धरती की चिंता
साल दर साल यह सर के पास आती जा रही है। वैज्ञानिकों ने बहुत पहले समझ लिया था कि जलवायु परिवर्तन के कारण पृथ्वी तेजी से गर्म हो चली है। यह हिसाब भी लग चुका है कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो इस सदी के अंत तक पृथ्वी दो दशमलव सात फीसद गर्म हो जाएगी और यह स्तर पृथ्वी वासियों के लिए भारी तबाही का सबब होगा।
Written by जनसत्ता: साल दर साल यह सर के पास आती जा रही है। वैज्ञानिकों ने बहुत पहले समझ लिया था कि जलवायु परिवर्तन के कारण पृथ्वी तेजी से गर्म हो चली है। यह हिसाब भी लग चुका है कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो इस सदी के अंत तक पृथ्वी दो दशमलव सात फीसद गर्म हो जाएगी और यह स्तर पृथ्वी वासियों के लिए भारी तबाही का सबब होगा।
इसीलिए पूरी दुनिया हर साल इससे निपटने के लिए एक विचार विमर्श का महाआयोजन करती है जिसे कांफ्रेंस आफ पार्टीज (सीओपी) कहते हैं। इस बार भागीदार देशों की सत्ताईस वीं बैठक मिस्र के शर्म अल-शेख में चल रही है। आठ दिन गुजर चुके हैं और इसमें अब तक कमोबेश वही सब कुछ दोहराया गया है जो पिछले एक दशक से कहा जा रहा है।
यहां तक कि इस दौरान एक रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि सन 2019 में पूरी दुनिया में कार्बन उत्सर्जन का जो स्तर था, वही कमोबेश 2022 में अब तक हो चुका है। ऐसे में अगर कार्बन उत्सर्जन का आंकड़ा जस का तस है, तो हमें चौकन्ना हो जाना चाहिए। समस्या को काबू करने के लिए दुनियाभर की सरकारों ने जो लक्ष्य बना कर उपाय लागू करने के जो दावे किए हैं, लगता है वे खोखले साबित हो रहे हैं।
पहली नजर में ही यह दिख जाता है कि इस मसले पर एकजुट दुनिया कार्बन उत्सर्जन कम करने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए ज्यादा कुछ कर नहीं पा रही है। इस मामले में अमीर या विकसित और गरीब या विकासशील देशों के बीच एक टकराव जारी है। तय हुआ था कि पिछले कई दशकों में पर्यावरण खराब होने की चिंता किए बगैर जिन देशों ने अपना ताबड़तोड़ विकास कर लिया, वे गरीब देशों को जलवायु परिवर्तन को थामने के लिए आर्थिक मदद देंगे।
इसके लिए अमीर देश सौ अरब डालर का एक कोष बनाएंगे। लेकिन हैरत की बात है सौ अरब डालर का लक्ष्य किसी भी साल पूरा नहीं किया जा सका। बहुत संभव है कि इस बार यानी सीओपी-27 के आखिरी दिनों में इस कोष का आकार बढ़ाने के लिए अमीर देशों को राजी होना पड़े। और सिर्फ राजी ही नहीं होना पड़े, बल्कि कोई ऐसी पुख्ता व्यवस्था भी बन सके जिससे अगली सीओपी में यह शिकायत न करना पड़े कि अमीर देशों ने जो वायदा किया था, वह पूरा नहीं किया जा सका।
बहरहाल, कार्बन उत्सर्जन के मौजूदा स्तर से इतना तो साफ है कि एकजुट विश्व को अब कड़े फैसले करने पड़ेंगे। वैसे अब तक का अनुभव यह है कि किसी भी कड़े उपाय का बोझ आखिर में गरीब पर ही आता है। सीओपी में गरीब और विकासशील देशों की सरकारों की भी खुल कर बोलने की एक सीमा होती है। जाहिर है ऐसे में विश्व के जागरूक समाज यानी गैरसरकारी संगठन और गैर सरकारी विशेषज्ञों के भी सक्रिय हो जाने की दरकार है।
अर्थशास्त्र और पर्यावरण विज्ञान के विद्वानों को वे तरीके ढूंढ़ कर देने पड़ेंगे कि पर्यावरण का नाश किए बगैर विकास कैसे हो सकता है और ऐसे न्यूनतम विकास को हासिल करने का वह न्यूनतम खर्चा क्या बैठेगा जो अमीर या विकसित देशों से मांगा जा सके। और यह भी कि विकसित देश आइंदा से कार्बन उत्सर्जन इस हद तक कम करें जिससे उसकी भरपाई हो सके जो नुकसान वे पहले कर चुके हैं।