछ गैर जिम्मेदार क्षेत्रीय दलों का समूह देश पर हावी हो सकता है। यह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है।

यदि कांग्रेस अपनी पिछली गलतियां सुधार ले तो उसका पुनरुद्धार संभव
यदि कांग्रेस अपनी पिछली गलतियां सुधार ले तो उसका पुनरुद्धार संभव है, पर लगता नहीं कि उसके लिए ऐसा करना संभव है। अब तो यह भी लगता है कि कांग्रेस ने सुधरने की क्षमता तक खो दी है। गलती की शुरुआत 1987 में हुई जब राजीव गांधी सरकार बोफोर्स तथा अन्य घोटालों के आरोपों को गलत बताने लगी। अधिकतर मतदाताओं ने यह माना कि राजीव सरकार कुछ छिपा रही है। नतीजतन 1989 के आम चुनाव में कांग्रेस का बहुमत समाप्त हो गया। उस चुनाव में मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार ही था। वह सत्ता से बाहर हो गई। बोफोर्स का सच यह था कि मनमोहन सरकार के कार्यकाल में आयकर न्यायाधिकरण ने यह कह दिया था कि क्वात्रोची और विन चड्ढा को बोफोर्स की दलाली के 41 करोड़ रुपये मिले और ऐसी आय पर टैक्स की देनदारी बनती है। यदि राजीव सरकार ने क्वात्रोची और विन चड्ढा को कानून के हवाले कर दिया होता तो उनकी सरकार बच सकती थी। अगला मामला 1990 का है। वीपी सिंह सरकार ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को आधार बनाकर पिछड़ों के लिए सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण लागू किया। आरक्षण के सवाल पर कांग्रेस पार्टी के नेतागण दो हिस्सों में बंटे गए।
यदि राजीव गांधी ने पिछड़ा आरक्षण का समर्थन कर दिया होता तो पिछड़े कांग्रेस से नहीं कटते
आरक्षण विरोध के सिद्धांतकार राजीव के दोस्त मणिशंकर अय्यर थे तो आरक्षण समर्थन के पैरोकार सीताराम केसरी। नतीजतन लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता के रूप में राजीव गांधी ने आरक्षण पर बीच की राह पकड़ी। इससे पिछड़ों के बीच कांग्रेस का समर्थन घटा। यदि राजीव गांधी ने पिछड़ा आरक्षण का बिना शर्त समर्थन कर दिया होता तो पिछड़े कांग्रेस से नहीं कटते। याद रहे कि सुप्रीम कोर्ट ने 1993 में पिछड़ा आरक्षण पर मुहर लगा दी थी, क्योंकि वह संविधानसम्मत था। आरक्षण पर कांग्रेस के रुख के कारण ही 1991 के आम चुनाव में भी उसे बहुमत नहीं मिला।
राम मंदिर पर राजीव गांधी की ढुलमुल नीति का खामियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ा
राम मंदिर पर भी राजीव गांधी की ढुलमुल नीति का खामियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ा। मनमोहन सरकार ने सूचना के अधिकार और मनरेगा जैसे अच्छे कदम जरूर उठाए, किंतु घोटालों की ऐसी बाढ़ आई कि ये अच्छाइयां भी कारगर नहीं हो सकीं। कांग्रेस का अकुशल नेतृत्व यह भूल गया कि 1989 में भ्रष्टाचार के कारण ही सत्ता उसके हाथ से गई थी। 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद किसी ने विनोदवश कहा था कि मोदी जी को तो चाहिए कि वह अपनी जीत के लिए मनमोहन सिंह को जाकर माला पहनाएं। मोदी की लगातार दो जीत के पीछे कांग्रेस नेताओं पर भीषण भ्रष्टाचार के आरोप तथा अल्पसंख्यक तुष्टीकरण रहा। कांग्रेस आज भी एक तरफ तो भ्रष्टाचार का बचाव कर रही है तो दूसरी ओर अतिवादी मुस्लिमों के तुष्टीकरण के काम में लगी है। कांग्रेस ने कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में एसडीपीआइ के साथ तालमेल किया। यह पीएफआइ का राजनीतिक संगठन है। बंगाल में भी कांग्रेस ने माकपा और एक अतिवादी मुस्लिम संगठन के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। शाहीन बाग धरने में भी कांग्रेस के नेता शामिल हुए। इससे मतदाताओं में क्या संदेश गया, यह जगजाहिर है। बंगाल चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं ने एकजुट होकर तृणमूल कांग्रेस को मत दिए। इससे उत्साहित ममता अपने प्रभाव का अखिल भारतीय विस्तार चाहती हैं।
यदि नीतियां-रणनीतियां नहीं बदलतीं तो सिर्फ दल की काया में परिवर्तन करके कांग्रेस को क्या मिलेगा

साफ है कि कांग्रेस को अल्पसंख्यक मोर्चे पर ममता का सामना करना पड़ सकता है। संभवत: इसी खींचतान में आगे निकल जाने के उद्देश्य से कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने हाल में अनुच्छेद 370 पर फिर से एक नजर डालने का आश्वासन दे डाला। भला बताइए कि ऐसे प्रयासों से कांग्रेस की ताकत बढ़ेगी या घटेगी? जब भी कांग्रेस को कोई झटका लगता है तो उसके नेता कहने लगते हैं कि पार्टी में संगठनात्मक चुनाव हो जाने चाहिए। जितिन प्रसाद के कांग्रेस से जाने के बाद भी यही कहा जा रहा है, पर सवाल है कि यदि नीतियां-रणनीतियां नहीं बदलतीं तो सिर्फ दल की काया में परिवर्तन करके कांग्रेस को क्या मिलेगा? अल्पसंख्यक नीति के अलावा भ्रष्टाचार, सामाजिक न्याय, पाकिस्तान और सीएए जैसे मामलों में अपनी नीतियों को बदले बिना कांग्रेस में कैसे मजबूती आएगी? शायद अगला राजनीतिक मोर्चा सीएए को लेकर खुल सकता है। आजादी के तत्काल बाद की कांग्रेस सरकारों का वादा था कि गैर मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता दी जाएगी, पर आज की कांग्रेस उसके खिलाफ है। क्या ऐसे रवैये से कांग्रेस मजबूत होगी?
कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को अपनी गलतियों का अहसास नहीं है

दरअसल कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को अपनी गलतियों का भी अहसास ही नहीं है। यदि नेतृत्व को अहसास दिलाया भी जाता है तो वह उस पर गौर नहीं करता। 2014 के आम चुनाव के बाद सोनिया गांधी ने एके एंटनी से कहा था कि आप हार के कारणों पर रपट बनाइए। एंटनी ने अपनी रपट में यह भी लिखा था कि मतदाताओं को हमारी पार्टी अल्पसंख्यकों की तरफ झुकी हुई लगी, लेकिन कांग्रेस हाईकमान ने इस अति महत्वपूर्ण बात को न सिर्फ नजरअंदाज कर दिया, बल्कि पुरानी गलती दोहराने लगा। खबर है कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस मदरसे के बच्चों के जरिये मुसलमानों के घरों तक पहुंचेगी। कहीं इसकी प्रतिक्रिया में भाजपा को चुनावी लाभ न मिल जाए।
( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )


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