चयन पर टकराव
एक बार फिर केंद्रीय कानून मंत्री ने रेखांकित किया है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की लिए बनी कालेजियम संविधान की मंशा के अनुरूप नहीं है। यह व्यवस्था तीस साल पहले नहीं थी
Written by जनसत्ता: एक बार फिर केंद्रीय कानून मंत्री ने रेखांकित किया है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की लिए बनी कालेजियम संविधान की मंशा के अनुरूप नहीं है। यह व्यवस्था तीस साल पहले नहीं थी, तब सरकार ही जजों की नियुक्ति किया करती थी। केंद्र सरकार फिर से वही व्यवस्था वापस लाना चाहती है।
कालेजियम को लेकर बहस एक बार फिर इसलिए छिड़ गई है कि सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से पूछा है कि निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति में उसने क्या प्रक्रिया अपनाई है। मौजूदा केंद्र सरकार अपने पिछले कार्यकाल में ही कालेजियम व्यवस्था को समाप्त करना चाहती थी, मगर कानूनी अड़चनों की वजह से ऐसा नहीं कर पाई।
हालांकि ताजा उठे विवाद के संदर्भ में प्रधान न्यायाधीश ने संविधान दिवस के मौके पर कहा कि संवैधानिक लोकतंत्र में कालेजियम समेत कोई भी संस्था परिपूर्ण नहीं है और इसका समाधान मौजूदा व्यवस्था के भीतर काम करना है। दरअसल, कालेजियम व्यवस्था इसलिए बनाई गई थी कि सरकार की तरफ से की जाने वाली जजों की नियुक्ति में राजनीतिक स्वार्थ देखा जाने लगा था।
इसलिए जब मौजूदा सरकार ने कालेजियम व्यवस्था समाप्त करने का प्रस्ताव रखा, तो फिर वही तर्क सिर उठाने लगे कि अगर सरकार जजों की नियुक्ति करेगी, तो उसे राजनीतिक प्रभाव से मुक्त रखने का भरोसा नहीं दिया जा सकता। कालेजियम व्यवस्था में जज ही जजों की नियुक्ति करते हैं। इसलिए बार-बार कहा जाता है कि इस तरह उन्हें पक्षपात करने का मौका मिलता है।
उदाहरण के तौर पर कई नाम गिनाए जाते हैं, जो एक ही परिवार से चले आ रहे हैं। पिता न्यायाधीश रह चुका है, तो उसका बेटा भी जज बन जाता है। इसी तरह मित्रता और रिश्तेदारी निभाने के आरोप भी लगाए जाते हैं। हालांकि कालेजियम व्यवस्था में न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में वैसी अंधेरगर्दी का उदाहरण शायद ही किसी के पास हो, जैसी सरकार द्वारा दूसरे महकमों के प्रधान का चयन करते समय देखी जाती है। ताजा प्रकरण निर्वाचन आयुक्त का है, जिसमें चौबीस घंटे के भीतर सारी प्रक्रिया पूरी कर ली गई।
इसलिए आशंका जताई जाती रही है कि सरकार द्वारा चुने जाने वाले जजों में निष्पक्षता का अभाव हो सकता है। हालांकि उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति में सरकार की भागीदारी भी होती है, पर अनेक ऐसे उदाहरण हैं, जब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भेजे गए नामों में से कुछ नामों पर सरकार सहमति नहीं देती और कई बार अपेक्षाकृत कनिष्ठ को वरिष्ठता क्रम में आगे बढ़ा दिया जाता है।
सर्वोच्च न्यायालय की साख अभी बनी हुई है, तो इसीलिए कि उसने खुद को काफी हद तक राजनीतिक दबावों से मुक्त रखा है। कालेजियम व्यवस्था के पक्षधर विशेषज्ञों की इस राय को दरकिनार नहीं किया जा सकता कि न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार इसलिए न्यायाधीशों को दिया गया कि वे उनकी योग्यता और प्रतिबद्धता को बहुत नजदीक से जानते हैं।
बेशक उनकी नियुक्ति में परिवारवाद के कुछ उदाहरण मिल जाते हैं, पर इस नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर भी कड़े नियम-कायदे बने हुए हैं, इसलिए मनमानी नहीं हो पाती। फिर भी ताजा टकराव को देखते हुए इस विषय पर नए सिरे से और गंभीरता पूर्वक विचार की जरूरत है कि अगर जज, जजों की नियुक्ति नहीं कर सकते, तो फिर सारी नियुक्तियों को राजनीतिक दखलंदाजी से मुक्त क्यों नहीं किया जाना चाहिए।