आम आदमी का वैज्ञानिक : पुणे में जन्मे माधव गाडगिल अमेरिका की सुविधाएं छोड़कर भारत लौटे, कई युवा वैज्ञानिकों के मार्गदर्शक बने
उनके ज्ञान ने मेरे जैसे पर्याप्त फील्ड वर्क करने वाले व्यक्ति को भी तब हैरानी और गर्व से भर दिया था।
मैं वैज्ञानिकों के परिवार से आता हूं, लेकिन मैंने उच्च अध्ययन के लिए विज्ञान को नहीं चुना। इसके बावजूद यह एक सुखद विद्रूप है कि जिस व्यक्ति से मेरा सबसे महत्वपूर्ण बौद्धिक जुड़ाव हुआ, वह एक वैज्ञानिक माधव गाडगिल हैं, जिनका 80वां जन्मदिन इसी महीने आने वाला है। पुणे में पैदा हुए गाडगिल की शिक्षा तत्कालीन बंबई और हार्वर्ड में हुई, जहां उन्होंने पारिस्थितिकी में पीएच.डी. की, फिर अध्यापन भी किया। 1970 के दशक के शुरुआती दौर में वह और उनकी पत्नी सुलोचना ने (जिन्होंने हार्वर्ड से ही गणित में पीएच.डी. की) अमेरिका में वैज्ञानिकों को मिलने वाली सुविधाएं और सम्मान का जीवन छोड़ भारत में काम करने के लिए खुद को समर्पित करने का निर्णय लिया।
सौभाग्य से इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के निदेशक सतीश धवन ने उनकी बौद्धिकता (और जुनून) को समझते हुए दोनों को इंस्टीट्यूट के बंगलूरू कैंपस में नियुक्ति का ऑफर दिया। वहां सुलोचना ने सेंटर फॉर एटमॉसफेरिक साइंस के गठन में मदद की और खुद मानसून पर शानदार काम किया। माधव ने सेंटर फॉर इकोलॉजिकल साइंसेज की स्थापना की, जहां उन्होंने कुछ बेहद शानदार युवा वैज्ञानिकों का मार्ग निर्देशन किया। माधव गाडगिल के वैज्ञानिक करियर के बारे में मैंने अन्यत्र (मेरी किताब हाउ मच शुड ए पर्सन कन्ज्यूम का एक अध्याय उन पर है) विस्तार से लिखा है।
इस कॉलम में मैं उनके व्यक्तिगत जीवन पर लिखना चाहता हूं। जब हम 1982 की गर्मियों में पहली बार मिले, तब वह गणितीय पारिस्थितिकी से बाहर निकलकर पारिस्थितिकी विज्ञान के फील्ड वर्क पर खुद को केंद्रित कर रहे थे। वह बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान में हाथियों के व्यवहार पर अध्ययन कर रहे थे, और देहरादून स्थित एफआरआई (फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट) में अपने शोध पर बोलने आए थे। मेरे पिता एफआरआई में नौकरी करते थे, और तब मैं गर्मी की छुट्टियों में कलकत्ता से (जहां मैं शोध कर रहा था) देहरादून आया था।
मैंने उनका भाषण सुना और उनसे मेरा परिचय भी कराया गया। जब मैंने उन्हें चिपको आंदोलन पर अपना शोध कार्य शुरू करने की बात कही, तो उन्होंने एफआरआई के गेस्ट हाउस में मुझे बुलाया। वहां पहली बार उनसे मेरी बात हुई। पशु पारिस्थितिकी के अपने अध्ययन में माधव गाडगिल राष्ट्रीय उद्यानों के पास रहने वाले आदिवासियों और किसानों के बीच के संघर्ष से रूबरू हुए, और उस दौरान यह जानकारी उनके लिए स्तब्धकारी थी कि ऐसे मामलों में सरकारी नीति भीषण रूप से व्यावसायिक हितों की तरफ झुकी, और किसानों, चरवाहों तथा कलाकारों के प्रति उदासीनता भरी है।
माधव ने खुद में बेहद शक्तिशाली सामाजिक विवेक विकसित किया है, जो कुछ तो नैसर्गिक है, और कुछ आनुवांशिक (सुविख्यात अर्थशास्त्री डी.आर. गाडगिल उनके पिता थे, जो अत्यंत उदारवादी थे, जिनकी मानवाधिकार में रुचि थी और जो बी.आर. आंबेडकर के कामकाज के प्रशंसक थे)। जिस वक्त मैं माधव से मिला, वह पारिस्थितिकीय मॉडलों से निकलकर प्रकृति के बीच रहने वाले लोगों से सीधा संवाद कर रहे थे, जबकि मैं अपने ऐतिहासिक शोध कार्य के लिए फील्ड वर्क छोड़ रहा था। देहरादून और दिल्ली में मुझे उपनिवेशकालीन वानिकी के समृद्ध रिकॉर्ड मिले, जो इतिहासकारों द्वारा उपेक्षित थे।
जब मैंने माधव को अभिलेखागारों में शोध के लिए मिले खजाने के बारे में उत्साहित होकर बताया, तब उन्होंने बेहद संयमित होकर मुझे अपने फील्ड रिसर्च के बारे में सूचित किया। उसी समय हमने यह महसूस किया कि अगर हम अपनी रुचि और अपने संसाधनों को साझा करें, तो शायद ऐसा सार्थक काम कर सकते हैं, जो शायद हम अलग-अलग नहीं कर सकते। वर्ष 1992 में हम दोनों की लिखी किताब दिस फिशर्ड लैंड : एन इकोलॉजिकल हिस्ट्री ऑफ इंडिया आई। इसमें भारत में जंगलों के इस्तेमाल और उन्हें बर्बाद करने के इतिहास के बारे में बताया गया था।
कुछ समीक्षक इस किताब के प्रति उत्साहित थे, जबकि कुछ ने शिकायत की कि इसमें निराशा का भाव है। हमने तय किया कि इसकी अगली कड़ी बेहद रचनात्मक तरीके से लिखेंगे। इसकी अगली कड़ी वर्ष 1995 में इकोलॉजी ऐंड इक्विटी : द यूज ऐंड एब्यूज ऑफ नेचर इन कंटेंपररी इंडिया के रूप में आई। मैं इनके विषय पर नहीं जाऊंगा। लेकिन हम दोनों की साझेदारी के बारे में मैं जरूर बात करूंगा। दोनों किताबों के कवर पर गाडगिल का नाम पहले आया है, क्योंकि अंग्रेजी वर्णमाला के अनुसार गुहा से पहले गाडगिल आएगा।
दोनों ही किताबों में विश्लेषण का ढांचा उनका तैयार किया हुआ है; पहली किताब के मुख्य बिंदु तथा पारिस्थितिकीय समझदारी व पारिस्थितिकीय फिजूलखर्ची का अंतर, तथा दूसरी किताब में सर्वभक्षी, पारिस्थितिकीय लोगों तथा पारिस्थितिकीय शरणार्थियों जैसी शब्दावली तथा उनका विश्लेषण माधव का था। माधव के साथ काम करने वाले व्यक्ति को हमेशा नई से नई चीजों की जानकारी मिलती है। मैं उस कलकत्ता से पीएच.डी. करके आया था, जहां का बौद्धिक वातावरण अपने सामंती रवैये के लिए कुख्यात था, जहां मार्क्सवादी प्रोफेसर सबसे अधिक सामंती थे।
वहां एक महीने बड़े बौद्धिक को भी दादा कहना पड़ता था और वरिष्ठों के ज्ञान पर सवाल करने की इजाजत नहीं थी। जबकि यहां मैं माधव को उनके नाम से पुकारता हूं, जबकि वह मुझसे सोलह साल बड़े हैं। इसके बावजूद हम बराबरी से काम करते हैं। मैंने उन्हें उनकी उन धारणाओं से पीछे हटने को विवश किया, जो मुझे विकासवादी सिद्धांत से अत्यधिक प्रेरित लगे, तो उन्होंने मेरी उन स्थापनाओं को हतोत्साहित किया, जो उनके अनुसार मार्क्सवादी हठधर्मिता थी। माधव गाडगिल इन दिनों आत्मकथा को अंतिम रूप दे रहे हैं, जो अगले साल प्रकाशित होगी।
इसमें दूसरी तमाम चीजों के साथ पश्चिमी घाट पर उस बहुचर्चित रिपोर्ट के हिस्से भी हैं, जिसे उनकी अध्यक्षता वाली कमेटी ने तैयार किया था। उस रिपोर्ट में पश्चिमी घाट के संवेदनशील जंगल और ढलान वाली पहाड़ियों को खनन और दूसरी विध्वंसात्मक गतिविधियों से बचाने की सिफारिश की गई थी और वहां से जुड़े मामलों के फैसलों में स्थानीय लोगों तथा पंचायतों की सहभागिता की जरूरत बताई गई थी। ठेकेदारों-राजनेताओं और नौकरशाहों की कुख्यात तिकड़ी ने तब गाडगिल रिपोर्ट का भारी विरोध किया था, जबकि अलग-अलग क्षेत्रों के लोगों ने उसका स्वागत किया था।
उस रिपोर्ट पर अमल होता, तो केरल, कर्नाटक और गोवा जैसे राज्य बाढ़ की तबाही से बच जाते। मैं माधव गाडगिल को पिछले चालीस साल-यानी उनकी आधी उम्र-से जानता हूं। उनके और अपने घर में, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के डाइनिंग हॉल में, विभिन्न शहरों में आयोजित सेमिनारों में और एक साथ की गई बस और ट्रेन यात्राओं तक में फैली उनकी अनेक यादें मेरी स्मृति में सुरक्षित हैं। अगर मुझे इनमें से किसी एक स्मृति के बारे में पूछा जाए, तो मैं उनके प्रिय पश्चिमी घाट से जुड़ी अपनी स्मृति के बारे में बताऊंगा।
माधव जिस व्यक्ति का सर्वाधिक सम्मान करते रहे हैं, वह एक ईसाई पादरी स्वर्गीय फादर सिसिल जे. सलडान्हा थे, जिन्होंने कर्नाटक की समृद्ध वनस्पति पर एक पुस्तक लिखी थी। एक बार फादर सलडान्हा के चित्रों की प्रदर्शनी लगाने से पहले माधव ने वे चित्र सेंटर फॉर इकोलॉजिकल साइंसेज के गलियारे में रख दिए थे। उस समय किसी भी चित्र के साथ कैप्शन नहीं लगा था। मैंने उन्हें उन चित्रों को पहचानने के लिए कहा, तो वह विस्तार से बताने लगे कि कौन-सा जंगल पक्षी की किस प्रजाति के लिए जाना जाता है, अमुक जलस्रोत का नाम क्या है, बिजली के खंभे के पास के उस गांव का नाम क्या है, आदि-आदि। उनके ज्ञान ने मेरे जैसे पर्याप्त फील्ड वर्क करने वाले व्यक्ति को भी तब हैरानी और गर्व से भर दिया था।
सोर्स: अमर उजाला