जलवायु : दुनिया को बचाने के लिए भ्रमजाल से निकलकर प्रकृति के खिलाफ नहीं, साथ चलना होगा
शर्म अल-शेख को वही करना चाहिए, जो ग्लासगो ने नहीं किया।
मिस्र के शर्म अल-शेख में आगामी 6-18 नवंबर को आयोजित होने वाले संयुक्त राष्ट्र के 27वें जलवायु परिवर्तन महासम्मेलन (सीओपी-27) से ठीक पहले जलवायु परिवर्तन के बढ़ते असर और उससे हो रहे नुकसान पर जारी संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की एमिशन्स गैप रिपोर्ट के अनुसार, 120 देशों की सबसे महत्वाकांक्षी योजनाएं भी दुनिया को 2.7 डिग्री सेल्सियस तक गर्म होने से नहीं रोक सकतीं।
रिपोर्ट की मानें, तो वर्ष 2021 में ब्रिटेन के ग्लासगो में हुए 26वें जलवायु परिवर्तन महासम्मेलन (सीओपी-26) में सभी देशों द्वारा अपने नेशनली डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशंस को और मजबूत करने का संकल्प जताने और राष्ट्रों द्वारा कुछ अद्यतन जानकारी दिए जाने के बावजूद प्रगति के मोर्चे पर नाकामी ही नजर आ रही है। इसी बीच जारी द लैंसेट काउंटडाउन ऑन हेल्थ ऐंड क्लाइमेट चेंज-2022 की रिपोर्ट की मानें, तो जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता स्वास्थ्य संकटों को और बढ़ा रही है। इसके चलते जलवायु परिवर्तन बेरोकटोक अपनी गति से बढ़ रहा है। स्वच्छ ऊर्जा में पूरी तरह से तब्दीली की तत्काल कार्रवाई अब भी लाखों लोगों की जान बचा सकती है।
वही आईईए के वर्ल्ड एनर्जी आउटलुक के ताजा संस्करण के मुताबिक, यूक्रेन पर रूस की सैन्य कार्रवाई के कारण उत्पन्न हुआ वैश्विक ऊर्जा संकट गहरे और लंबे वक्त तक बरकरार रहने वाले बदलावों की वजह बन रहा है। हालांकि अक्षय ऊर्जा की ज्यादा हिस्सेदारी का संबंध बिजली की कम कीमतों से है और अधिक दक्षतापूर्ण विद्युतीकृत ऊष्मा ने कुछ उपभोक्ताओं को महत्वपूर्ण राहत दी, पर यह नाकाफी है। रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2030 तक वैश्विक स्तर पर स्वच्छ ऊर्जा निवेश को बढ़ाकर बीस खरब डॉलर से ज्यादा करने पर मदद मिलेगी, जो आज के मुकाबले 50 प्रतिशत ज्यादा होगी।
वहीं विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) के ग्रीनहाउस गैस बुलेटिन ने 2021 में मीथेन कॉन्सेंट्रेशन में साल-दर-साल की सबसे बड़ी छलांग की जानकारी दी। यह उछाल बीते चालीस साल में सबसे बड़ी है। इस असाधारण वृद्धि का कारण स्पष्ट नहीं है। इन सब रिपोर्टों का कुल लब्बो-लुआब है कि पेरिस जलवायु समझौते में निर्धारित तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना एक भ्रमजाल से ज्यादा कुछ नहीं हो सकता है।
पिछले कुछ सालों में बढ़ते ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से पैदा जलवायु परिवर्तन प्रभावों के चलते दुनिया के अनेक हिस्सों में तपिश, भारी वर्षा, चक्रवात और सूखा जैसी चरम मौसमी स्थितियां अब ज्यादा शक्तिशाली होकर बार-बार सामने आ रही हैं। इनमें फसलों और खेती की जमीन को होने वाली क्षति, संपत्ति का विनाश, अनेक प्रकार की आर्थिक हानियां और लोगों की जान का नुकसान शामिल है। जिन गरीब लोगों ने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में सबसे कम योगदान दिया है, उन्हें जलवायु प्रभावों का खामियाजा सबसे ज्यादा भुगतना पड़ता है।
इन हालात में जलवायु आपात स्थितियों से रात-दिन जूझ रहे विकासशील देशों के पास जलवायु वित्त और स्वच्छ ऊर्जा ट्रांजिशन के लिए तकनीकी सहायता मांगने के सिवाय कोई दूसरा रास्ता नहीं है। इस मोर्चे पर प्रगति बहुत धीमी है। 2009 में और फिर 2015 में, धनी देश 2020 तक विकासशील देशों को जलवायु वित्त के रूप में प्रति वर्ष 100 अरब डॉलर देने के लिए सहमत हुए थे, पर वे अब तक उस लक्ष्य तक नहीं पहुंचे हैं।
भारत अपना स्वच्छ ऊर्जा भविष्य सुनिश्चित करने के लिए व्यापक मोर्चे पर आगे बढ़ रहा है, और 2070 तक नेट जीरो उत्सर्जन लक्ष्य प्राप्त करने के लिए, भारत को निवेश में 100 खरब डॉलर की आवश्यकता होगी। लेकिन यदि लक्ष्य 2050 तक हासिल करना है, तो कुछ अनुमान 135 खरब डॉलर के निवेश का सुझाव देते हैं। जलवायु अनुकूलन (क्लाइमेट एडॉप्टेशन) के साथ-साथ नुकसान और क्षति के महत्वपूर्ण मुद्दों पर विकासशील देशों की आवाज सुनी जानी चाहिए। शर्म अल-शेख को वही करना चाहिए, जो ग्लासगो ने नहीं किया।
सोर्स: अमर उजाला