नेपाल के सुप्रीम कोर्ट के संसद के निचले सदन को बहाल करने का ऐतिहासिक फैसला दिया। उससे प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को बड़ा सियासी झटका लगा है। लेकिन जहां तक के राजनीतिक संकट का सवाल है, उसके हल होने की सूरत इससे नहीं निकली है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक सदन का शीतकालीन सत्र 13 दिन के अंदर यानी अगले आठ मार्च तक बुलाना होगा। लेकिन असल सवाल है कि एक बहुमत वाली सरकार कैसे बनेगी? ऐसा नहीं हुआ, फिर क्या होगा। फिर शायद नया चुनाव ही विकल्प बचेगा, जो प्रधानमंत्री ओली कराना चाहते हैं। नेपाली संसद के निचले सदन में 275 सदस्य हैं।
नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के पास विभाजन से पहले 173 सीटें थीं। विभाजन के बाद इस पार्टी में किसी गुट के पास बहुमत नहीं है। सरकार बनाने के लिए 138 सदस्यों का समर्थन चाहिए। पुष्प कमल दहल- माधव नेपाल खेमे के पास अभी तक 90 सांसदों का ही समर्थन है।
विपक्षी नेपाली कांग्रेस के सदन में 63 सदस्य हैं। यानी नेपाली कांग्रेस की भूमिका अहम होने वाली है। लेकिन उसका रुख क्या होगा, इसे उसने साफ नहीं किया है। तो अनुमान लगाया जा रहा है कि ओली को सत्ता से बाहर रखने के लिए मुमकिन है कि दहल- नेपाल खेमा प्रधानमंत्री का पद नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा को देने की पेशकश करे। मुमकिन है कि ओली विरोधी कुछ अन्य पार्टियां भी इस गठबंधन का हिस्सा बन जाएं।
इससे नेपाली कांग्रेस और दहल-नेपाल खेमों की मिली-जुली सरकार बनने का रास्ता खुल जाएगा। लेकिन ऐसा हो, उसके पहले एक बड़ा पेच है। पेच यह है कि कानूनी तौर पर अभी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी एक ही दल है। यानी नई सरकार का रास्ता तभी खुल पाएगा, जब पहले नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन पर कानूनी मुहर लगे। ओली और दहल-नेपाल गुट राजनीतिक रूप से विभाजित हो गए हैं, लेकिन नेपाल के निर्वाचन आयोग के दस्तावेजों में अभी भी यह एक पार्टी है, जिसके सह-अध्यक्ष ओली और दहल हैं। तो जाहिर है, सुप्रीम कोर्ट के फैसले से भले संवैधानिक संकट हल हो गया हो, लेकिन राजनीतिक संकट का इससे अंत नहीं हुआ है।
नेपाली कांग्रेस ने तटस्थ रहने का फैसला किया, तो सियासी संकट और गहरा हो जा सकता है। यानी यह साफ है कि नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता फिलहाल कायम रहेगी।