पर्यावरण की चिंता: हिमालय में प्रेरणा का संगम 

जब हिमालय में प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं। इसलिए ऐसी पहल से लोगों की उम्मीदें बढ़ गई हैं।

Update: 2021-12-02 01:57 GMT

इन काली सदियों के सर से, जब रात का आंचल ढलकेगा, जब दुख के बादल पिघलेंगे, जब दुख का सागर झलकेगा, जब अंबर झूम के नाचेगा, जब धरती नगमें गाएगी, वो सुबह कभी तो आएगी...साहिर लुधियानवी का यह गीत कोरस में गाया जा रहा है। यह गीत वही कह रहा था, जो यहां एकत्र हुए लोग सपना संजोए हुए थे। यह पश्चिमी हिमालय विकल्प संगम का मौका था, जो उत्तराखंड के छोटे से गांव देवलसारी में चल रहा था। पश्चिमी हिमालय के अलग-अलग इलाकों के लोग अपने काम और अनुभव साझा कर रहे थे और विकल्पों की खोज कर रहे थे। टिहरी-गढ़वाल जिले में यह गांव है, जहां 21 से 24 अक्तूबर तक विकल्प संगम का आयोजन हुआ। यह गांव ऊंचे पहाड़ की चोटी पर बसा है, और नीचे कल-कल झरना बह रहा है, पक्षी चहचहा और फुदक रहे हैं।

प्रकृति यहां अपने अनूठे अंदाज में खेल रही है। इस गांव की खुशनसीबी है कि नजदीक ही सदानीरा नाला है, अन्यथा कई जगह तो पीने के पानी के लिए मीलों चलना पड़ता है। यहां पर्यावरण पर काम करने वाली संस्था के परिसर में विकल्पों पर बातचीत चल रही है। शायद विकल्प भी प्रकृति के बीच से, उसके संरक्षण व संवर्धन करते हुए ही उभरेंगे। पश्चिमी हिमालय का यह क्षेत्र काफी विस्तृत है, जो हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, लद्दाख, जम्मू-कश्मीर तक फैला हुआ है। यहां वनस्पति व जीव-जंतुओं की विविधता है। यह क्षेत्र न केवल महाद्वीप के बड़े हिस्से को पानी उपलब्ध कराता है, बल्कि ऊंची चोटियां, विशाल प्राकृतिक भूदृश्य और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत यहां की पहचान भी है।
मौजूदा विकास और वैश्वीकरण के ढांचे के कई नकारात्मक परिणाम आ रहे हैं। इससे पर्यावरण नष्ट हो रहा है, स्थानीय समुदायों की आजीविकाएं तहस-नहस हो रही हैं, खेती-किसानी का संकट बढ़ रहा है, गैर-बराबरी बढ़ रही है। इन बदलावों पर काफी कुछ लिखा और कहा जा चुका है। लेकिन संगम में स्थानीय स्तर पर उभरते विकल्पों और उसमें आने वाली चुनौतियों पर चर्चा की गई। देश-दुनिया में पारिस्थितिकीय रूप से टिकाऊ, समतापरक खुशहाली के रास्तों की तलाश और इसे गढ़ने की कई कोशिशें जारी हैं, पर ये छोटी-छोटी और बिखरी हैं।
विकल्प क्या हैं, और इसके मूल्य क्या हैं, इस सवाल के जवाब में कल्पवृक्ष के आशीष कोठारी बताते हैं कि संगम के पांच स्तंभ हैं, जिन पर चलकर हम वैकल्पिक विकास की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। पर्यावरण सुरक्षा, राजनीतिक लोकतंत्र, आर्थिक लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और संस्कृति और ज्ञान की विविधता। विकल्प संगम में हिमालय से जुड़े कई मुद्दे सामने आए और उन पर विस्तार से चर्चा हुई। बीज बचाओ आंदोलन के विजय जड़धारी कहते हैं, '80 के दशक में हरियाली कम हो चुकी थी। चारा, पत्ती, पानी, ईंधन की कमी हो गई थी। लेकिन गांव वालों ने पेड़ बचाने व नंगे वृक्षविहीन जंगल को हरा-भरा करने की ठानी, और इसे कर दिखाया। कुछ ही साल में जंगल फिर से जी उठा और पहाड़ों पर हरियाली लौट आई। इससे न केवल वहां के सूखते जलस्रोत सदानीरा हो गए, बल्कि जीव-जंतु, जंगली जानवर और पक्षियों की कई प्रजातियां भी जंगल में आ गईं।'
लद्दाख के त्सेवांग नामगेल ने समुदाय आधारित पर्यटन पर चर्चा को आगे बढ़ाया। विसंगतियों को रेखांकित किया, स्कूली किताबों में पढ़ाया जाता है कि बिजली बचाओ, इस्तेमाल के बाद पंखा व नल बंद रखो, सड़कें सुरक्षित पार करो, जबकि वहां न बिजली है, न पंखा है, न नल और न ही सड़कें हैं। वहां शेर, मोर, बाघ के बारे में पढ़ाया जाता है, जबकि ये सब वन्यजीव लद्दाख में नहीं हैं, इसलिए हमने नया पाठ्यक्रम बनाया है। पश्चिमी हिमालय की एक और समस्या है, वह है बड़े पैमाने पर गांवों से युवाओं का पलायन करना, जिससे गांव के गांव भुतहा (सूने) हो रहे हैं। इस मुद्दे पर आद्यासिंह ने प्रकाश डाला। पश्चिमी हिमालय विकल्प संगम बहुत प्रेरणादायक था। और यह ऐसे समय हुआ है, जब हिमालय में प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं। इसलिए ऐसी पहल से लोगों की उम्मीदें बढ़ गई हैं।

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