संचार माध्यमों से नकारात्मकता का संचार

यद्यपि प्रदूषण का संबंध भौतिक परिस्थितियों, पर्यावरण एवं जलवायु से है

Update: 2021-12-14 19:03 GMT

यद्यपि प्रदूषण का संबंध भौतिक परिस्थितियों, पर्यावरण एवं जलवायु से है लेकिन वर्तमान में संचार माध्यमों का प्रयोग वैचारिक, मानसिक एवं मनोवैज्ञानिक प्रदूषण के संचार के लिए भी हो रहा है। मनुष्य के वातावरण में हानिकारक, जीवन नाशक एवं विषैले पदार्थों के एकत्रित होने को प्रदूषण कहते हैं। हम क्या देखते हैं, क्या सुनते हैं या क्या खाते हैं, किस परिवेश में रहते हैं, इसका भी प्रभाव हमारी वृत्ति, विचार,मानसिक तथा मनोविज्ञान, जीवन-शैली, सामाजिक परिवेश एवं सांस्कृतिक वातावरण पर पड़ता है। वर्तमान में डिजिटल चैनलों पर प्रस्तुत की जाने वाली निरर्थक चर्चाओं व प्रिंट मीडिया पर परोसी जा रही शोध रहित, स्तरहीन, सनसनीखेज़ खबरों, असभ्य वार्तालाप, असंस्कारी आचरण, शाब्दिक पत्थरबाजियों तथा नकारात्मकता से देश का टेलीविज़न दर्शक, श्रोता एवं समाचार पाठक परेशान हैं। परिणामस्वरूप समाज में वैमनस्य, आक्रोश, नफरत, वैचारिक, व्यावहारिक, मानसिक एवं मनोवैज्ञानिक प्रदूषण फैल रहा है जिसे हम सभी अनुभव तो कर रहे हैं, परंतु व्यक्त नहीं कर पा रहे हैं। अप्रत्यक्ष रूप से सोची-समझी साजिश से जैसे हमारी मानसिकता तथा जीवन परिवेश को बदलने का कोई सोचा-समझा प्रयास किया जा रहा हो।

विज्ञापनों को दिखाकर उत्पादों का व्यवसायीकरण हो रहा है तथा टीवी चर्चाओं एवं कार्यक्रमों से लोगों की मानसिकता परिवर्तित हो रही है। डिजिटल चैनलों का दर्शक एवं समाचार पाठक परोसी गई सामग्री को अनिच्छा से देखने एवं पढ़ने को विवश है। भौतिकवादी एवं उपभोक्तावादी संस्कृति में वह सब कुछ परोसा जा रहा है जिसके अनुसार वैचारिक एवं मानसिक रूप से परिवर्तित करने का प्रयास हो रहा है। कोई भी व्यक्ति स्वेच्छा एवं प्रसन्नता से टीवी के कार्यक्रमों तथा चर्चाओं को नहीं देखना चाहता, फिर भी वह मूकदर्शक बन कर देख रहा है तथा उस देखने के लिए हर माह भुगतान भी कर रहा है। सोशल मीडिया ने हमारे जीवन को जैसे गुलाम बना दिया है। फेसबुक, वाट्सएप, ट्विटर, इन्स्टाग्राम, मैसेंजर तथा टेलीग्राम ने व्यक्ति को विचार शून्य बना दिया है। नींद से अलसाया समाचार पाठक सुबह जैसे ही अखबार पढ़ता है तो भ्रष्टाचार, चोरी-डकैती, तस्करी, लूटमार, दुर्घटना, आगजनी, हमला, मुठभेड़, फायरिंग, बलात्कार, हत्या, धरना, बंद, घेराव तथा हड़ताल आदि नकारात्मक दृश्य हमारे मन-मस्तिष्क पर अंकित होने लगते हैं जिससे प्रतीत होता है कि समाज, देश और दुनिया में कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा है। हालांकि दुनिया में बहुत कुछ सकारात्मक एवं रचनात्मक भी हो रहा है। पांच रुपए से खरीदा गया समाचार पत्र अर्थपूर्ण तथा लाभदायक सामग्री न होने के कारण मात्र पांच मिनट में रद्दी बन जाता है क्योंकि आमतौर पर उसमें कुछ अपुष्ट सूचनाएं, समाचार तथा विज्ञापन होते हैं तथा बहुत कम सामग्री ज्ञानवर्धक तथा सकारात्मक होती है। पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा था कि अखबार पढ़ने के बाद पाठक के चेहरे पर मुस्कान आने का कारण होना चाहिए। समाचार पत्र सकारात्मकता से भरा होना चाहिए।
समाचारों को विभिन्न संचार साधनों से व्यावसायिक उद्देश्य से सनसनीखेज़ बना दिया जाता है और दर्शक, श्रोता एवं पाठक मानसिक रूप से परेशान होता रहता है। शाम को मेहनत-मजदूरी तथा जीवनयापन के लिए दौड़-भाग करने वाला थका-हारा व्यक्ति आराम एवं मानसिक शांति की खोज में घर पहुंचता है। टीवी का स्विच ऑन करते ही प्राइम टाइम में विभिन्न चैनलों पर 'दंगल', 'घमासान', 'दो टूक', 'मुकाबला' तथा 'मुद्दा गर्म है' आदि मंच सजे होते हैं। इन कार्यक्रमों में किसी निश्चित खेल की तरह पात्र तय होते हैं जिनमें एक व्यक्ति चैनल का एंकर, दूसरा पक्ष में, तीसरा विपक्ष में तथा चौथा व्यक्ति विषय विशेषज्ञ होता है। चर्चा की भूमिका रखी जाती है, तत्पश्चात शुरू होती है बेतुकी तथा तथ्यहीन बयानबाजी। कोई भी एक-दूसरे को सुनने के लिए तैयार नहीं। शाब्दिक पत्थराव होने लगता है, कुछ भी स्पष्ट सुनाई नहीं देता। एंकर खेल के रैफरी की तरह दोनों पक्षों को रोकने की नाकाम कोशिश करता है। न कोई भाषा, न व्यवहार, न तमीज़-तहजीब, मैं-मैं, तू-तू, अभद्र भाषा, गालियां, अभद्र भाषा का प्रयोग, अपशब्दों को म्यूट करने के लिए वीप की साउंड। लाइव चर्चा में कई बार चर्चा में लात-घूंसे चलते हैं, कभी चर्चा में भाग लेने वाले भाग जाते हैं। अब तो एंकर दारू पीकर भी देश से जुड़े गंभीर एवं संवेदनशील मुद्दों पर लाइव चर्चा का संचालन करने लगे हैं। ऐसे में एंकर का कोई नियंत्रण नहीं रह पाता। समय की बरबादी होती है, चर्चा का कोई समाधान या निचोड़ नहीं निकलता। वर्तमान व्यवस्था का सवाल पूछा जाता है, जवाब पचास साल पहले व्यक्ति तथा व्यवस्था का मिलता है। विषय-विशेषज्ञ चुपचाप विस्मय से देखता रहता है और दर्शक सिर पकड़ कर अपने बाल नोचने के लिए विवश होता है। चर्चा का कोई निष्कर्ष नहीं निकल पाता।
असभ्य व्यवहार, आक्रोश, स्तरहीन चर्चा तथा असंस्कारों का प्रदर्शन होता है। व्यक्तियों के मतभेद-मनभेद में बदल जाते हैं। समय की बरबादी होती है और दर्शक ठगा सा रह जाता है। अगले दिन किसी और नई विषय व्यक्ति तथा घटना की और चर्चा शुरू हो जाती है। व्यवसायिक दृष्टि से विज्ञापन तथा खबरों को सनसनीखेज़ बना कर दर्शकों को मूर्ख बना कर टैलीविजन रेटिंग बढ़ाने पर काम होता है। सत्य को स्वीकार किए बिना कभी भी सार्थक चर्चा नहीं हो सकती। चर्चा में विपक्ष में बैठे व्यक्ति के मत को स्वीकार करते हुए तथ्य एवं तर्क, विवेचन एवं विश्लेषण से चर्चा का कोई न कोई निचोड़ निकलना चाहिए। वर्तमान में टीवी चैनलों पर असभ्य, स्तरहीन एवं तथ्यहीन चर्चाओं से समय की बर्बादी हो रही है तथा व्यक्ति का वैचारिक एवं मानसिक प्रदूषण हो रहा है। शिक्षा तथा ज्ञान से मनुष्य को सत्य-असत्य, ठीक या ग़लत का भेद पता चलता है। संचार माध्यमों के द्वारा तर्कहीन, तथ्यहीन, अपुष्ट, अस्पष्ट तथा बेतुकी चर्चाओं से समाज में विपरीत वैचारिक, मानसिक तथा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ रहा है। स्तरहीन चर्चाओं से समाज में अपमान, आक्रोश, असभ्य भाषा, अमर्यादित आचरण, वैमनस्य तथा असंस्कार फैल रहे हैं जो भविष्य की पीढि़यों के लिए स्वस्थ परंपरा का संचार नहीं है। दिन-रात संचार माध्यमों से जुड़े रहने के कारण हमारे सोच-विचार, वृत्ति, मानसिकता एवं मनोविज्ञान पर अप्रत्यक्ष रूप से नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। समाज, प्रांत, देश तथा दुनिया को सुंदर एवं सकारात्मक बनाने के लिए सभी वर्गों का सहयोग अपेक्षित है।
प्रो. सुरेश शर्मा
लेखक घुमारवीं से हैं
Tags:    

Similar News

-->