धूप-छांही जिंदगी में रंग

हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का… श्वेत-श्याम फिल्म में लाल दुपट्टा! क्या विरोधाभास है! जरा सोचिए, उस दौर में कैसे यकीन दिलाया गया होगा कि नायिका जिस दुपट्टे को लहरा रही है, वह लाल ही है।

Update: 2022-05-07 01:45 GMT

ट्विंकल तोमर सिंह: हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का… श्वेत-श्याम फिल्म में लाल दुपट्टा! क्या विरोधाभास है! जरा सोचिए, उस दौर में कैसे यकीन दिलाया गया होगा कि नायिका जिस दुपट्टे को लहरा रही है, वह लाल ही है। दर्शकों की कल्पना से रंग लिए होंगे। दर्शकों के साथ एक छल किया गया। गीत के बोल से उन्हें यकीन दिलाया गया कि दुपट्टा लाल है। दर्शक मान बैठे कि दुपट्टा लाल है। क्या पता वास्तव में वह किस रंग का था… काला था या नीला था।

काले और सफेद रंगों में सीमित पर्दे पर नायिका जब राजकपूर से कहती है, 'राज, तुम्हारी नीली आंखें…'। नीली? श्वेत-श्याम पर्दे पर नीला रंग कैसे दिखता भला? यह तो दर्शकों ने तब जाना, जब फिल्मी कैनवास पर रंग बिखरने शुरू हुए। फिर उस समय उन पर मरने वाली लड़कियां अपनी कल्पना में राजकपूर की नीली आंखों से कैसे आंखें चार करती होंगी?

श्वेत-श्याम टीवी के पर्दे पर हमारी पीढ़ी के बच्चों ने बहुत बार रंग ढूंढ़ने कोशिश की। और मजे की बात यह कि हमें दिख भी जाते थे। कहीं किसी कोने में मटमैला लाल या भूरा, कभी चमकदार नीला, कभी सतरंगा। हम उतने से ही खुश हो जाते थे। वास्तव में तकनीक के आदिम युग में सस्ते टीवी के सस्ते कांच पर प्रकाश जब अपवर्तन-परावर्तन का खेल खेलता था, तो यों ही भ्रम पैदा कर देता था।

कुछ दिनों बाद ब्लैक ऐंड वाइट टीवी को रंगीन बनाने की कोशिश यों की गई कि रंगीन कांच पर्दे के आगे लगा दिए गए। कभी लाल, कभी पीले, कभी हरे, कभी नीले या कभी-कभी एक ही साथ चारों रंग के। अब जो भी बोलता-चित्र चलता, थोड़ा तो रंगबिरंगा लगता। इतने से ही रंगों से हम खुश थे, तृप्त थे। हमें अधिक की चाह ही नहीं थी।

देखा जाए तो इन बातों में गहरा दर्शन छिपा है। हर किसी को आसानी से जीवन में रंगीनी प्राप्त नहीं होती। विरले होंगे, जिन्हें जीवन में विधाता ने सारे सुख या सारे रंग दिए हैं। अधिकतर लोगों को असुविधा में, अतृप्ति, अभाव में ही जीवन काटना पड़ता है। यह स्वीकार कर लेना होता है कि अपनी तो जिंदगी यों ही है श्वेत-श्याम।

तो क्या जीवन का आनंद मनाना छोड़ देंगे? क्यों नहीं अपनी कल्पना से रंग ले लेते हैं, कुछ इस तरह जैसे पुराने समय में काली-सफेद फोटोग्राफ को ऊपर से रंग कर थोड़ा-सा रंग-बिरंगा कर लिया जाता था?

अरुणिमा एक आम यात्री की तरह ट्रेन के डिब्बे में बैठी थीं। तभी कुछ बदमाश आए और उनका कीमती सामान छीनने की कोशिश करने लगे। विरोध करने पर उन लोगों ने उन्हें डिब्बे से बाहर पटरी पर फेंक दिया।

दूसरी ओर से आती तेज गति गाड़ी उनके पैरों के ऊपर से गुजर गई। कुछ ही पलों में उनकी जिंदगी से दुर्भाग्य ने सारे रंग छीन लिए। पर यह उनकी ही जिद थी कि उन्होंने जीवन को श्वेत-श्याम नहीं रहने दिया। कृत्रिम पैरों के सहारे उन्होंने हिमालय की चढ़ाई की और एवरेस्ट पर चढ़ कर सूर्योदय देखा। उस सूर्योदय से उन्होंने सारे रंग अपने जीवन में वापस ले लिए।

कुछ लोगों को उदास रहने की बीमारी होती है। वे जीवन में सुख नहीं दुख गिन-गिन कर बताते रहते हैं। सुख उनके लिए बस यों ही है, जैसे रोज सूरज का निकलना। यह सारी रंग-बिरंगी दुनिया उनके लिए काली-सफेद है। उन्होंने आसानी से मिलने वाली हर चीज को सस्ती और महत्त्वहीन मान लिया है।

उन्हें वह सब कुछ मिला है, जिसके लिए दूसरे लोग संघर्ष कर रहे हैं, फिर भी वे दुखी हैं। उन्हें आभारी होना नहीं आता। हमें प्रतिदिन आसानी से प्राप्त हो जाने वाली चीजों के लिए ईश्वर का कृतज्ञ होना चाहिए। जैसे पीने का स्वच्छ पानी घर बैठे मिल रहा है, यह नेमत नहीं तो क्या है? जरा उनसे पूछिए पानी का मोल, जो दस मील दूर से पीने का पानी सिर पर ढो कर लाते हैं।

खलील जिब्रान कहते हैं, 'मुझे अपने प्राणों को रंगने दो; मुझे सूर्यास्त निगलने दो और इंद्रधनुष पीने दो।' कितना सुंदर दर्शन है। प्रकृति की हर चीज में रंग है, सुंदरता है, जीवन-रस है। दुनिया को रंगों से भर देने वाला सूर्यास्त सामने हो और हम अपनी उदास आत्मा लिए बैठे रहें, तो हमसे बड़ा मूर्ख कौन है? सात चमकदार रंग लिए मन पर उमंगों का तीर छोड़ने को तैयार 'इंद्रधनुष' आकाश पर सजा हो और हमारे मन में एक भी रंग न जगे, तो हमारे भीतर ही कोई कमी है।

उदासी बड़ी खतरनाक बीमारी होती है। यह पूरा ब्रह्मांड खा जाती है, फिर भी आत्मा को बोझिलता के दलदल में डुबोए रखती है। इससे बचने का एक ही उपाय है, अपने रंग स्वयं तलाशिए। यह जीवन एक कोरे कैनवास की तरह है। इसमें रंग-बिरंगे चित्र हमें ही भरने हैं। मन में उमंग हो तो लुप्तलोचन सूरदास को भी नटखट कान्हा की 'ईस्टमैन कलर छवि' के दर्शन हो जाते हैं।


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