अरूज़ (छंद-शास्त्र) की बाध्यता एवं उपादेयता

अरूज़ की बाध्यता एवं उपादेयता

Update: 2021-10-25 02:38 GMT

कविता एक सांस्कृतिक व सामाजिक प्रक्रिया है। इस अर्थ में कि कवि जाने-अनजाने, अपने हृदय में संचित, स्थिति, स्थान और समय की क्रिया-प्रतिक्रिया स्वरूप प्राप्त भाव-संवेदनाओं के साथ-साथ जीवन मूल्य भी प्रकट कर रहा होता है। और इस अर्थ में भी कि प्रतिभा व परंपरा के बोध से परिष्कृत भावों को अपनी सोच के धरातल से ऊपर उठाते हुए सर्वसामान्य की ज़मीन पर स्थापित कर रहा होता है। पाठक को अधिक मानवीय बनाते हुए और एक बेहतर समाज की अवधारणा देते हुए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए रचनात्मकता का विश्लेषण और मूल्यांकन जरूरी है। यथार्थ के समग्र रूपों का आकलन आधारभूत प्राथमिकता है। यदि यह आधार खिसक गया तो कवि कर्म पर प्रश्न उठेंगे।…हिमाचल प्रदेश में कविता व ग़ज़ल की सार्थक तथा प्रभावी परंपरा रही है। उसी को प्रत्यक्ष-परोक्ष, हर दृष्टि और हर कोण से खंगालने की चेष्टा यह संवाद है।… कुछ विचार बिंदुओं पर सम्मानित कवियों व समालोचकों की ज़िरह, कुम्हार का चाक/छीलते काटते/जो घड़ दे एक आकार। 'हिमाचल की हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में' शीर्षक के अंतर्गत महत्त्वपूर्ण विचार आप पढ़ेंगे। जिन साहित्यकारों ने आग्रह का मान रखा, उनके प्रति आभार। रचनाकारों के रचना-संग्रहों की अनुपलब्धता हमारी सीमा हो सकती है। कुछ नाम यदि छूटे हों तो अन्यथा न लें। यह एक प्रयास है, जो पूर्ण व अंतिम कदापि नहीं है। – अतिथि संपादक


विनोद प्रकाश गुप्ता 'शलभ',अतिथि संपादक: चंद्ररेखा ढडवाल

हिमाचल की हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में -7
विमर्श के बिंदु
कविता के बीच हिमाचली संवेदना
क्या सोशल मीडिया ने कवि को अनुभवहीन साबित किया
भूमंडलीकरण से कहीं दूर पर्वत की ढलान पर कविता
हिमाचली कविता में स्त्री
कविता का उपभोग ज्यादा, साधना कम
हिमाचल की कविता और कवि का राज्याश्रित होना
कवि धैर्य का सोशल मीडिया द्वारा खंडित होना
कवि के हिस्से का तूफान, कितना बाकी है
हिमाचली कवयित्रियों का काल तथा स्त्री विमर्श
प्रदेश में समकालीन सृजन की विधा में कविता
कवि हृदय का हकीकत से संघर्ष
अनुभव तथा ख्याति के बीच कविता का संसर्ग
हिमाचली पाठ्यक्रम के कवि और कविता
हिमाचली कविता का सांगोपांग वर्णन
प्रदेश के साहित्यिक उत्थान में कविता संबोधन
हिमाचली साहित्य में भाषाई प्रयोग (काव्य भाषा के प्रयोग)
गीत कविताओं में बहती पर्वतीय आजादी
हिंदी और उर्दू गज़ल के एक समान सरोकार व समानताएं हैं। दोनों अपनी-अपनी लिपि मेें कही जाती हैं, पर गज़ल के अरूज़ वही हैं (कुछ भाषा व अन्य अपवादों को छोड़कर) जो उर्दू शायरी के संबंध में प्रचलित हैं। हिंदी गज़ल, जिसे मैं हिंदी नहीं, हिंदुस्तानी गज़ल कहता हूं और मेरी हिंदुस्तानी गज़ल में उर्दू व हिंदी गज़ल का पूर्ण समावेश हो चुका है। हिंदी के नहीं आज दोनों भाषाओं में पंजाबी, अंगे्रज़ी, तमिल, लेटिन, पुर्तगीज़ और अनेकानेक भाषाओं के शब्द अपनाए जा चुके हैं। यही आम चलन की भाषा है यही अब गज़लों की भाषा का आईना है। कुछ चर्चा गज़ल के संबंध में करना अपेक्षित है। गज़ल की परिभाषा मूल रूप से अरबी शायरी की देन है जिसमें गज़ल का आधार प्रेम, शृंगार, कोमल भावनाओं को प्रकट करना रहा। जिसका अधिकतर संबंध औरतों से संवाद, उनके सौंदर्य का वर्णन और उनकी मोहब्बत में डूबा रहना आदि से है। प्रायः गज़ल में पांच से 11 शेर कहे जाते हैं। हर शेर दूसरे शेर से स्वतंत्र और परिपूर्ण, या एक ही विषय पर जिसे मुसल्सल गज़ल कहते हैं। गज़ल की खूबसूरती है कि भावों को रूपकों, प्रतीकों और बिंबों के एक झीने पर्दे से ढक कर पेश किया जाता है। परंतु गज़ल के विषयों में आज अभूतपूर्व विस्तार हुआ है।

कविता की तरह गज़ल आज मानवीय सरोकारों से अभिभूत है, अगर गज़ल सामाजिक, आर्थिक और मानवीय उत्तरदायित्वों को नहीं दर्शाती तो समाज और साहित्य को कैसे समृद्ध कर सकती है? यही हिंदी गज़ल की सबसे बड़ी उपलब्धि है जिसने गज़ल के कैनवास को निस्सीम कर दिया है। मैं इसका श्रेय हिंदी गज़ल के पितामाह स्व. दुष्यंत कुमार दूंगा। हिमाचल में गज़ल लिखी जा रही है। बहुत जरूरी है कि गज़ल पर पकड़ मजबूत हो। अगर आपको गज़ल कहनी है तो इसके 'अरूज़ की मर्यादाओं' का मान रखकर ही कहनी पड़ेगी। अरूज़ की उपादेयता गज़ल में गज़ल का परिसीमन करती है- हिंदी के छंदों से कोई छेड़खानी नहीं करता तो हिंदी गज़लकारों को हिंदी में गज़ल कहते हुए प्रचलित ़गज़ल के व्याकरण की मर्यादाओं की पृष्ठभूमि में ही वे छूटें तजवीज़ करनी चाहिए जिन्हें वे लेना चाहते हैं। गज़ल कहन अनेकानेक बंदिशों से भरी पड़ी है। संक्षेप में गज़ल कहन के निश्चित नियमों की एक झलक प्रस्तुत कर रहा हूं- केवल इशारा भर कर रहा हूं। इसके लिए आपको किसी भी गज़ल के व्याकरण की पुस्तक और एक सिद्धहस्त उस्ताद की दरकार होगी ही होगी। गज़ल में रदी़फ का अपना महत्त्व है। गज़ल बगै़र रदी़फ के भी कही जा सकती है जिसे 'गै़र मुरद्द़फ गज़ल कहते हैं। रदी़फ गज़ल को पूर्ण तरह व्यक्त करने का आधार हैं और गज़ल को सौंदर्य भी प्रदान करती है। गज़ल के मतले में या हुस्ने-ए- मतले में रदी़फ, पहली लाइन , जिसे मिसरा-ए-ऊला कहते हैं और दूसरी लाइन जिसे मिसरा-ए-सानी कहते हैं, 'हू-ब-हू' आना चाहिए-बाद के शेरों में मिसरा-ए-सानी में ही हू-ब-हू आना चाहिए। मतले या हुस्न-ए-मतला के बाद अगर उसी ध्वनि में शेर के ऊला मिसरे में रदी़फ का आखिरी शब्द आएगा तो वह दोष-़गलती माना जाएगा। अकसर 'समान ध्वनि' वाले शब्द को गलती तसव्वुर कर कई बार नज़रअंदाज़ भी कर देते हैं, पर आखिरी शब्द का हू-ब-हू लगाना दोष है जिसे क्षमा नहीं किया जा सकता। का़िफया गज़ल का मूल मंत्र है, का़िफये के बिना ़गज़ल संभव ही नहीं।

जब हम गज़ल के व्याकरण से रू-ब-रू होने लगते हैं तो रदी़फ में होने वाले कई दोषों की तरह का़िफये के भी अनेकानेक दोष हमारी नज़र से गुज़रते हैं। जैसे-जैसे हर्फ-रवी का़िफया पैमाइश) की हमें पहचान और समझ होने लगती है, गज़ल का व्याकरण एवं वर्तनी से हमारी मुलाकात होने लगती है, हमें पता लगता है कि का़िफयों की कितनी बारीकियां में गुंथे दोष हम अकसर जाने अनजाने कर बैठते हैं-उदाहरण के लिए-इक्वा दोष, सिनाद दोष, इक़्फा दोष, गुलू दोष आदि। बड़े से बडे़ शायर भी जाने अनजाने का़िफयों की (स्वर और व्यंजन) गलती कर बैठते हैं, खासतौर से व्यंजन का़िफयों की। मूल बात है कि ़का़िफयों को बांधते समय उनके अंतिम स्वरों की ध्वनि का बहुत ख़्याल रखना चाहिए। इसी प्रकार गज़ल कहन के रुक्न एवं अर्कान पूर्व निश्चित किए हुए हैं जिनकी मात्राएं लघु (1) एवं (2) गज़ल की लय को निर्धारित करती हैं। लय की निश्चित मात्राओं पूरी एक गज़ल कही जाती है। 19 बहरें तसव्वुर की हुई मानी गई हैं।

एक गज़ल एक ही बहृ में कही जाती है- अगर ऐसा नहीं होता तो गज़ल बेबहर होगी। मैं संक्षेप में कुछ दोष उद्ध्रत करता हूं। जैसे 1) शुतरगरबा… एक ही शेर में दो सर्वनामों का प्रयोग, 2) जम या अश्लीलत्व.. शेर में अपमान का या अश्लीलता का बोध हो, 3) ऐबे तना़फुर-(तना़फुरे ज़ली (स्पष्ट) या (तना़फुरे खफी (लुप्त) जहां एक शब्द का आ़िखरी शब्द अगले शब्द के पहले शब्द से सीधा या लुप्त ढंग से टकराए, 4) तकाबुले रदी़फ दोष, (ऊपर चर्चा की है),5) ताकीदे-ल़फ्ज़ी-(कर्ता, कर्म और क्रिया को गलत क्रम में प्रयुक्त करना) 6)हज़़्फे-ल़फ्ज़ (शब्द की कमी से भाव की पूर्णतः न हो पाना ) 7) शेर में कर्ता का अभाव, 8) विलोम शब्द प्रयोग संबंधी दोष-(विलोम युग्म शब्दों का सही उपयोग-रात-दिन, सुबह-शाम-(सुबह-संध्या नहीं), 9) अक्रमत्व या भाषाव्यवस्था दोष-(करोड़ों-लाखों नहीं, लाखों-करोड़ों लिखें, 10) विराम आदि चिन्ह का दोष, 11) वचन लिंग और समास संबंधी दोष, 12) निरर्थक या बे-रब्त या तारतम्य होना चाहिए, 14 ) रदी़फ व का़िफया दोष है) गज़ल लेखन में हमें बंदिशों एवं नियमों से जूझना पड़ता है, पर गज़ल कहन में हज़ारों छूटें भी उपलब्ध हैं जो इस लेख में ऊपर संक्षिप्त में दर्शाए दोषों को ध्यान में रख, गज़लें कही जा सकती हैं।

ये छूटें हमें हिंदी के छंदों में नहीं मिलतीं। गज़लकार की प्रतिस्पर्धा स्वयं से ही है। जितना गज़लकार प्रसिद्ध शायरों के कलामों से रू-ब-रू होगा, ़गज़ल के नियम सीखेगा। अपना शब्द ज्ञान बढ़ाएगा, ऊला और सानी मिसरों में शेरियत (त़गज्जुल) लाएगा और ़गज़ल कहन में सामान्यतः होने वाले दोषों को दूर रखेगा, उसके शेर कहने की क्षमता दिनोंदिन बढ़ती जाएगी। अश'आर की महत्ता इस बात से स्पष्ट है कि आप किसी भी परिचर्चा, साहित्यिक गोष्ठी/सम्मेलन, राजनीतिक भाषण, संसद क बहसों आदि के दौरान सब अपने वक्तव्यों को सिद्ध करने के लिए कई-कई शेरों का सहारा लेते हैं। गज़ल आज जन-जन की विधा है। सामान्य लोग तक गज़ल को सुनना चाहते हैं। मेरा दावा है कि आने वाली सदियां गज़ल की संदियां होंगी। गज़ल कहने और पढ़ने वाले भी बेशुमार होंगे।
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